विधिक अधिकार और कर्तव्य – Legal Rights and Duties in Hindi – Jurisprudence

विधिक अधिकार और कर्तव्य – Legal Rights and Duties in Hindi – Jurisprudence


अधिकार और कर्तव्य (Rights and Duties) ‘अधिकार’ का सामान्य अर्थ विधि द्वारा अनुज्ञेय किसी कार्य से है जिसे कोई व्यक्ति कर सकता है या कोई चीज धारण कर सकता है।

जबकि कर्तव्य का तात्पर्य उस कार्य से है जिसे किसी व्यक्ति को करना चाहिए, जो विधि द्वारा नियत हो भी सकता है अथवा नहीं। यदि वह विधि द्वारा नियत है, तो वास्तविक अर्थ में कर्तव्य होगा अथवा एक नैतिक कर्तव्य होगा।

यहां अधिकार और कर्तव्य का तात्पर्य केवल विधिक अधिकार और विधिक कर्तव्य से है, क्योंकि अन्य अधिकारों एवं नैतिक कर्तव्यों के पीछे कोई विधिक अनुशास्ति नहीं होती है और उसके भंग होने पर केवल सामाजिक अनुशास्तियां ही कार्य करती हैं।


यह सर्वविदित है कि विधि का मूल उद्देश्य मानवीय हितों को संरक्षित करते हुए व्यक्तियों के संव्यवहारों को विनियमित करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों के अधिकारों को प्रवर्तित कराने तथा उनका अतिक्रमण करने वालों को दण्डित करने के लिए राज्य अपनी भौतिक शक्ति का प्रयोग करे।

यह कार्य राज्य द्वारा किया जाता है जो कानून के प्रवर्तन से लोगों को अपने विधिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिए बाध्य करते हुए उनके अधिकारों की संरक्षा करता है।

विधिक अधिकार की परिभाषा विभिन्न विधिशास्त्रियों ने अलग-अलग दी है।

परिभाषा​

ऑस्टिन के अनुसार​

‘‘अधिकार एक क्षमता है जो विहित पक्ष या पक्षकारों में किसी निर्दिष्ट विधि के कारण होती है और जो किसी पक्षकार या पक्षकारों, जो उस पक्षकार या पक्षकारों से भिन्न है जिसमें यह निहित है, के विरुद्ध लागू होती है या किसी पक्षकार या पक्षकारों पर अधिरोपित कर्तव्य की समनुरूपी होती है।’’ इस प्रकार ऑस्टिन के अनुसार, किसी व्यक्ति का अधिकार होना केवल तब ही माना जाएगा जबकि दूसरा या दूसरे व्यक्ति उसके संबंध में कोई कार्य करने से प्रविरत रहने के लिए विधि द्वारा आबद्ध या बाध्य होते हैं। दूसरे शब्दों में प्रत्येक अधिकार का सदैव ही एक तदनुरूपी कर्तव्य होता है।

हॉलैंड के अनुसार​

‘‘विधिक अधिकार किसी व्यक्ति में निहित वह क्षमता है, जिससे वह राज्य की सहमति एवं सहायता से अन्य व्यक्तियों के कृत्यों को नियंत्रित करवा सकता है।’’ हॉलैंड के मतानुसार, ‘‘विधिक अधिकार को राज्य की शक्ति से वैधानिकता प्राप्त होती हैं।’’

सामंड के अनुसार​

‘‘अधिकार युक्तता के नियम के द्वारा मान्य और संरक्षित एक हित है। यह एक ऐसा हित है जिसका सम्मान करना एक कर्तव्य और जिसकी अवहेलना करना एक दोष है।’’ अर्थात सामंड के अनुसार, किसी अधिकार को न्यायिक रूप में प्रवर्तनीय होना चाहिए और यह कि अधिकार एक हित है।

ग्रे (Gray) के अनुसार​

अधिकार स्वयं कोई हित नहीं है, अपितु वह हितों के संरक्षण का एक साधनमात्र है। इस कथन की पुष्टि में एक उदाहरण देते हुए ग्रे कहते हैं कि यदि एक व्यक्ति दूसरे को ऋण देता है, तो ऋणदाता का यह हित (interest) कि वह ऋणी व्यक्ति से अपनी ऋण-राशि वापस प्राप्त करे, उसका वास्तविक विधिक अधिकार नहीं है बल्कि उसे कानून द्वारा दी गई यह शक्ति या क्षमता कि वह दिया गया ऋण वसूल कर सकता है, उसका विधिक अधिकार होगा। दूसरे शब्दों में, ऋणी व्यक्ति से ऋण की राशि प्राप्त करना ऋणदाता का हित है जो विधि द्वारा संरक्षित है। परन्तु यह हित स्वयं अधिकार नहीं है। अतः ग्रे के अनुसार विधिक अधिकार ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को कोई कार्य करने या कार्य करने से उपरत रहने के लिए वैधानिक कर्तव्य द्वारा बाध्य करता है।”

