रुधिर परिसंचरण तंत्र क्या है?। Blood Circulatory System Hindi

हेलो दोस्तों, हमारे इस ब्लॉग में आपका स्वागत है। हमारे इस ब्लॉग में आपको रुधिर परिसंचरण तंत्र क्या है?। Blood Circulatory System Hindi के साथ – साथ मनुष्य का रुधिर परिसंचरण तंत्र तथा रुधिर का थक्का बनना आदि के इतिहास बारे में बताएंगे, तो दोस्तों एक एक करके इन सबके बारे में जानते है।रुधिर परिसंचरण तंत्र । Blood Circulatory System Hindi

मनुष्य का रुधिर परिसंचरण तंत्र । Blood Circulatory System Hindi

रुधिर परिसंचरण तन्त्र वह परिसंचरण तन्त्र है, जिसमें परिसंचरण करने वाला द्रव एक विशिष्ट संरचना वाला रुधिर होता है। मनुष्य का रुधिर परिसंचरण तन्त्र का अन्य जन्तुओं के ही समान रुधिर, हृदय और रुधिर वाहिकाओं का बना होता है।


(A) रुधिर क्या है? । Blood in hindi

रुधिर । Blood in hindi

रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है, जो परिसंचरण तन्त्र में भ्रमण करता रहता है। इसका अन्तराकोशिकीय पदार्थ या मैट्रिक्स हल्के पीले रंग के द्रव के रूप में रहता है जिसे प्लाज्मा कहते हैं, इसी प्लाज्मा में इस ऊतक की कणिकाएँ तैरती रहती हैं।

अत: यह संरचनात्मक रूप से 2 भागों – प्लाज्मा और रुधिर कणिकाओं का बना होता है।

(1) प्लाज्मा । Plasma in hindi

प्लाज्मा । Plasma in hindi

यह रुधिर का तरल निर्जीव भाग है, जो रुधिर का लगभग 55-60% भाग बनाता है। वास्तव में यह रंगहीन होता है, लेकिन बहुत अधिक मात्रा होने पर हल्के पीले रंग का दिखाई देता है। इसकी रासायनिक संरचना अत्यन्त जटिल होती है, क्योंकि हर समय इसमें से कुछ पदार्थ निकलकर ऊतकों में जाते हैं तथा ऊतकों से कुछ पदार्थ निकलकर इसमें आते रहते हैं। इसमें लगभग 90% पानी तथा 10% कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ घुलित अवस्था में पाये जाते हैं। अकार्बनिक पदार्थों में सोडियम क्लोराइड (NaCl) तथा सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO3) प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ अन्य लवण जैसे पोटैशियम (K), कैल्सियम (Ca) आयरन (Fe). व मैग्नीशियम (Mg) के क्लोराइड, बाइकार्बोनेट्स, सल्फेट तथा फॉस्फेट आदि भी अति सूक्ष्म मात्रा में पाये जाते हैं। ये लवण प्लाज्मा के जल में घुले रहते हैं तथा प्लाज्मा का लगभग 0-9 या 1-0% भाग बनाते हैं। ये लवण प्लाज्मा के जल में घुलकर इनके अम्लीय प्रभाव को दूर कर रुधिर को हल्का क्षारीय बनाये रखते हैं। इन लवणों के अलावा प्लाज्मा में ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन गैसें भी घुली रहती हैं।

प्लाज्मा में पाये जाने वाले प्रमुख कार्बनिक पदार्थ निम्नलिखित हैं ।

(i) रुधिर प्रोटीन (Blood protein) –

रुधिर का लगभग 7% भाग प्रोटीन का ही बना होता है। एल्बूमिन (Albumin ) ग्लोब्यूलिन (Globulin), फाइब्रिनोजेन तथा प्रोग्राम्बीन प्रमुख हैं, जो रुधिर प्लाज्मा में पाये जाते हैं। ये सभी यकृत में बनते हैं तथा प्लाज्मा में कोलॉइड्स के रूप में पाये जाते हैं।

(ii) पचे पोषक पदार्थ (Digested nutrient substances) –

प्लाज्मा में पचा हुआ भोजन वसा (Fat), ग्लिसरॉल, वसीय अम्ल (Fatty acid) अमीनो अम्ल (Amino acid), ग्लूकोज आदि के रूप में पाया जाता है। इन सबके अलावा कुछ मात्रा में विटामिन्स भी पाये जाते हैं। ये सभी पदार्थ आँत से रुधिर के शिकाओं द्वारा अवशोषित कर शरीर के विभिन्न ऊतकों तक पहुँचाये जाते हैं, जिनके कारण प्लाज्मा में इनकी मात्रा घटती-बढ़ती रहती है।

