महाजनपद काल का इतिहास | Mahajanapada Period In Hindi

हेलो दोस्तों, हमारे इस ब्लॉग में आपका स्वागत है, हमारे इस ब्लॉग में आपको महाजनपद काल का सम्पूर्ण इतिहास | Mahajanapada Period In Hindi में हर्यक वंश, शिशुनाग वंश, नन्द वंश के साथ साथ जैन धर्म के इतिहास, बौद्ध धर्म के इतिहास आदि के बारे में जानेंगे , तो चलिए दोस्तों इनके बारे जानते है

हर्यक वंश (544 ई. पू. – 412 ई. पू.)

1. बिम्बिसार (544 – 492 ई. पू.)

इस वंश का सबसे प्रतापी राजा बिम्बिसार था। जैन साहित्य में बिम्बिसार को ‘श्रेणिक’ कहा गया है। उसने वैशाली, कौशल आदि राज परिवारों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये व अपने राज्य को कुशल प्रशासन दिया। उसने कोशल नरेश प्रसेनजीत की बहन महाकोशला के साथ विवाह किया तथा दहेज में एक लाख की वार्षिक आय वाला ‘काशी’ प्रांत प्राप्त किया। उसकी दूसरी पत्नी लिच्छवी राजकुमारी चेल्लना थी। बुद्धघोष के अनुसार बिम्बिसार के साम्राज्य में 80,000 गाँव थे। उसने राजगृह नामक नवीन नगर की स्थापना करवाई थी। बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया तथा ‘वेलुवन’ नामक उद्यान बुद्ध तथा संघ के निमित्त प्रदान कर दिया। ‘महावंश’ के अनुसार उसने 52 वर्ष राज्य किया। इतिहासकारों ने इसका काल 545 ई.पू. से 492 ई.पू. भी निश्चित किया है। अंतिम समय में उसके पुत्र ‘अजातशत्रु’ ने उसका वध करके राज्य हथिया लिया।’


मगध की सफलता के कारण
  1. बिबसार, अजातशत्रु और महापदमनंद जैसे शासकों की योग्यता।
  2. गंगा के मैदानों के ऊपरी तथा निचले भागों में होने के कारण यह समारिक तथा व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण था।
  3. घने जंगलों के कारण हाथी तथा लकड़ी प्राप्त होती थी।
  4. खनिज संसाधनों की प्राप्ति (विशेषकर लोहा) । → कृषि में लोहे का प्रयोग।
  5. विस्तृत उपजाऊ मैदान तथा प्राकृतिक सुरक्षा से युक्त।

2. अजातशत्रु (492 – 460 ई. पू.)

इसे कुणिक भी कहा जाता था. यह घोर साम्राज्यवादी था। उसने कोशल, काशी तथा वज्जि संघ पर विजय प्राप्त की। वैशाली के लिच्छवियों के साथ हुए युद्ध में उसने ” महाशिलाकण्टक ” तथा “रथमूसल” का प्रयोग किया था। उसने राजगृह में एक मजबूत दुर्ग बनवाया। ‘अवन्ति’ राजा प्रद्योत से भी उसका तनाव था, मगर अजातशत्रु अवन्ति पर विजय न पा सका। अजातशत्रु धार्मिक दृष्टिकोण से उदार था। आरम्भ में वह बुद्ध का विरोधी था, मगर बाद में उसका अनुयायी बन गया। भरहुत स्तूप की एक वैदिका के ऊपर ‘अजातशत्रु को भगवान बुद्ध की वंदना करते हुए’ उत्कीर्ण किया गया है। बुद्ध के कुछ अवशेषों को लेकर उसने राजगृह के एक स्तूप निर्मित कराया। उसके शासन काल में राजगृह में सप्तपर्णि गुफा में 483 ई.पू. में प्रथम बौद्ध सभा का आयोजन किया गया, जिसमें बुद्ध की शिक्षाओं का “सुत्तपिटक” तथा “विनयपिटक” में संकलन करवाया गया। पुराणों के अनुसार उसने 28 वर्ष तथा बौद्ध साक्ष्य के अनुसार 32 वर्ष तक शासन किया। अजातशत्रु की हत्या उसके पुत्र उदयिन द्वारा कर दी गई।

3. उदयिन या उदयभद्र (460 – 444 ई. पू.)

“महावंश” के अनुसार उसने 16 वर्ष तक राज्य किया। बौद्ध साहित्य में उसे पितृहंता बताया गया है। “गार्गी संहिता” एवं “वायु पुराण” के आधार पर उसने गंगा एवं सोन नदी के संगम पर ‘पाटिलीपुत्र’ नामक नगर की स्थापना का। वह जैन मतानुयायी था। राजधानी के मध्य में उसने एक जैन चैत्यगृह का निर्माण कराया था। पुराणों के अनुसार उसने 32 वर्ष तक राज्य किया। बौद्ध साहित्य के अनुसार उदयन के बाद अनिरुद्ध, मुण्ड तथा नागदर्शक ने मिलकर 412 ई.पू. तक शासन किया।

शिशुनाग वंश (412 ई. पू. – 344 ई. पू.)