प्रो. केल्सन के अनुसार​

‘‘विधि में अधिकार जैसी कोई संकल्पना नहीं है।’’ इसी प्रकार ड्यूगिट का मानना है कि ‘‘किसी को अपने कर्तव्य को करने के अलावा कोई अधिकार नहीं है, किंतु ऐसा मानना ‘विधिक अधिकार’ के अध्ययन को सीमित कर देगा।’’ समीक्षात्मक दृष्टि से पैटन का मानना है कि ‘‘मेरे विचार से अधिकार विधि की एक संतान है: एक प्राकृतिक अधिकार एक ऐसा पुत्र है जिसका कभी कोई पिता नहीं रहा।’’

सिद्धांत​

इहिंरग ने कहा है कि, ‘‘अधिकार विधि द्वारा संरक्षित हित है।’’ फिलहाल विधिक अधिकार के अध्ययन के लिए दो मुख्य सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं –
  1. इच्छा का सिद्धांत (The Will Theory)
  2. हित का सिद्धांत (The Interest Theory)

1.इच्छा-सिद्धांत (The Will Theory)​

इस सिद्धांत के अनुसार, अधिकार मानव इच्छा से उत्पन्न होता है। इस सिद्धांत के मुख्य समर्थक लॉक, हीगल, कान्ट, ह्यूम, हॉलैंड, ऑस्टिन, पोलाक, विनोग्रेडाफ और होम्स इत्यादि हैं। इसके अधिकांश समर्थक जर्मनी में थे। ऑस्टिन और हॉलैंड के अनुसार, ‘इच्छा ही अधिकार का मुख्य तत्व है, जिसका पोलाक और विनोग्रेडाफ भी समर्थन करते हैं। लॉक अन्य संक्राम्य अधिकारों में विश्वास करता था जिन्होंने घोषणा की थी कि ‘व्यक्ति के जीवन के कतिपय क्षेत्रों में राज्य भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, जिन्हें उसने अन्य संक्राम्य अधिकार माना। उसके अनुसार अधिकार का आधार व्यक्ति की इच्छा है। पुच्ता के अनुसार, ‘विधिक अधिकार किसी वस्तु पर शक्ति है, जो इस अधिकार के माध्यम से उस व्यक्ति की उस व्यक्ति की इच्छा के अधीन किया जाता है जो उस अधिकार का उपभोगकर्ता है।

इस सिद्धांत के मुख्य आलोचक ड्यूगिट हैं। उन्होंने सामाजिक समेकता (Social Solidarity) के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए ‘इच्छा’ के विचार को समाज विरोधी माना। ड्यूगिट ने अधिकार के अस्तित्व को पूर्णत: अस्वीकार करते हुए स्पष्ट कहा कि ‘मनुष्य के अधिकार होते ही नहीं हैं, बल्कि केवल कर्तव्य होते हैं। एकमात्र अधिकार जो कोई व्यक्ति धारण करता है वह है ‘कर्तव्य करने का अधिकार’। विधि केवल उन कार्यों या बातों की संरक्षा करने के लिए है जो सामाजिक समेकता को आगे बढ़ाते हैं।’ इसी प्रकार पैटन का मानना है कि ‘‘विधिक अधिकार की सामान्य संकल्पना में ‘इच्छा’ एक अत्यावश्यक तत्व है, किंतु यही एकमात्र तत्व नहीं है।’’

2. हित-सिद्धांत (The Interest Theory)​

इस सिद्धांत का प्रवर्तक महान जर्मन विधिशास्त्री इहिंरग को माना जाता है। सामंड इस सिद्धांत का प्रबल समर्थक है। इहिंरग के अनुसार, ‘अधिकार का आधार ‘हित’ है, ‘इच्छा’ नहीं। विधिक अधिकार विधित: संरक्षित एक हित है। ‘विधि का प्रयोजन कतिपय हितों की संरक्षा करना होता है, व्यक्तियों की इच्छाओं की नहीं।’ सामंड ने भी इहिंरग के मतों का समर्थन करते हुए कहा है कि ‘विधिक अधिकार राज्य के नियम (विधि) द्वारा मान्य और संरक्षित ऐसा हित है जिसका सम्मान करना कर्तव्य है और जिसकी अवहेलना करना एक दोष’।

इस सिद्धांत की भी कुछ विधिशास्त्रियों ने आलोचना की, किंतु अप्रत्यक्ष रूप से इसे स्वीकार भी किया कि राज्य की मान्यता व संरक्षण के बिना कोई अधिकार हमेशा के लिए अस्तित्ववान् नहीं रह सकता है। अत: प्रो. एलेन इस संदर्भ में समन्वित दृष्टिकोण अपनाने पर बल देते हैं। उनके अनुसार, ‘‘विधिक अधिकार का सार न तो स्वयं में विधित: प्रत्याभूत शक्ति, न ही स्वयं विधित: संरक्षित हित प्रतीत होता है अपितु एक हित की पूर्ति के लिए विधित: प्रत्याभूत शक्ति प्रतीत होता है।’’