(iii) हॉर्मोन्स (Hormones) –

अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित जटिल रासायनिक पदार्थों को हॉर्मोन कहते हैं। ये रुधिर के द्वारा शरीर में वांछित स्थान तक पहुँचाये जाते हैं।

(iv) उत्सर्जी पदार्थ (Excretory substances ) –

रुधिर प्लाज्मा में यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया आदि उत्सर्जी पदार्थ भी घुले रहते हैं।

(v) विजातीय पदार्थ एण्टीजेन, एण्टीबॉडीज तथा एण्टीटॉक्सिन –

कभी-कभी रुधिर में बाहर से कुछ विजातीय पदार्थ जैसे-जीवाणु (Bacteria), रोगाणु, प्रोटीन्स, शर्करा तथा कुछ अन्य पदार्थ प्रवेश कर जाते हैं, इन पदार्थों के पहुँचते ही प्लाज्मा में विशेष प्रकार के पदार्थों का निर्माण होने लगता है, जिन्हें एण्टीबॉडीज (Antibodies) कहते हैं, ये बाहरी पदार्थों को निष्क्रिय कर देते हैं। इन पदार्थों को जो एण्टीबॉडीज बनने को प्रेरित करते हैं, एण्टीजेन कहते हैं। वैसे तो एण्टीजेन को निष्क्रिय करने के बाद एण्टीबॉडीज का बनना रुक जाता है, लेकिन कुछ मात्रा में एण्टीबॉडीज हमेशा रुधिर में उपस्थित रहते हैं। शरीर में रोगाणुओं तथा जीवाणुओं द्वारा पैदा किये गये विषैले पदार्थों को निष्क्रिय करने वाले एण्टीबॉडीज को प्रतिविष (An – titoxin) कहते हैं।

(vi) प्रकिण्व (Enzymes ) –

लाइपेज, डाइस्टेज, ग्लूको जेज, प्रोटीएज, एस्टरेज, न्यूक्लिएजेज आदि प्रकिण्व प्लाज्मा में घुले रहते हैं।

(vii) प्रतिजामन (Anticoagulant) –

संयोजी ऊतक की ही मास्ट कोशिकाएँ हिपैरिन नामक एक संयुक्त पॉलीसैकेराइड मुक्त करती रहती हैं, जो रुधिर को रुधिर वाहिकाओं में जमने से रोकता है।

प्लाज्मा के कार्य

(i) यह ऊतकों तथा कोशिकाओं में भोज्य पदार्थों को वितरित और उत्सर्जी पदार्थों को इन भागों से एकत्रित करता है।

(ii) यह CO2 की एकत्रित करके श्वसन सतहों तथा O2 को श्वसन सतहों से विभिन्न ऊतकों तक लाता है।

(iii) यह हॉर्मोनों, विटामिनों, प्रतिरक्षियों (Antibodies) और प्रतिविषों (Antitoxins) इत्यादि का संवहन करता है।

(iv) यह शरीर के ताप का नियन्त्रण करता है।

(v) शरीर में पानी की मात्रा को समन्वयित करता है।

(2) रुधिर कणिकाएँ । Blood Corpuscles in hindi

रुधिर कणिकाएँ । Blood Corpuscles in hindi

रुधिर का लगभग 40% भाग रुधिर कणिकाओं का बना होता है। सभी जीवों की रुधिर कणिकाओं में थोड़ी-बहुत विविधता पायी जाती है। इसके बावजूद इनके मूलभूत लक्षण एक समान ही होते हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं।
  1. लाल रुधिर कणिका
  2. श्वेत रक्त कणिका
  3. थ्राम्बोसाइट्स या प्लेटलेट्स

(1) लाल रुधिर कणिका (Red blood corpuscles or Erythrocytes)