1. शिशुनाग (544 – 492 ई. पू.)

लंका के बौद्ध ग्रंथ महावंश के अनुसार पता चलता है कि अजातशत्रु की मृत्यु के बाद पाँच पितृहंता शासकों के जल्दी-जल्दी सिंहासनारुढ़ होने के कारण जनता में असंतोष व्याप्त होता गया। संभवतः इसी कारण वहाँ की जनता ने बनारस के उपराजा शिशुनाग को गद्दी पर बैठा दिया। शिशुनाग ने अवंति तथा वत्स को मगध साम्राज्य का भाग बना लिया। वज्जि गणराज्य के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिए पाटलिपुत्र के अतिरिक्त वैशाली को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। शिशुनाग का उत्तराधिकारी कालाशोक इसके बाद मगध साम्राज्य का शासक बना।

2. कालाशोक (394 – 366 ई. पू.)

“पुराणों” और ‘दिव्यावदान’ में कालाशोक का नाम ‘काकवर्ण’ मिलता है। उसने वैशाली के स्थान पर पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया व उसी के शासन काल में 383 ई.पू. दूसरी बौद्ध संगीति में बौद्ध संघ ‘स्थविर’ तथा ‘महासंधिक’ के रूप में बंट गया। ‘दीपवंश’ और ‘महावंश’ के अनुसार उसने 28 वर्षों तक शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों ने 22 वर्षों तक शासन किया। इस वंश का अंतिम शासक संभवत: नंदिवर्द्धन था।

महत्त्वपूर्ण तथ्य –
  1. बिम्बिसार ने अंग के शासक ब्रह्मदत्त को पराजित कर अजातशत्रु को यहां का वायसराय नियुक्त किया था।
  2. बिम्बिसार ने अवंति के शासक चण्डप्रद्योत की चिकित्सा हेतु अपने राजवैद्य जीवक को भेजा था।
  3. बिम्बसार के शासनकाल मे जीवक (प्रसिद्ध वैद्य) और महागोविन्द (प्रसिद्ध वास्तुकार) हुये।
  4. कुशीनारा के मल्ल को वाल्मिकी रामायण में लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु मल्ल का वंशज बतलाया गया है।
  5. गणतंत्रों की सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए गणपूरक नामक पदाधिकारी होता था।

नन्द वंश (344 ई. पू. – 324 ई. पू.)

पुराणों में इस वंश का संस्थापक महापद्मनंद था। पहले नन्द राजा को पुराणों में ‘उग्रसेन’, महापद्म या महापद्मपति कहा गया है। ‘कर्टियस’ के अनुसार उसका पिता ‘नाई’ था, जिसका संबंध कालाशोक की रानी से था। उसी ने कालाशोक के बाद एक-एक करके उसके पुत्रों का वध किया था। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार उसे एक “शूद्र शासक” बताया गया है। पुराणों में उसे एकच्छत्र ‘पृथ्वी का राजा’, ‘अनुल्लंघित शासक’ भार्गव (परशुराम) के समान ‘सर्वक्षत्रान्तक’ (क्षत्रियों का नाश करने वाला) एवं ‘एकराट्’ आदि उपाधियां दी गयी।

महापद्म नन्द के आठ पुत्रों में अंतिम पुत्र धनानन्द सिकन्दर का समकालीन था। ग्रीक लेखकों ने इसे अग्रमीज एवं जैन्द्रमीज कहा। धनानन्द के शासनकाल में ही सिकन्दर में 325 ई.पू. में पश्चिमी तट पर आक्रमण किया। धनानंद का विनाश चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया।

महत्त्वपूर्ण तथ्य –
  1. मतों की गणना करने वाला अधिकारी शलाकाग्राहक कहलाता था।
  2. रज्जुग्राहक भूमि की माप करने वाला अधिकारी था।
  3. द्रोणमापक अनाज के तौल का निरीक्षण करता था।
  4. दुग्ध धन एक प्रकार का कर था जो कि राजा के पुत्र के जन्म के अवसर पर लिया जाता था।
  5. अकाशिया तथा तन्दिया जैसे अधिकारी बलपूर्वक कर वसूली से संबद्ध थे।

धार्मिक आंदोलन

जैन धर्म | Jainism In Hindi

जैन धर्म का संस्थापक “ऋषभदेव को माना जाता है। पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे। “कल्पसूत्र” के अनुसार क्षत्रिय वंश के बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र पार्श्वनाथ का विवाह सम्राट “नरवर्मा” की पुत्री “भगवती” से हुआ था। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने सन्यास लिया तथा 83 दिन तक घोर तप करके परम ज्ञान (कैवल्य) प्राप्त किया। उनके पास 8 गण व 8 गणधर थे। 16,000 श्रमण 1.64,000 पुरुष तथा 3,27,000 स्त्रियां उनकी अनुयायी थी। उनकी मृत्यु ” सम्मेद पर्वत” के शिखर पर 100 वर्ष की आयु में महावीर की मृत्यु से 250 वर्ष पूर्व हुई।