कर्तव्य और अधिकार​

सामण्ड ने विधिक अधिकार को एक ऐसा हित माना है जिसे राज्य की विधि द्वारा मान्यता प्राप्त है और जो विधि द्वारा संरक्षित है। सामण्ड द्वारा दी गई ‘अधिकार’ की इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि विधिक अधिकार का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण उस अधिकार के स्वामी के हित के अस्तित्व में है, जिसे विधि द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाता है। हित’ की व्याख्या करते हुए सामण्ड कहते हैं कि “हित वह है जिसका ध्यान रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है तथा जिसकी अवहेलना करना अपकार है।” तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षित है कि वह दूसरों के अधिकारों का सम्मान करे। एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे का कर्तव्य होता है क्योंकि प्रत्येक अधिकार के साथ एक सहवर्ती कर्तव्य (correlative duty) जुड़ा रहता है।11 किसी व्यक्ति द्वारा अपने विधिक कर्तव्य का पालन न किया जाना या दूसरे के विधिक अधिकार में अनुचित हस्तक्षेप या अतिक्रमण करना अपकृत्य’ (wrong) होगा। सामण्ड के अनुसार मनुष्य का ऐसा कार्य जो अधिकार तथा न्याय के नियम के प्रतिकूल होता है, अपकृत्य (wrong) कहलाता है। सामंड ने विधिक अधिकार के निम्नलिखित अनिवार्य तत्व बताए हैं:
  1. अधिकार का धारणकर्ता अर्थात् भोक्ता–जिसमें अधिकार निहित है।
  2. अधिकार से आबद्ध व्यक्ति अर्थात् जिसके विरुद्ध अधिकार उत्पन्न हुआ, जिस पर सहसंबंधित कर्तव्य होता है।
  3. अधिकार की अंतर्वस्तु अर्थात् कार्य या प्रविरति।
  4. अधिकार की विषय-वस्तु अर्थात् जिस वस्तु के प्रति अधिकार उत्पन्न हुआ।
  5. अधिकार का स्वत्व या हक-अर्थात् जिसके कारण व्यक्ति में अधिकार निहित हुआ।
हॉलैंड और कीटन ने केवल उपर्युक्त प्रथम चार तत्वों को ही विधिक अधिकार का तत्व माना है।

अधिकार के संदर्भ में कर्तव्यों का अर्थ​

अधिकार और कर्तव्य में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रत्येक अधिकार के साथ एक सहवर्ती कर्तव्य जुड़ा रहता है। सामण्ड (Salmond) ने कर्तव्य की परिभाषा देते हुए कहा है कि यह एक ऐसा बन्धनकारी कार्य होता है जिसका विरोधी शब्द ‘अपकार’ है। दूसरे शब्दों में, कर्तव्य-भंग होने पर अपकार (Wrong) उत्पन्न होता है। कर्तव्य के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए ग्रे (Gray) ने कथन किया है कि विधि का मुख्य उद्देश्य यह है कि लोगों को कुछ विशिष्ट कार्यों को करने या न करने के लिए बाध्य करके मानवीय हितों का संरक्षण किया जाए। अत: उनके अनुसार कार्यों को करने’ या न करने की बाध्यता को ही कर्तव्य कहते हैं। हिबर्ट (Hibbert) के अनुसार ‘कर्तव्य’ किसी व्यक्ति में निहित वह बाध्यता है जिसके कार्यों को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा राज्य की अनुमति तथा सहायता से नियंत्रित किया जाता है। कीटन ने कर्तव्य को एक ऐसा कार्य निरूपित किया है, जो किसी दूसरे व्यक्ति के सदर्भ में राज्य द्वारा बलात् लागू किया जाता है और जिसकी अवहेलना करना एक ‘अपकार’ (Wrong) है।

कर्तव्य और अधिकार में परस्पर सम्बन्ध (Co-relation between Duties and Rights)​

प्राय: सभी विधिशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि प्रत्येक अधिकार के साथ एक सहवर्ती कर्तव्य जुड़ा रहता है। अतः विधिक अधिकार और कर्तव्य के परस्पर सम्बन्ध के विषय में कोई मतभेद नहीं है। अधिकार और कर्तव्य को एक दूसरे के सहवर्ती निरूपित करते हुए उच्चतम न्यायालय ने पंजाब राज्य बनाम रामलुभाया* के वाद में विनिश्चित किया कि एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य होता है। अतः स्वस्थ जीवन का अधिकार प्रत्येक नागरिक का अधिकार है और राज्य का कर्तव्य है कि वह नागरिकों की स्वास्थ्य सेवाओं की उचित व्यवस्था करे। परन्तु उक्त नियम के अपवाद का उल्लेख करते हुए उच्चतम न्यायालय ने X बनाम Z अस्पताल के वाद में स्पष्ट किया कि यदि HIV पॉजिटिव से पीड़ित कोई व्यक्ति विवाह करना चाहता है, तो विवाह के अधिकार के साथ-साथ उसका यह कर्तव्य भी है कि वह जिससे विवाह करना चाहता है उसे अपनी इस बीमारी के बारे में बताए। अत: यह ऐसा अधिकार नहीं है जिसके बारे में सहवर्ती कर्त्तव्य की अपेक्षा वह दूसरे व्यक्ति से करे।