लाल रुधिर कणिकाएँ (R.B.Cs.) गोल या अण्डाकार कोशिकाएँ हैं जो हल्के पीले रंग की होती हैं, लेकिन लाखों की संख्या में एकत्रित होने पर ये लाल रंग की दिखाई देती हैं। स्तनी वर्ग को छोड़कर शेष कशेरुकियों की R.B.Cs. में एक-एक केन्द्रक पाया जाता है, लेकिन ऊँट और ऊँट हो जैसा दिखने वाला लामा (Llama) नामक स्तनी की R.B.Cs. में केन्द्रक पाया जाता है। मनुष्य की एक R.B.C. का व्यास लगभग 7.5u तथा मोटाई 1 – 2u होता है। इनमें गॉल्गीकाय, माइटोकॉण्डिया तथा सेण्ट्रीओल नहीं पाये जाते। केन्द्रक की अनुपस्थिति के कारण मनुष्य की R.B.Cs. उभयावतल (Biconcave) दिखाई देती है। एक पुरुष के प्रति घन मिमी रुधिर में लगभग 5,500,000 तथा मादा में 5,00,000 लाल रुधिर कणिकाएँ पायी जाती हैं, परन्तु एनीमिया बीमारी तथा अत्यधिक रक्तस्त्राव की स्थिति में इनकी संख्या कम हो जाती है। जब कभी इनकी संख्या में असामान्य रूप से वृद्धि हो जाती है तो इस स्थिति को पॉलीसाइथेमिया (Poly cythemia) कहते हैं।

भ्रूणीय अवस्था में R.B.Cs. का निर्माण यकृत और प्लीहा (Spleen) में, लेकिन शिशु जन्म के बाद में इसका निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होता है। आयरन और प्रोटीन R.B.Cs. निर्माण के लिए प्रमुख कच्चे माल हैं जबकि विटामिन B12 और फोलिक अम्ल इसके निर्माण को प्रेरित करते हैं। R.B.Cs. लगभग सौ दिन तक जीवित रहती हैं, इसके बाद इनकी मृत्यु हो जाती है। मृत R.B.Cs. का भक्षकाणुओं (Phagocytes) द्वारा भक्षण कर लिया जाता है।

R.B.Cs. शरीर के अन्दर 02, का संवहन करती हैं. इसके लिए इनके कोशिकाद्रव्य में लाल रंग का एक आयरन यौगिक पाया जाता है, जिसे हीमोग्लोबिन कहते हैं। यह एक संयुग्मी प्रोटीन है जिसका सूत्र C3012 H4816 O872 N780 S8 Fe4, एवं अणुभार 68,000 होता है। इसमें प्रोटीनीय समूह के रूप में ग्लोबीन प्रोटीन तथा प्रोस्थेटिक समूह के रूप में एक आयरन यौगिक हीमेटीन पाया जाता है। इसमें आयरन फेरस अवस्था में रहता है। श्वसन सतहों पर जहाँ ऑक्सीजन की सांद्रता अधिक होती है, फेरस आयरन 4 अणु ऑक्सीजन से संयुक्त होकर ऑक्सी-हीमोग्लोबिन बना देता है, लेकिन जब यह (ऑक्सीहीमोग्लोबिन) ऑक्सीजन की कम सान्द्रता वाले स्थानों अर्थात् ऊतकों में जाता है तो O2 को मुक्त कर देता है। इस प्रकार यह रुधिर के अन्दर 02, वाहक का कार्य करता है। इसी कारण हीमोग्लोबिन को श्वसन रंजक भी कहते हैं। 100 ml रुधिर में लगभग 15gm हीमोग्लोबिन पाया जाता है। मृत R.B.Cs. के अपघटन के समय यकृत तथा प्लीहा में हीमोग्लोबिन को भी होमेटीन और ग्लोबीन में विघटित कर दिया जाता है। हीमेटीन के आयरन को पुन: रुधिर में मुक्त कर दिया जाता है जो फिर से होमोग्लोबिन संश्लेषण में काम आता है जबकि कुछ हीमेटीन को यकृत कोशिकाएँ बाइलीरुबिन (Bilirubin) वर्णक में रूपान्तरित कर देती हैं जो पित्त वर्णक है।

कार्य – R.B.Cs. ऑक्सीजन और CO, के संवहन के अलावा रुधिर pH का समन्वयन करती हैं।


(2) श्वेत रुधिर कणिकाएँ (White blood corpus cles or Leucocytes)