महावीर का प्रारंभिक जीवन –

महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थकर थे। इनका जन्म 540 ईसा पूर्व के लगभग वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे जो वज्जि संघ का एक प्रमुख सदस्य था। उनकी माता त्रिशला अथवा विदेहदता वैशाली के लिछवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी। मातृपक्ष से ये मगध की हक राजानी-विबिसार तथा अजातशत्रु को निकट संबंधी थे। इनका विवाह काण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ। इनको एक पुत्री थी जिसका नाम अन्जिा या प्रियदर्शना था। अणज्जा का विवाह जमालि नामक क्षत्रिय से हुआ यह महावीर का प्रथम शिष्य था जमालि ने जैन धर्म में प्रथम विद्रोह कर बहुतवाद नामक सम्प्रदाय स्थापित किया।

30 वर्ष की अवस्था में वर्द्धमान ने बड़े भाई नदिवर्द्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया। प्रारंभ में उन्होंने वस्त्र धारण किया, किंतु 13 मास पश्चात् वे पूर्णतया जग्न रहने लगे। नालंदा में उनकी मुलाकात मक्खलिपुत्त गोसाल नामक संन्यासी से हुई, जो उनका शिष्य बन गया। यह वही व्यक्ति था, जिसने 6 वर्षों बाद वर्द्धमान का साथ छोड़कर ‘आजीवक’ नामक नये संप्रदाय की स्थापना की थी। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात जुम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान (कैवल्य) प्राप्त हुआ। ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने अपने सिद्धांतों के प्रचार हेतु भ्रमण प्रारंभ किया और चम्पा, वैशाली. मिथिला राजगृह, श्रावस्ती में विश्राम किया। 30 वर्षों तक अपने मत का प्रचार करने के बाद 468 ईसा पूर्व लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावा नामक स्थान पर उन्होंने शरीर त्याग दिया।

महावीर के अन्य नाम – बर्द्धमान, निगण्ठनाथपुत्त, केवलिन (कैवल्य सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त होने के कारण), जिन (विजेता), यति (गृहत्याग के कारण), अर्हत् (श्रेष्ठतम होने के कारण), वीतराग (सांसारिकता से मुक्त होने के कारण)

जैन दर्शन और सिद्धांत – महावीर ने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकांतिक मतों को छोड़कर एक अन्य मार्ग अपनाया जिसे ‘अनेकान्तवाद’ अथवा स्यादवाद कहा गया है। इस मत के के अनुसार किसी वस्तु के अनेक धर्म होते हैं। समस्त विश्व जीव तथा अजीव नामक दो नित्य एवं स्वतंत्र तत्वों से मिलकर बना है। जीव से तात्पर्य सार्वभौमिक आत्मा से न होकर मनुष्य की व्यक्तिगत आत्मा से है। इनके मतानुसार आत्माये अनेक होती हैं। चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक गुण है। वे सृष्टि के कण-कण में आत्मा का वास मानते थे। जीव (आत्मा) अपने शुद्ध रूप में चैतन्य एवं स्वयं प्रकाशमान है तथा वह अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। कर्म बन्धन का कारण है। यहाँ कर्म को सूक्ष्म तत्व भूततत्व के रूप में माना गया है। जो जीव में प्रवेश कर उसे नीचे संसार की ओर खींच लाता है। जैन मत में भी अज्ञान को बन्धन का कारण माना गया है। इसके कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होता। कर्म का जीव के साथ जुड़ जाना बंधन है। प्रत्येक जीव अपने पूर्व संचित कर्मों के अनुसार की शरीर धारण करता है।

त्रिरत्नः पूर्वजन्म के कर्मफल को समाप्त करने एवं वर्तमान जन्म के कर्मफल से बचने हेतु महावीर ने त्रिरत्न का सिद्धांत दिया जो निम्नलिखित है।
  1. ‘सम्यक् ज्ञान – जैन धर्म के सिद्धांतों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है।
  2. सम्यक् दर्शन – जैन तीर्थंकरों के उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक् दर्शन है।
  3. सम्यक् चरित्र – प्राप्त ज्ञान को कार्यरूप में परिणत करना ही सम्यक् चरित्र है। इसके अंतर्गत भिक्षुओं के लिए पाँच महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत बताये गये हैं
पंचव्रत – पार्श्वनाथ ने अपने शिष्यों को चार महाव्रत पालन करने की सलाह दी लेकिन महावीर ने इसमें पांचवा व्रत ब्रह्मचर्य जोड़ा।