सापेक्ष और निरपेक्ष कर्तव्य (Relative & Absolute Duty)​

विधिवेत्ताओं में इस बात पर मतभेद है कि प्रत्येक कर्तव्य के साथ सहवर्ती अधिकार का होना अनिवार्य है। परंतु ऑस्टिन (Austin) के अनुसार कर्तव्य सापेक्ष (Relative) तथा निरपेक्ष (Absolute), दोनों ही एक प्रकार के हो सकते हैं। सापेक्ष कर्तव्यों (Relative Duties) से उनका अभिप्राय ऐसे कर्तव्यों से है जिनके साथ कोई सहवर्ती अधिकार अवश्य रहता है। परन्तु कुछ कर्त्तव्य ऐसे होते हैं जिनके साथ किसी प्रकार का सहवर्ती अधिकार नहीं होता है। इन कर्तव्यों को ऑस्टिन ने निरपेक्ष कर्तव्य (Absolute Duties) कहा है। निरपेक्ष कर्तव्य-भंग को सामान्यत: अपराध माना जाता है जिसके लिए अपराधकर्ता को दण्डित किया जाता है जबकि सापेक्ष कर्तव्य (Relative Duty) का भंग होना प्राय: एक अपकार (Civil Wrong) माना जाता है जिसके लिए अपकारित व्यक्ति (Victim of the Wrong) की क्षतिपूर्ति की जाती है। ऑस्टिन ने निरपेक्ष कर्तव्यों (Absolute Duties) के निम्नलिखित चार भेद बताये हैं।
  1. स्वयं से सम्बन्धित कर्तव्य (self-regarding duties) जैसे किसी व्यक्ति का आत्महत्या न करने का कर्तव्य या नशा न करने का कर्तव्य आदि।
  2. अनिश्चित लोगों या जन-साधारण के प्रति कर्तव्य, जैसे-न्यूसेन्स (nuisance) न करने का कर्त्तव्य
  3. ऐसे कर्तव्य जो मानव जाति के प्रति न होकर अन्य के प्रति होते हैं; जैसे-ईश्वर के प्रति कर्तव्य या पशुओं के प्रति कर्तव्य आदि।
  4. प्रभुताधारी या राज्य के प्रति कर्त्तव्य
कर्तव्यों की निरपेक्षता सम्बन्धी ऑस्टिन के विचारों का डॉ० ऐलन (Allen) ने भी समर्थन किया, परन्तु उन्होंने राज्य के प्रति किये जाने वाले सभी कर्तव्यों को निरपेक्ष नहीं माना है। ऐलन के विचार से प्रभुताधारी की हैसियत से राज्य के जो कार्य होते हैं उनके प्रति किये जाने वाले कर्तव्य निरपेक्ष (Absolute Duties) होते हैं। परन्तु प्रभुत्व शक्ति के अधीन राज्य द्वारा किये गये कार्यों (Sovereign Acts) के लिए उसके कर्तव्य ठीक उसी प्रकार होते हैं जैसे कि एक सामान्य व्यक्ति के। दूसरे शब्दों में, राज्य की गैर-प्रभताशक्ति के अधीन किये गये कार्यो (non-sovereign acts) के लिए राज्य कर्तव्यबद्ध रहता है तथा अपकारित व्यक्ति को तत्सम्बन्धी समवर्ती अधिकार प्राप्त हैं। अतः राज्य के ऐसे कर्तव्यों को निरपेक्ष नहीं माना जा सकता। हिबर्ट तथा माक्र्सबी (Hibert and Marksby) ने भी ऐलन के इन विचारों से सहमति व्यक्त की है।

कर्तव्यों का वर्गीकरण​

विधिक कर्तव्यों को मुख्यत: निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया गया है।**

1. सकारात्मक तथा नकारात्मक कर्तव्य​

सकारात्मक कर्तव्य व्यक्ति को कुछ कार्य करने हेतु अधिरोपित होते हैं जैसे ऋणी व्यक्ति का ऋणदाता को ऋण की अदायगी का कर्तव्य सकारात्मक है। नकारात्मक कर्तव्य के अधीन व्यक्ति, जिस पर कर्तव्य अधिरोपित हैं किसी कार्य को करने से प्रविरत (forbearance) रहता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति किसी भूमि का स्वामी है, तो अन्य व्यक्ति उस व्यक्ति के भूमि के उपयोग में हस्तक्षेप न करने के लिए कर्तव्याधीन है। अत: यह एक नकारात्मक कर्तव्य है।

2. प्राथमिक तथा द्वितीयक कर्तव्य​

प्राथमिक कर्तव्य ऐसा कर्तव्य है जो बिना किसी अन्य कर्तव्य के स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में है। उदाहरणार्थ, किसी को उपहति (चोट) न पहुँचाने का कर्तव्य प्राथमिक कर्तव्य है। द्वितीयक कर्तव्य वह कर्तव्य है जिसका प्रयोजन किसी अन्य कर्त्तव्य को प्रवर्तित करना है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को क्षति पहुँचाता है, तो प्रथम व्यक्ति का दूसरे की क्षतिपूर्ति करने का कर्तव्य द्वितीयक कर्तव्य है।

कर्तव्य के प्रकार​

विधिशास्त्रीय विवेचन में कर्तव्य के निम्नलिखित वर्गीकरण प्रचलित हैं—

सकारात्मक कर्तव्य (Positive Duties)​

सकारात्मक कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसे करना व्यक्ति का परमदायित्व भी है। जैसे यदि किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति से ऋण लिया है, तो ऋण को वापस करना उसका सकारात्मक कर्तव्य है।