ये अमीबा के समान अनियमित आकार की, R.B.Cs. से बड़ी, लेकिन संख्या के हिसाब से कम मात्रा में पायी जाने वाली कणिकाएँ हैं। हीमोग्लोबिन या वर्णकों की अनुपस्थिति के कारण ही ये रंगहीन होती हैं, लेकिन प्रत्येक श्वेत रुधिर कणिका (W.B.Cs.) में एक केन्द्रक पाया जाता है। मनुष्य के प्रति घन मिमी रुधिर में 5,000 से 9.000 तक की संख्या में W.B.Cs. पाये जाते हैं, लेकिन रोगियों के शरीर में इनकी संख्या बढ़ जाती है। अनियमित आकार की होने के कारण ये सरलतापूर्वक पतले आकारों में रूपान्तरित होकर रुधिर वाहिकाओं की कोशिकाओं के अन्तराकोशिकीय अवकाशों से बाहर आकर आसपास के ऊतकों में विचरण करती रहती । रुधिर कणिकाओं की इस विशेषता को जिसमें ये रुधिर वाहिकाओं से बाहर आ जाती हैं, केशिकापारण (Diapedesis) कहते हैं।

W.B.Cs. दो प्रकार की होती हैं

(a) कणिकामय श्वेत रुधिर कणिकाएँ (Granulo -cytes)

इनके कोशिकाद्रव्य में छोटे-छोटे कण पाये जाते हैं तथा केन्द्रक अनियमित व पालिवत (Lobed) होता है। ये अस्थि मज्जा (Bone marrow) में बनती हैं।

कणिका के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं ।

(अ) इओसिनोफिल्स (Eosinophils) –


इनके कोशिका द्रव्य के कण बड़े तथा ठसाठस भरे रहते हैं। केन्द्रक दो पिण्डों में बँटा होता है तथा दोनों पिण्ड एक पतले सूत्र द्वारा जुड़े रहते हैं। मनुष्य के शरीर में इनकी संख्या बढ़ जाने पर इओसिनोफिलिया (Eosinophilia) नामक बीमारी होती है। इस बीमारी में साँस फूलने के साथ-साथ खाँसी भी आती है। रुधिर में सम्पूर्ण W.B.Cs. का 3% भाग इसी का बना होता है। ये शरीर के प्रतिरक्षण, एलर्जी तथा संवेदनशीलता का कार्य करती हैं।

(ब) बेसोफिल्स (Basophils) –

ये संख्या में कम तथा अपेक्षाकृत बड़ी होती हैं। केन्द्रक दो या तीन पिण्डों में बँटा होता है जो एक पतले सूत्र द्वारा जुड़े होते हैं। सम्पूर्ण W.B.Cs. का 0.5% भाग इन्हीं का बना होता है। इन कणिकाओं में हो मास्ट कोशिकाओं द्वारा स्त्रावित हिपैरिन, हिस्टेमीन एवं सोरेटोनिन पाया जाता है।

(स) न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) –

इनके कण अत्यन्त सूक्ष्म आकार के होते हैं और केन्द्रक कई पिण्डों में बँटा रहता है। जो आपस में सूत्रों द्वारा जुड़े रहते हैं। इनको संख्या बहुत अधिक होती है। ये सम्पूर्ण W.B.Cs का 60 से 70% भाग बनाती हैं। इनका प्रमुख कार्य रोगाणुओं तथा जीवाणुओं का भक्षण करना है।

(b) कण रहित श्वेत रुधिर कणिकाएँ (Agranulo cytes ) –

इनके कोशिकाद्रव्य में कण (Granules) नहीं पाये जाते हैं। इनका निर्माण लसीका ग्रन्थियाँ (Lymph glands) में एक विशेष प्रकार की कोशिकाओं द्वारा होता है।

ये दो प्रकार की होती हैं

(अ) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) –


ये कोशिकाएँ गोल होती हैं जिनमें गोल, बड़ा केन्द्रक पाया जाता है। कोशिकाद्रव्य सूक्ष्म मात्रा में पाया जाता है। इनका निर्माण लसीका ग्रन्थियों, लसीका अंगों तथा प्लीहा (Spleen) में होता है। संख्या में ये सम्पूर्ण W.B.Cs. की 18% होती हैं। ये कोशिकाएँ प्रतिरक्षियों को बनाती हैं।

(ब) मोनोसाइट्स (Monocytes) –

ये आकार में बड़ी होती हैं। इनका केन्द्रक छोटा, टेढ़ा या घोड़े के नाल जैसा होता है। संख्या में ये W.B.Cs का 1-3 प्रतिशत होती हैं। ये ऊतक द्रव्य में पहुँचकर भक्षक कोशिकाओं में बदल जाती हैं।