पंचव्रत के प्रकार –
  1. सत्य- सदैव सत्य बोलना।
  2. अहिंसा – हिंसा न करना।
  3. अस्तेय-चोरी नहीं करना।
  4. ब्रह्मचर्य-वासनाओं का त्याग।
महत्त्वपूर्ण तथ्य –
  1. महावीर की मृत्यु के पश्चात । गणधर जीवित था-सुधर्मन।
  2. जैन धर्म के अंतिम केवलिन जम्बूस्वामी थे।
  3. जैन धर्म देवताओं के अस्तित्व को स्वीकारता है परन्तु उन्हें जिन से नीचे रखता है।
  4. जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना एवं पालन-पोषण सार्वभौमिक विधान से हुआ है।
  5. जैन धर्म पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास रखता है।
  6. जैन धर्म में संलेखना से तात्पर्य है: ‘उपवास द्वारा शरीर का त्याग’।
  7. जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक वस्तु में आत्मा होती है।
जैन संगीतियाँ

प्रथम जैन संगीति
  • समय – 322 से 298 ई.पू.
  • स्थल – पाटलिपुत्र
  • अध्यक्ष – स्थूलभद्र
  • शासक – चन्द्रगुप्त मौर्य
  • कार्य – जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण 12 अंगों का प्रणयन किया गया और जैन धर्म का दो शाखाओं—” श्वेताम्बर” और “दिगम्बर” में विभाजन ।
दूसरी जैन संगीति
  • समय – 512 ई..
  • स्थल – वल्लभी
  • अध्यक्ष – देवर्धि क्षमाश्रमण (देवऋद्धिगणी)
  • कार्य – जैन धर्म ग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित करके लिपिबद्ध किया गया। इसमें 84 आगमों की संख्या निश्चित हुई तथा 12 उपांगों का संकलन हुआ।

श्वेताम्बर संप्रदाय एवं दिगम्बर संप्रदाय में अंतर

श्वेताम्बर संप्रदायदिगम्बर संप्रदाय
संस्थापक स्थूलभद्रसंस्थापक भद्रबाहु
स्त्रियों को निर्वाण का अधिकार प्राप्त हैस्त्रियाँ निर्वाण की अधिकारी नहीं है
वस्त्र धारण करते थे (श्वेत)वस्त्र धारण नहीं करते थे।
भोजन ग्रहण करने से परहेज नहीं है।काया- क्लेश पर जोर है।
जैन साहित्य को मानते हैंसिर्फ भद्रबाहु की शिक्षा को मानते हैं

महावीर के 11 गणधर –
  1. इन्द्रभूति गौतम
  2. अग्नि भूमि
  3. भवभूति
  4. आर्याव्यक्त
  5. सुधर्मन
  6. मंडिक
  7. मौर्यपुत्र
  8. अकम्पी
  9. अचलमृत
  10. मेदार्य
  11. प्रवास
महत्त्वपूर्ण तथ्य
1 पार्श्वनाथ के अनुयायियों को निग्रंथ कहा जाता है।
2 इनकी प्रथम अनुयायी इनकी माता वामा तथा पत्नी प्रभावती थीं।
3 जैन साहित्यों की भाषा अर्द्ध-मागधी प्राकृत है।
4 महावीर ने जीव और अजीव नामक दो तत्त्वों के आधार पर सृष्टि की द्वैतवादी व्याख्या की है।
5 ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में ऋग्वेद में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का उल्लेख है।
6 महावीर ने पहला उपदेश राजगृह के वितुलाचल पहाड़ी पर दिया।
7 महावीर के पश्चात् जैन संघ का अध्यक्ष सुधर्मन, पुन: जंबूक तथा उसके बाद भद्रबाहु हुआ।
8 श्लाका पुरुष की अवधारणा जैन धर्म से संबंधित है।
9 विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख नारायण के अवतार के रूप में हुआ है।

जैन धर्म से संबंधित शब्दावलियां

1. स्याद्वाद – स्यावाद को अनेकांतवाद भी कहते हैं। ये ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। किसी वस्तु के विषय में हमारे निर्णय सापेक्ष हैं, न तो हम किसी को पूर्णतः स्वीकार कर सकते हैं और न पूर्णत: अस्वीकार इसे सप्तभंगीय भी कहा जाता है।
2. आस्त्रव – जब कर्म का आत्मा की ओर प्रवाह होता है।
3. बंधन – पुद्गल कणों का जीव में प्रवेश
4. संवर – कर्म का जीव की ओर प्रवाह रुक जाना
5. निर्जरा— जीव में पहले से विद्यमान कर्मों का समाप्त हो जाना।
6. अनित्यवाद – संसार की सभी वस्तुएं अनित्य हैं।
7. क्षणिकवाद – संसार की प्रत्येक वस्तुओं का अस्तित्व सिर्फ क्षणभर के लिए है।बुद्ध के अनुयायियों ने अनित्यवाद को ही क्षणिकवाद में बदल दिया।
8. सल्लेखना – उपवास द्वारा प्राण त्याग