नकारात्मक कर्तव्य (Negative Duties)​

नकारात्मक कर्तव्य वह है, जो किसी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति के प्रति नहीं करने अथवा कुछ करने से प्रविरत रहने की ओर इंगित करता है। जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी भूमि का स्वामी है, तो किसी अन्य व्यक्ति का यह नकारात्मक कर्तव्य है कि वह उक्त भूस्वामी के भूमि के उपयोग में कोई हस्तक्षेप न करे।

प्राथमिक कर्तव्य (Primary Duties)​

प्राथमिक कर्तव्य वह है, जो स्वत: और किसी दूसरे कर्तव्य से स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में होता है। जैसे किसी व्यक्ति को चोट न पहुंचाना एक प्राथमिक कर्तव्य है।

द्वितीयक कर्तव्य (Secondary Duties)​

द्वितीयक कर्तव्य उसे कहते हैं जिसका प्रयोजन केवल किसी अन्य कर्तव्य को प्रवर्तित कराना होता है। जैसे किसी व्यक्ति को क्षति पहुंचाने के एवज में क्षतिपूर्ति का भुगतान करने का कर्तव्य।

सापेक्ष कर्तव्य (Relative Duties)​

ऐसा कर्तव्य जो किसी व्यक्ति के अधिकार के प्रयोग से उत्पन्न होता है, उस व्यक्ति के लिए सापेक्ष कर्तव्य का सृजन करता है, जिसके विरुद्ध किसी अधिकार का दावा किया जाता है।

निरपेक्ष कर्तव्य (Absolute Duties)​

ऐसे कर्तव्य जो नैतिक प्रकृति के होते हैं, इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इन्हें करना व्यक्ति की स्वयं की इच्छा पर निर्भर होता है।


अधिकारों के प्रकार (Kinds of Rights)​

विधिशास्त्रीय विवेचन के अंतर्गत विधिक अधिकारों का निम्नलिखित वर्गीकरण किया जा सकता है:

पूर्ण अधिकार एवं अपूर्ण अधिकार (Perfect and Imperfect Rights)​

पूर्ण अधिकार वे अधिकार होते हैं, जिनका कोई न कोई सह-संबंधी कर्तव्य अवश्य होता है, जिसे विधिक रूप से प्रवर्तित कराया जा सकता है। इसके दावे पर उपचार उपलब्ध होता है। अपूर्ण अधिकार वह अधिकार है, जो यद्यपि विधि द्वारा मान्य होता है किंतु वह विधि द्वारा अप्रवर्तनीय होता है। जैसे काल वर्जित ऋण के दावे, सिवाय इस अपवाद के कि जहां अधिकार है, वहां उपचार भी है।

सकारात्मक अधिकार एवं नकारात्मक अधिकार (Positive and Negative Rights)​

सकारात्मक अधिकार वह अधिकार होता है जिसका सह-संबंधी एक सकारात्मक कर्तव्य होता है और व्यक्ति जिस पर कर्तव्य अधिरोपित हो, को कर्तव्य पालन के लिए वह व्यक्ति बाध्य कर सकता है, जो अधिकार का दावा करता है। नकारात्मक अधिकार वह है जिसका सह-संबंधी एक नकारात्मक कर्तव्य होता है।

सर्वबंधी अधिकार और व्यक्तिबंधी अधिकार (Rights in rem and Rights in personam)​

जो अधिकार समाज (समुदाय/विश्व) के सभी व्यक्तियों के विरुद्ध होता है, उसे सर्वबंधी अधिकार कहते हैं और जो अधिकार केवल व्यक्ति विशेष के विरुद्ध होता है, उसे व्यक्तिबंधी अधिकार कहते हैं। सर्वबंधी अधिकार प्राय: वस्तु से संबंधित होता है जबकि व्यक्तिबंधी अधिकार केवल संबंधित पक्षकारों के संबंधों पर आधारित होता है। संविदात्मक अधिकार व्यक्तिबंधी अधिकार है। यह विभेद रोमन विधि सिद्धांतों पर आधारित है।

पूर्वगामी और उपचारी अधिकार (Antecedent and remedial Rights)​

इन्हें क्रमश: प्राथमिक एवं द्वितीयक अधिकार, प्रधान एवं गौण अधिकार तथा सारभूत एवं प्रक्रिया संबंधी अधिकार (पोलाक के अनुसार) भी कहा जाता है। जब कोई अधिकार किसी अन्य अधिकार से स्वतंत्र रूप से और अपने लिए ही अस्तित्व में होता है, तो उसे पूर्वगामी अथवा प्राथमिक अधिकार कहते हैं। जब कोई दूसरा अधिकार प्राथमिक अधिकार से जोड़ा जाता है तब उसे उपचारी अथवा द्वितीयक अधिकार कहते हैं। इस विभेद पर विधिशास्त्रियों में काफी मतभेद हैं।

निहित अधिकार और समाश्रित अधिकार (Vested and Contingent Rights)​

जब कोई अधिकार किसी अव्यवहित हित को सृष्ट करता है, तो उसे निहित अधिकार कहते हैं। यह किसी भावी घटना या आचरण पर किसी व्यक्ति में निहित, अंतरणीय तथा दाययोग्य होता है। किसी भावी घटना के घटित होने या न होने पर आधारित होते हुए सृष्ट होने वाला अधिकार समाश्रित अधिकार होता है। इसका सृजन उक्त घटना के यथास्थिति, घटित होने या न होने पर ही निर्भर करता है।