रुधिरोत्पत्ति –

प्रत्येक रुधिराणु या रुधिर कोशिका एक निश्चित समय बाद मृत हो जाती हैं। फिर भी ये एक निश्चित संख्या में रुधिर के अन्दर बनी रहती हैं, क्योंकि मृत संख्या के बराबर नये रुधिराणु हमेशा बनते रहते हैं। ये रुधिराणु लसीकीय (Lym phatic) तथा मायलायड (Myloid) ऊतकों में बनते हैं। इसी कारण इन्हें रुधिरोत्पादक (Haemopoietic) ऊतक कहा जाता है। लसीका ग्रन्थियाँ, यकृत एवं प्लीहा प्रमुख रुधिरोत्पादक अंग हैं। R.B.Cs. एवं थ्रॉम्बोसाइट्स लम्बी अस्थियों की अस्थिमजा जबकि श्वेत रुधिराणु थाइमस, लसीका ग्रन्थि, प्लीहा एवं टॉन्सिल्स में बनते हैं।

श्वेत रुधिर कणिकाएँ अमीबा की तरह होती हैं। ये अपने पादाभों की सहायता से जीवाणुओं, रोगाणुओं तथा अन्य निरर्थक वस्तुओं को जो रुधिर में प्रवेश कर जाती हैं, अपने अन्दर लेकर इनका सफाया कर देती हैं। इसी कारण इन्हें भक्षी कोशिकाएँ (Phagocytes) भी कहते हैं और इस क्रिया को फैगोसा-इटोसिस (Phagocytosis) कहते हैं। जब कभी हमारे शरीर में घाव हो जाता है या रोग फैलाने वाले रोगाणु व जीवाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तो इन्हें मारने के लिए W.B.Cs. रक्त परिवहन मार्ग द्वारा वहाँ पहुँच जाती हैं तथा केशिकापारण द्वारा बाहर निकल आती हैं और रोगाणुओं व जीवाणुओं का भक्षण करने लगती हैं। जीवाणुओं तथा W.B.Cs. के मृत अंश व लसीका मिलकर ही मवाद (Pus) बनाते हैं। मवाद के बाहर निकल जाने पर घाव के स्थान की कोशिकाएँ तेजी से विभाजित होकर घाव को भर देती हैं। श्वेत रुधिर कणिकाएँ केवल 2-4 दिन तक हो जीवित रहती हैं, क्योंकि ये विषैले जीवाणुओं से संघर्ष में हमेशा नष्ट होती रहती हैं।

कार्य- W.B.Cs. शरीर के अन्दर आये रोग उत्पादक कास्कों को नष्ट करके रोगों से हमारी रक्षा करती हैं। कुछ W.B.CS. प्रतिरक्षियों (Antibodies) का भी निर्माण करती हैं।

(iii) थ्रॉम्बोसाइट्स या प्लेटलेट्स (Thrombocytes or Platelets)

ये 2u -4u तक व्यास वाली, अनियमित आकार की कणिकाएँ होती हैं। जो अस्थि मज्जा की कोशिकाओं के टूट फूट से बनती हैं। एक घन मिमी रुधिर में लगभग 2.5 लाख तक थ्रॉम्बोसाइट्स पायी जाती हैं। ये केवल स्तनियों के रुधिर में पायी जाती हैं। ये अत्यन्त कोमल होती हैं और केवल दस दिन तक जीवित रहती हैं। ये रुधिर के थक्का बनने में सहायता करती हैं। ये कुछ बड़े कोशिकाओं के विघटन से भी बनती हैं। विभिन्न कोशिकाओं की टूट-फूट से बनने के कारण इनमें केन्द्रक नहीं पाया जाता। स्तनियों को छोड़कर शेष कशेरुकियों में थ्रॉम्बोसाइट्स की जगह पर स्पाइण्डल कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो चपटी तर्क के . समान तथा केन्द्रक युक्त होती हैं। इनका जीवद्रव्य कणिका विहीन होता है और ये रुधिर के थक्का बनने में सहायता करती हैं।

रुधिर का थक्का बनना । Blood Clotting in Hindi

जब कभी चोट लगने पर रुधिर वाहिनियाँ तथा केशिकाएँ टूट-फूट जाती हैं, तो इनसे रुधिर निकलने लगता है, लेकिन कुछ ही समय बाद कटे हुए स्थान पर रुधिर जेली के समान पदार्थ में बदल जाता है तथा प्लाज्मा या सीरम अलग हो जाता है, जेली के समान बने भाग को रुधिर का थक्का (Blood clot) तथा इस क्रिया को थक्का बनना (Blood clotting) कहते हैं। यह क्रिया रुधिर के बहाव को रोककर हमारी रक्षा करती है।