जैन साहित्य –

जैन साहित्य को ‘आगम’ कहा जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6. छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र व नंदिसूत्र की गणना की जाती है।

12 अंग –
  1. आचरांग सूत्र – भिक्षुओं के आचार नियम
  2. सूयग दंग सूत्र – जैनेत्तर मतों का खंडन
  3. ठाणंग (स्थनांग) – जैन धर्म से सिद्धांतों का उल्लेख
  4. समवायंग सूत्र – जैन धर्म से संबंधित उपदेश
  5. भगवती सुत्त – महावीर के जीवन तथा कृत्यों का उल्लेख
  6. नायधम्म कहा सुत्त- महावीर की शिक्षाओं का संग्रह
  7. उवासगदसओ सुत्त – जैन उपासकों के विधि आचार नियम
  8. अंतगड्डदसाओ – मृत्यु से संबंधित वर्णन
  9. अणुन्तरोववाइयदसाओ – गूढ़ प्रश्न की व्याख्या
  10. पण्हावागरणाइ – पाँच महाव्रतो तथा अन्य नियमों का वर्णन
  11. विवाग सुयम् – अच्छे बुरे कर्मों के फलों का विवरण
  12. दिट्टवाय – यह सम्प्रति अप्राप्य हैं।
12 उपांग –

(1) औपपातिक, (2) राजप्रश्नीय (3) जीवाभिगम, (4) प्रज्ञापना (5) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (6) चन्द्र प्रज्ञप्ति (7) सूर्य प्रज्ञप्ति (8) निरयावलि, (9) कल्पावसन्तिका, (10) पुष्पिका (11) पुष्प चूलिका (12) वृष्णि दशा

10 प्रकीर्ण –

(1) चतु:शरण, (2) आतर प्रत्याख्यान (3) भक्ति परिज्ञा (4) संस्तार, (5) तन्दुल वैतालिक (6) चन्द्रवैध्यक, (7) गणिविद्या, (8) देवेन्द्रस्तव, (9) वीरस्तव, (10) महाप्रत्याख्यान

6 छेदसूत्र –

(1) निशीथ, (2) महानिशीथ (3) व्यवहार, (4) अचारदशा, (5) कल्प, (6) पंच कल्प

बौद्ध धर्म | Buddhism In Hindi

बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी वन में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के प्रधान थे तथा माता मायादेवी कोलिय गणराज्य की कन्या थी। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में ‘यशोधरा’ से हुआ। यशोधरा के गोप, विम्ब, भदकच्छना इत्यादि कई नाम थे। उनके एक पुत्र जन्मा, जिसका नाम राहुल था। सारथी “चन्ना” के साथ रथ पर सैर करते हुए उन्होंने चार घटनाओं बुढ़ापा रोग मृत्यु और सन्यास को देखकर गृहत्याग कर सत्य ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। उस समय उनकी आयु 29 वर्ष थी। इस गृहत्याग की बौद्ध ग्रंथों में ‘महाभिनिष्क्रमण को सजा दी गई है ज्ञान – प्राप्ति हेतु भ्रमण करते हुए वे सर्वप्रथम सांख्य दर्शन के आचार्य अलार कलाम के पास पहुँचे उरूबेला (बोध गया) में उन्हें पाँच ब्राह्मण सन्यासी मिले। उरूबेला तत्कालीन मगध साम्राज्य में स्थित था। लेकिन सिद्धार्थ द्वारा अन्न जल ग्रहण करने के सिद्धांत के समर्थन को लेकर उनसे मतभेद हो गया था। विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए उन्हें 35 वर्ष की आयु में “गया” में “वट के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। तब वे बुद्ध कहलाये। इसके पश्चात उन विभिन्न स्थानों की यात्रा की और ज्ञान का प्रचार किया। उरूबेला से वह सर्वप्रथम कपिपनन सारनाथ आये यहाँ उन्होंने 5 ब्राह्मण संन्यासियों को अपनी प्रथम उपदेश दिया। इस इतिहास में धर्मचक्रप्रवर्तन (धम्मचक्कान) की सजा दी गई कुशीनगर में महात्मा बुद्ध की मृत्यु हो गयी। उनके जीवन को महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका जन्म ज्ञान प्राप्ति और मृत्यु ( महापरिनिर्वाण ) “वैशाख की पूर्णिमा” को ही हुआ था।

बुद्ध के जीवन से संबंधित 5 महाचिन्ह
1. जन्म
– कमल व साङ
2. गृहत्याग – घोड़ा
3. ज्ञान – पीपल (बोधि वृक्ष)
4. निर्वाण – पदचिह्न
5. मृत्यु – स्तूप

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ

चार आर्य सत्य

(1) संसार दुःखों का घर है, (2) तृष्णा (इच्छा) दुःखों का कारण है, (3) इच्छाओं के त्याग से ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है तथा (4) इच्छा को अष्ट मार्ग पर चल कर समाप्त किया जा सकता है।