साम्पत्तिक अधिकार और व्यक्तिगत अधिकार (Proprietary and Personal Rights)​

साम्पत्तिक अधिकार मनुष्य की सम्पत्ति या सम्पदा में निहित होते हैं। इन अधिकारों का वित्तीय महत्व होता है तथा वे व्यक्ति की संपत्ति, उसकी आस्तियों (assets) अथवा कीर्तिस्व आदि से सम्बन्धित होते हैं। परन्तु मनुष्य के वैयक्तिक अधिकारों का सम्बन्ध उसके व्यक्तित्व, प्रतिष्ठा या हैसियत (status) से होता है। ऐसे अधिकार व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् पूर्णत: समाप्त हो जाते हैं। अत: किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा या उसकी हैसियत (status) उसके वैयक्तिक अधिकारों के अन्तर्गत आती है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को पिता या पति की हैसियत से जो अधिकार अपने बच्चों या पत्नी के प्रति प्राप्त हैं, वे उसके वैयक्तिक अधिकार होते है।

साम्पत्तिक अधिकार और वैयक्तिक अधिकार में मुख्य भेद इस प्रकार हैं​

  • मनुष्य के साम्पत्तिक अधिकारों के योग से उसकी सम्पत्ति या सम्पदा गठित होती है जबकि उसके समस्त वैयक्तिक अधिकारों के योग से उसकी प्रास्थिति (status) स्थापित होती है।
  • साम्पत्तिक अधिकार अन्तरणीय होते हैं जबकि वैयक्तिक अधिकारों का अन्तरण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार साम्पत्तिक अधिकारों पर उत्तराधिकार होता है परन्तु वैयक्तिक अधिकारों पर उत्तराधिकार नहीं होता है।
  • साम्पत्तिक अधिकार वैयक्तिक अधिकार की तुलना में अधिक स्थायी होते हैं।

स्ववस्तु में अधिकार और परवस्तु में अधिकार (Right in re propria and Rights in re-aliena)​

जब किसी व्यक्ति का उसकी निजी सम्पत्ति पर अधिकार होता है तब वह अधिकार स्व-साम्पत्तिक अधिकार (Right in re-propria) कहलाता है, परन्तु जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति पर अधिकार रखता है, तो वह अधिकार पर-साम्पत्तिक (Right in re-aliena) कहलाता है। किसी भू-स्वामी का उसकी भूमि पर स्व-साम्पत्तिक अधिकार होता है परन्तु उसकी भूमि से लगी हुई दूसरे की भूमि पर से आने-जाने का उसका अधिकार पर-साम्पत्तिक अधिकार होगा। पर-साम्पत्तिक अधिकार को विल्लंगम (encumbrance) भी कहते हैं। यह एक ऐसा अधिकार है जो एक ही विषय-वस्तु के सम्बन्ध में किसी दूसरे व्यक्ति के अधिक व्यापक अधिकार से लिया जाता है। पर-साम्पत्तिक अधिकार (right in re-aliena) में। अधिकार का धारणकर्ता संपत्ति पर पूर्ण अधिकार नहीं रखता। संपत्ति पर पूर्ण स्वामित्व का अधिकार तो किसी दूसरे ही व्यक्ति में निहित होता है।

उदाहरणार्थ​

यदि कोई व्यक्ति अपना मकान किसी दूसरे व्यक्ति के पास बंधक (mortgage) रखता है, तो बंधककर्ता (mortgagor) ने मकान सम्बन्धी अपने साम्पत्तिक अधिकार का विभाजन करके उस पर भार (charge) या विल्लंगम (encumbrance) उत्पन्न कर लिया है। ऐसी स्थिति में बन्धकी (mortgagee) को उस मकान पर पर-साम्पत्तिक अधिकार प्राप्त हो जाता है और यदि यह बन्धक कब्जे के साथ हो, तो उसे अस्थायी स्वामित्व भी प्राप्त हो जायेगा। परन्तु किसी भी स्थिति में बन्धकी का यह अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं रहेगा क्योंकि बन्धककर्ता को बन्धक के मोचन का अधिकार (mortgagor’s right of redemption) रहता है। इस दृष्टान्त में बन्धककर्ता का मकान सम्बन्धी जो पूर्ण स्वामित्व अलग हो गया वह पर-साम्पत्तिक अधिकार (right in re-aliena) कहा जायेगा और उसका मकान भारग्रस्त मात्र हो जायेगा। दूसरे शब्दों में, बन्धकी का पर-साम्पत्तिक अधिकार बन्धककर्ता के स्व-साम्पत्तिक अधिकार पर विल्लंगम (encumbrance) होगा।