अनेक वैज्ञानिकों ने थक्का बनने की क्रिया को समझाया हैं, लेकिन आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा हॉवेल (Howell) का मत सबसे अधिक स्वीकार्य है। इनके अनुसार, जब चोट लगती है। और रुधिर वाहिनियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, तब रुधिर बाहर निकलने लगता है। वायु के सम्पर्क में आते ही रुधिर की थ्रॉम्बोसाइट्स या प्लेटलेट्स (अथवा स्पाइण्डल कोशिकाएँ) टूट जाती हैं, इनसे एक विशिष्ट रासायनिक पदार्थ के कण विमुक्त होते हैं जो रुधिर के प्रोटीनों से क्रिया करके प्रोथ्रॉम्बोप्लास्टीन (Prothromboplastin) बनाते हैं। प्रोथ्रॉम्बोप्लास्टीन की उत्पत्ति एक जटिल और थक्का निर्माण की आवश्यक क्रिया है, इसे वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से समझाया है, लेकिन स्पलिंग (1981) के अनुसार इस क्रिया का सही ज्ञान अभी तक नहीं हो सका है, लेकिन यह स्पष्ट है कि अलग-अलग जीवों में यह क्रिया अलग-अलग प्रकार से होती है।

प्रोथ्रॉम्बोप्लास्टीन निर्माण के बाद थक्का बनने की क्रिया 3 चरणों में पूरी होती है।

(a) प्रोथ्रॉम्बोप्लास्टीन रुधिर के Cat+ आयन्स से क्रिया करके प्लाज्मा में थ्रॉम्बोप्लास्टीन (Thromboplastin) नामक लीपोप्रोटीन बना देता है।

(b) प्रोथ्रॉम्बोप्लास्टीन Ca+ आयन्स तथा प्रकिण्व ट्रिप्टेज के साथ मिलकर एण्टीप्रोथ्रॉम्बीन को नष्ट कर देता है और निष्क्रिय प्रोथ्रॉम्बीन को सक्रिय थ्रॉम्बीन (Thrombin) में बदल देता है।

(c) यह सक्रिय थ्रॉम्बीन प्लाज्मा में उपस्थित फाइब्रिनोजेन (Fibrinogen) प्रोटीन को अघुलनशील फाइब्रिन के प्रोटीन तन्तुओं में बदल देता है। ये फाइब्रिन तन्तु प्लाज्मा से अलग होकर कटे स्थान पर एक जाल बना देते हैं जिनमें रुधिर कणिकाएँ उलझकर थक्का या जेली का निर्माण करके घाव को बन्द कर देती हैं। फलत: रुधिर का बहना रुक जाता है। थक्का बनने के बाद फाइब्रिन तन्तु संकुचित होते जाते हैं, जिससे थक्का छोटा होता जाता है और इससे एक प्रकार का हल्के पीले रंग का द्रव निकलता है, जो प्लाज्मा या सीरम को व्यक्त करता है जिससे कणिकाएँ अलग हो चुकी हैं। चूँकि रुधिर का थक्का डाट के समान कार्य. करता है और घाव लगने पर रक्तस्त्राव को रोकता है, इस कारण इसे ‘संकटकालीन प्लग’ (Emergency plug) भी कहते हैं

दोस्तों, आज हमने आपको रुधिर परिसंचरण तंत्र क्या है?। Blood Circulatory System Hindi के साथ – साथ मनुष्य का रुधिर परिसंचरण तंत्र तथा रुधिर का थक्का बनना आदि के बारे मे बताया, आशा करता हूँ आपको यह आर्टिकल बहुत पसंद आया होगा, तो दोस्तों मुझे अपनी राय कमेंट करके अवश्य बताये, धन्यवाद्.
 
मॉडरेटर द्वारा पिछला संपादन:

सम्बंधित टॉपिक्स

सदस्य ऑनलाइन

अभी कोई सदस्य ऑनलाइन नहीं हैं।

हाल के टॉपिक्स

फोरम के आँकड़े

टॉपिक्स
1,845
पोस्ट्स
1,886
सदस्य
242
नवीनतम सदस्य
Ashish jadhav
Back
Top