अष्टांगिक मार्ग –

(1) सम्यक दृष्टि (2) सम्यक् संकल्प, (3) सम्यक् वचन (4) सम्यक् कर्म, (5) सम्यक् आजीविका (6) सम्यक् प्रयत्न, (7) सम्यक् विचार तथा (8) सम्यक् अध्ययन या समाधि।

सदाचार पर बल –

(1) सत्य बोलना, (2) चोरी न करना, (3) ब्रह्मचर्य का पालन (4) लोभ का त्याग, (5) सुगन्धित वस्तुओं का निषेध (6) अहिंसा का पालन, (7) नृत्य-गान का त्याग, (8) कामिनी कंचन का त्याग (9) असमय भोजन न करना (10) कोमल शैय्या का त्याग ।

त्रिरत्न – बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं: – (1) बुद्ध, (2) धम्म, (3) संघ

गौतम बुद्ध ने धर्म (शिक्षाओं) के प्रचार हेतु संघ की व्यवस्था की। इसमें प्रवेश पाने हेतु 15 वर्ष की आयु माता-पिता की अनुमति, अपराधी या ऋणी न होने वाला व्यक्ति तथा तपेदिक, कोढ़ आदि से पीड़ित न होने वाले व्यक्ति को ही अनुमति थी उसे केश मुंडवाकर, पीले वस्त्र धारण करके तीन वाक्य कहने पड़ते थे – “ बुद्धम् शरणम् गच्छामि।”,’धम्मम् शरणम् गच्छामि। “, “संघम् शरणम् गच्छामि।” भिक्षुओं के लिये मठों तथा विहारों की स्थापना की गयी। भिक्षुओं को नित्य प्रति कड़े अनुशासन में रहना पड़ता था। वर्षा ऋतु के चार मास भिक्षु धर्म प्रचार छोड़ कर मठों में विश्राम करते भिक्षुणियों के रहने हेतु अलग व्यवस्था तथा कड़े नियम थे। 15 दिन में संघ के सदस्यों की सभा होती थी तथा इसकी कार्य प्रणाली प्रजातन्त्रात्मक थी। प्रत्येक बात का निर्णय बहुमत द्वारा लिया जाता था। भारतीय सभ्यता के लिए यह गौरव का विषय है कि सैकड़ों वर्ष पहले भारत में प्रजातंत्र की नींव पड़ चुकी थी।

गौतम बुद्ध के जीवन की घटनायें

  • गृह त्याग की घटना – महाभिनिष्क्रमण
  • ज्ञान प्राप्त होने की घटना – सम्बोधि
  • उपदेश देने की घटना – धर्मचक्रप्रवर्तन
  • निर्वाण – महापरिनिर्वाण

बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदाय

1. महासंधिक –

इसका प्रधान केंद्र मगध था। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति बुद्धत्व प्राप्त कर सकता है। कालान्तर में यह महायान में परिणत हो गया।

महायान के 2 उपसंप्रदाय है।
  1. माध्यमिक ( शून्यवाद ) के प्रवर्त्तक नागार्जुन थे। यह बौद्ध धर्म का सापेक्षवादिता का सिद्धांत है। इस संप्रदाय के मुख्य विद्वान हैं – आर्यदेव, चंद्रकीर्ति, शांतिदेव, शांतिरक्षित, बुद्धपालित।
  2. योगाचार (विज्ञानवाद) विज्ञान ही एकमात्र सत्ता है योग और आचार पर आधारित होने के कारण इसे योगाचार कहा गया। इसके प्रवर्त्तक मैत्रेयनाथ थे। इसके अन्य विद्वान है- असंग, वसुबंधु, आचार्य स्थिरमित, आचार्य धर्मकीर्ति, आचार्य दिग्नाग इत्यादि ।
2. स्थविरवादी

इसका प्रधान केंद्र कश्मीर था। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति बुद्धत्व प्राप्त नहीं कर सकता। कालान्तर में यह हीनयान में परिवर्तित हो गया।

इसके भी 2 उपसंप्रदाय हैं।
  1. सौत्रान्तिक के प्रवर्त्तक कुमारपाल थे। यह बाह्य सत्ता स्वीकार्य करता है। किंतु वस्तुपरक अस्तित्व को नहीं मानता है। इसके अन्य विद्वान है- यशोमति, बुद्धदेव, धर्मत्रात इत्यादि ।
  2. वैभाषिक के प्रवर्त्तक कात्यायानीपुत्र थे। इनके अनुसार जो प्रत्यक्ष है, वही एकमात्र ज्ञान है। इसके अन्य विद्वान है- धर्मत्रात, घोषक, वसुमित्र, बुद्धदेव इत्यादि।
3. वज्रयान –