सामण्ड के अनुसार विल्लंगम (encumbrance) के चार मुख्य प्रकार है​

  1. पट्टा (Lease): पट्टे में सम्पत्ति का स्वामित्व किसी एक व्यक्ति में निहित रहता है जबकि उस सम्पत्ति का कब्जा तथा उपयोग किसी अन्य व्यक्ति में निहित होता है। अत: स्वामित्व (Ownership) और आधिपत्य (possession) के न्यायोचित बंटवारे को पट्टा या लीज कहते हैं।
  2. सुविधाभार (Servitude): सुविधाभार (servitude) में व्यक्ति को केवल भूखण्ड के सीमित उपयोग का अधिकार प्राप्त होता है तथा स्वामित्व तथा कब्जा उसे अन्तरित नहीं किया जाता। सुविधाभार सम्बन्धी अधिकार या तो सामूहिक या व्यक्तिगत हो सकता है। उदाहरणार्थ, किसी मार्ग पर से आने-जाने का अधिकार यदि जनसाधारण को प्राप्त है, तो वह सामूहिक सुविधाभार अधिकार होगा। किन्तु यदि वह किसी व्यक्ति विशेष या कुछ निश्चित व्यक्तियों को ही प्राप्त है, तो वह व्यक्तिगत सुविधाभार अधिकार होगा। सामंड ने सुविधाभार को परिभाषित करते हुए कहा है कि सुविधाभार विल्लंगम का एक ऐसा रूप है। जो व्यक्ति को किसी भू-खण्ड पर कब्जे के बिना सीमित उपयोग का अधिकार देता है तथा यह पट्टे (Lease) से इस अर्थ में भिन्न है कि उसमें (अर्थात् पट्टे में) उपयोग के साथ कब्जे का अधिकार भी प्राप्त होता है। सुखाधिकार (easement right) या परस्व-भोग (profit-d-prendre) सुविधाभार के सर्वोत्तम उदाहरण
  3. प्रतिभूति (Security): प्रतिभूति एक ऐसा भार (charge) या विल्लंगम (encumbrance) है जो किसी लेनदार (creditor) को उसके ऋणी की सम्पत्ति के विरुद्ध प्राप्त होता है ताकि ऋण की वसूली की सुरक्षा बनी रहे। प्रतिभूति या तो बन्धक (mortgage) के रूप में हो सकती है या धारणाधिकार (lien) के रूप में।
  4. न्यास (Trust): न्यास एक ऐसा विल्लंगम (encumbrance) है जिसमें सम्पत्ति का स्वामित्व किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिए साम्यिक बाध्यता (equitable obligation) द्वारा सीमित होता है। उदाहरण के लिए, यदि एक व्यक्ति अपनी कोई सम्पत्ति किसी दूसरे व्यक्ति के हित या लाभ के लिए तीसरे व्यक्ति को सौंपता है, तो यहाँ न्यास का निर्माण हुआ है तथा वह तीसरा व्यक्ति उस सम्पत्ति का न्यासी कहलायेगा। जिस व्यक्ति के हित के लिए न्यास की निर्मिति होती है उसे हितग्राही (beneficiary) कहते हैं।

विधिक अधिकार और साम्यिक अधिकार (Legal and Equitable Rights)​

ब्रिटेन में प्रचलित अधिकारों का यह वर्गीकरण न्यायालयों की मान्यता पर आधारित है। कॉमन लॉ के न्यायालयों के द्वारा मान्य और प्रवर्तनीय अधिकारों को विधिक अधिकार तथा चांसरी न्यायालयों के द्वारा मान्य और प्रवृत्त कराए गए अधिकारों को साम्यिक अधिकार माना गया। भारत में ऐसा कोई प्रभेद मान्य नहीं हैं। यद्यपि भारतीय न्यायालय कुछ मामलों में ‘साम्या’ के अनुसरण में कुछ अधिकारों को मान्यता प्रदान करते हैं किंतु वे किसी विधि के अनुसरण में ही न कि उसके विरोध में। सामान्यतया किसी विधि या संविधि द्वारा प्रदत्त अधिकार विधिक अधिकार माने जाते हैं और न्यायालय के द्वारा साम्या सिद्धांत के अनुसरण में मान्य अधिकार साम्यिक अधिकार की श्रेणी में आ सकते हैं।