बौद्धधर्म की महायान शाखा का ही एक तांत्रिक संप्रदाय है इसका 8 वीं शताब्दी में सर्वाधिक उत्कर्ष हुआ। इसमे बुद्ध की पत्नी के रूप में तारा को अधिक महत्त्व दिया गया है। इसमें बुद्ध को वज्रधर माना और पाँच ध्यानस्थ बुद्ध वैरोचन, रत्नसंभव, अमिताभ, अमोघसिद्धि तथा अक्षोभ्य की बात की गयी है। मंजू श्रीमूलकल्प इसका प्रमाणिक ग्रंथ है। बिहार, बंगाल के चोल शासकों के काल में इसको अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ।

4. कालचक्रयान –

इसका उदय 9वीं-10वीं सदी में हुआ। इसके प्रवर्त्तक मंजूश्री थे। इसके प्रमुख देवता कालचक्र थे। इसमें मानव शरीर को ब्रह्मांड का प्रतीक माना गया है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य –
1. चीनी भाषा में बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम कश्यप मातंग ने किया।
2. बौद्धों के प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहा जाता था।
3. बौद्ध संघों में प्रशासनिक कार्यों के लिए होने वाले गुप्त मतदान को गुल्ह कहा जाता था।
4. संघ में प्रविष्ट होने को उपसंपदा कहा जाता था।
5. भिक्षुओं की सभा में किया जाने वाला विधि-निषेध पाठ पातिमोक्ख कहलाता था।
6. अजन्ता की गुफा संख्या 26 में बुद्ध के महापरिनिर्वाण को दिखाया गया है।
7. बौद्ध धर्म में निर्वाण का तात्पर्य परमानन्द एवं विश्राम की स्थिति से है।
8. बुद्ध की ‘भूमिस्पर्श मुद्रा’ से तात्पर्य मार के प्रलोभनों के बावजूद अपनी शुचिता और शुद्धता का साक्षी होने के लिए बुद्ध का धरती का आह्वान ।

बुद्ध के अवशेष –

बुद्ध के अवशेष को निम्न व्यक्तियों ने आपस में बांटकर 8 स्तूप बनाये थे ।
  1. मगध नरेश अजातशत्रु
  2. वैशाली के लिच्छवि
  3. कपिलवस्तु के शाक्य
  4. अल्लकप्प के बुलि
  5. रामग्राम के कोलिय
  6. वेठद्वीप के ब्राह्मण
  7. पावा और कुशीनारा के मल्ल
  8. पिप्पलिवन के मोरिय
महत्त्वपूर्ण तथ्य –
बुद्ध का अंतिम वर्षाकाल वैशाली में बीता।
बौद्ध धर्म में प्रत्यक्ष मतदान को विवतक कहा जाता था।
बौद्ध संघ में सभा की कार्रवाई के लिए न्यूनतम उपस्थित संख्या (कोरम) 20 थी।
बुद्ध के जन्म पर उनके बारे में भविष्यवाणी कालदेव तथा कौण्डिन्य ने की थी।
यज्ञीय व्यवस्था (ब्राह्मण धर्म) के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप उदय होने वाला यह पहला सम्प्रदाय था।
बुद्ध ने सर्वाधिक उपदेश कोसल राजधानी श्रावस्ती में दिये थे।
अवति तथा गांधार से बुद्ध का संबंध कभी नहीं रहा।

महत्वपूर्ण तथ्य

जैन धर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थकर ऋशभदेव थे, जैनधर्म के 23 वे तीर्थकर पाशर्वनाथ थे |
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वे एवं अंतिम तीर्थकर हुए |
इनका जन्म 540 ई. पूर्व में कुण्डग्राम (वैशाली) में हुआ था |
इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के सरदार थे |
महावीर स्वामी का की पत्नी का नाम यशोदा एवं पुत्री का नाम अनोज्जा प्रियदर्शनी था |
इनका बचपन का नाम वर्द्धमान था |
इन्होने अपना उपदेश प्राकृत [अर्धमागधी] भाषा में दिया |
महावीर के अनुयायियों को मूलतः निग्रंथ कहा जाता था |
इस धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है |
इनके प्रथम अनुयायी उनके दामाद जामिल बने |
महावीर ने अपने शिष्यों को 11 गणधरो में विभाजित किया था |
इनके त्रिरत्न है – 1. सम्यक दर्शन 2. सम्यक ज्ञान 3. सम्यक आचरण |
महावीर पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करते थे |
जैन धर्म ने अपने आध्यात्मिक विजैन धर्म में आत्मा की मान्यता है |
चारो को सांख्य दर्शन ग्रहण किया |
इस धर्म मानने वाले कुछ राजाओ के नाम – उदयिन , चन्द्रगुप्त मौर्य , खारवेल, चंदेल शासक |
खजुराहो में जैन मंदिरो का निर्माण चंदेल शासको द्वारा किया गया |
जैन तीर्थकरों की जीवनी भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में है |

महत्वपूर्ण तथ्य

बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे इन्हे एशिया का ज्योतिपुज्ज कहा जाता है |
गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पूर्व में कपिलवस्तु के लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था |
इनके पिता शुद्धोधन शाक्य गण के मुखिया थे |
गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था |
इनका विवाह 16 वर्ष की अवस्था में यशोधरा साथ हुआ |
इनके पुत्र का नाम राहुल था |
सांसारिक समस्याओ से व्यवस्थित होकर सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह-त्याग किया |जिसे बौद्ध धर्म में महाभिनिस्क्रमण कहा गया है |
ग्रह-त्याग करने के बाद सिद्धार्थ ने वैशाली के अलारकलाम से सांख्य दर्शन की शिक्षा ग्रहण की |
अलारकलाम सिद्धार्थ के प्रथम गुरु हुए, अलारकलाम के बाद सिद्धार्थ ने राजगीर के रुद्रकरामपुत्त से शिक्षा ग्रहण की |
ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से जाने गए और वह स्थान बोधगया कहलाया |
बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया जिसे बौद्ध ग्रंथो में धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया है |
गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश जनसाधारण की भाषा पालि में दिए |
बुद्ध ने अपने उपदेश कौशल, वैशाली, कौशाम्बी व अन्य राज्यों में दिए |

महत्वपूर्ण तथ्य

सर्वाधिक उपदेश कौशल देश राजधानी श्रावस्ती में दिए |
इनके प्रमुख अनुयायी शासक थे – बिम्बिसार, प्रसेनजित व उदयिन |
बौद्धधर्म के बारे में हमे विशद ज्ञान त्रिपिटक – विनयपिटक, सूत्रपिटक, अभिदम्भपिटक से प्राप्त होता है |
तीनो पिटक की भाषा पालि है |
बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है इसमें आत्मा की परिकल्पना भी नहीं है |
इस धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है |
तृष्णा को क्षीण हो जाने की अवस्था को ही बुद्ध ने निर्वाण कहा है |
” विश्व दुःखो से भरा है ” का सिंद्धान्त बुद्ध ने उपनिषद से लिया |
बुद्ध के अनुयायी 2 भागों में विभाजित थे – 1. भिक्छुक 2. उपासक |
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न है – बुद्ध , धम्म एवं संघ |
अनीश्वरवाद के सम्बन्ध में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म से समानता है |
भारत में उपासना की जाने वाली प्रथम मूर्ति सम्भवतः बुद्ध की थी |

FAQ SECTION

महाजनपदों में से कौन सा सबसे उत्तर में स्थित था?​

शूरसेन महाजनपद में उत्तर प्रदेश का मथुरा, वृन्दावन एवं आसपास का क्षेत्र आता था।

16 महाजनपदों में सबसे शक्तिशाली महाजनपद कौन सा था?​

16 महाजनपदों में से 14 राजतंत्र और दो (वज्जि, मल्ल) गणतंत्र थे। बुद्ध काल में सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद – वत्स, अवन्ति, मगध, कोसल थे।

निम्नलिखित में से कौन सा एक महाजनपद राजस्थान राज्य में स्थित था?​

मत्स्य महाजनपद

16 महाजनपदों के युग में मथुरा किसकी राजधानी थी?​

मथुरा शूरसेन महाजनपद की राजधानी थी।

जैन धर्म का ग्रंथ कौन सा है?​

जैन धर्म का प्रमुख ग्रन्थ समयसार है। यह आचार्य कुन्दकुन्द देव द्वारा आज से 2000 साल पहले लिखा गया था।

जैन धर्म कितना पुराना है?​

जैन धर्म महान भारत के सबसे पुरानी धर्मो में से एक है। इतिहासकारो के अनुसार यह 5 हज़ार वर्षो से भी पुराना है। मन जाता है कि जैन धर्म की उत्पत्ति 3000 ईसा पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता के समय हुई थी।

जैन धर्म किसकी पूजा करते हैं?​

वर्तमान में जैन धर्म की प्ररूपणा करने वाले भगवान महावीर ही हैं। सभी तीर्थंकर समयानुसार धर्म की पुनः स्थापना करते हैं।

गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य कौन थे?​

आनंद, बुद्ध के प्रिय शिष्य थे। बुद्ध आनंद को ही संबोधित करके अपने उपदेश देते थे।

जैन धर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर थे?​

ऋषभदेव

बौद्ध धर्म के संस्थापक थे?​

गौतम बुद्ध

बौद्ध धर्म के त्रिरत्न है?​

बुद्ध , धम्म एवं संघ

दोस्तों, आज हमने आपको महाजनपद काल का सम्पूर्ण इतिहास | (Mahajanapada Period In Hindi) में हर्यक वंश, शिशुनाग वंश, नन्द वंश के साथ साथ जैन धर्म के इतिहास, बौद्ध धर्म के इतिहास आदि के बारे मे बताया, आशा करता हूँ आपको यह Article बहुत पसंद आया होगा, तो दोस्तों मुझे अपनी राय कमेंट करके जरूर बताये , ताकि मुझे और अच्छे आर्टिकल लिखने का अवसर प्राप्त हो, धन्यवाद्
 
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