विधिक अधिकार के आवश्यक तत्व (Elements of a Legal Right)​

सामण्ड के अनुसार विधिक अधिकार में निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है।
  • अधिकार का धारणकर्ता (Person of inherence): विधिक अधिकार किसी व्यक्ति में निहित होता है। ऐसे व्यक्ति को संदर्भानुसार अधिकार का स्वामी या उसका कर्ता (subject of right) अथवा हकदार व्यक्ति (person of inherence) कहा जाता है। बिना व्यक्ति के विधिक अधिकार का अस्तित्व नहीं हो सकता। तथापि यह आवश्यक नहीं कि अधिकार का हकदार व्यक्ति कोई निश्चित या निर्धारित व्यक्ति ही हो। उदाहरण के लिये, अजन्मा बालक (unborn child) भी अधिकार का हकदार हो सकता है, यद्यपि उसके जीवित जन्म लेने के बारे में कोई निश्चितता नहीं रहती है। इसी प्रकार किसी संस्था या समिति के विधिक अधिकार हो सकते हैं भले ही उसके सदस्यों की संख्या अनियत हो।
  • अधिकार से आबद्ध व्यक्ति (Person of incidence): विधिक अधिकार का प्रयोग किसी व्यक्ति के विरुद्ध किया जाता है। ऐसे व्यक्ति पर तत्सम्बन्धी कर्तव्य करने का भार होता है। अत: जिस व्यक्ति को कर्तव्य करते हुए अधिकार का भार वहन करना पड़ता है उसे ‘कर्तव्य का कर्ता’ (subject of duty) या अधिकार से आबद्ध व्यक्ति कहते हैं।
  • अधिकार की अन्तर्वस्तु (Contents of legal right): विधिक अधिकार आबद्ध व्यक्ति को हकदार व्यक्ति के पक्ष में कोई कार्य करने या न करने के लिए बाध्य करता है। इस प्रकार कार्य (act) या कार्यलोप (omission) को अधिकार की अन्तर्वस्तु कहते हैं।
  • अधिकार की विषय-वस्तु (Subject-matter of right): अधिकार के धारणकर्ता को जो विधिक अधिकार रहता है, वह किसी वस्तु’ (object) से सम्बन्धित होता है। परन्तु हॉलैण्ड का मत है कि सभी विधिक अधिकारों में इस तत्व का होना आवश्यक नहीं है 23 उदाहरणार्थ ‘ख’ ‘क’ का नौकर है। यहाँ ‘क’ अधिकार का धारणकर्ता है तथा ‘ख’ उस अधिकार से बाध्य व्यक्ति है। ‘ख’ द्वारा ‘क’ की सेवा की जाना अधिकार की अन्तर्वस्तु (contents) है। परन्तु इसमें अधिकार की विषय-वस्तु (subject matter of might) कहीं नहीं है। अधिकार की विषय-वस्तु निश्चित, अनिश्चित अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष, कैसी भी हो सकती है, जैसे ‘ख्याति’, “कौशल’, ‘ज्ञान’ आदि किसी व्यक्ति के अधिकार की विषय-वस्तु हो सकती है जिसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं है।
  • अधिकार का स्वत्व या ‘हक‘ (Title of the right): प्रत्येक विधिक अधिकार के साथ अधिकार के धारणकर्ता का स्वत्व या ‘हक’ (title) जुड़ा होता है। स्वत्व (title) उन तथ्यों अथवा घटनाओं से उत्पन्न होता है जिनके कारण विधिक अधिकार धारणकर्ता में निहित होता है।
विधिक अधिकार के उपर्युक्त तत्वों को अधिक स्पष्ट करते हुए सामण्ड (Salmond) एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यदि ‘क’ कोई जमीन ‘ख’ से खरीदता है, तो इस दृष्टान्त में ‘क’ अधिकार का धारणकर्ता या स्वामी है। चूंकि इस प्रकार के अधिकार का प्रयोग समस्त विश्व के विरुद्ध किया जाता है, अतः इस उदाहरण में समस्त व्यक्ति कर्तव्य से आबद्ध हैं। ‘क’ को खरीदी हुई भूमि का अनन्य उपयोग करने सम्बन्धी जो अधिकार प्राप्त है, उसे अधिकार की अन्तर्वस्तु कहा जायेगा। क्रय की गई भूमि अधिकार की विषय-वस्तु है। तथा उस भूमि के अधिकार का स्वत्व वह अन्तरण-पत्र है जिसके द्वारा ‘क’ ने ‘ख’ से जमीन का स्वामित्व अर्जित किया है।

उपर्युक्त दृष्टान्त से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक अधिकार में तीन प्रकार के सम्बन्ध अन्तर्निहित होते हैं
  1. यह किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के विरुद्ध अधिकार होता है;
  2. यह ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा कोई कृत्य करने (act) या न करने (omission) का अधिकार होता है,
  3. वह जिस वस्तु से सम्बन्धित यह कृत्य या अकृत्य (act or omission) है, उस पर या उसके बारे में अधिकार होता है।
कुछ ऐसे अधिकार भी हैं जो व्यक्ति के स्वयं के प्रति हैं। उदाहरणार्थ, प्रत्येक व्यक्ति का यह अधिकार होता है कि उसकी मृत्यु कारित न की जाये, और इस अधिकार की विषयवस्तु उस व्यक्ति का जीवन (life) है। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है कि उसके विरुद्ध प्रहार (हमला) न किया जाये या उसे धोखा न दिया जाये या अपमानित न किया जाये। प्रत्येक व्यक्ति का यह भी अधिकार है कि उसकी अचल सम्पत्ति, जिसका वह उपभोग (enjoyment) कर रहा है, उसमें कोई अन्य व्यक्ति अनुचित हस्तक्षेप न करे।

विधिक अधिकार के सिद्धान्त (Theories of Legal Rights)​

विधिक अधिकारों के संदर्भ में इनसे संबंधित दो सिद्धान्तों का विवेचन करना उपयुक्त होगा, जो (1) हित-सिद्धान्त, तथा (2) इच्छा सिद्धान्त कहलाते हैं।

हित-सिद्धान्त (Interest Theory)​

इहरिंग (Ihering) ने विधिक अधिकार को ‘हित’ पर आधारित माना है। उनके अनुसार अधिकार विधि द्वारा संरक्षित हित है।’ विधि का मूल उद्देश्य मानवीय हितों का संरक्षण करते हुए मानव के परस्पर विरोधी हितों के संघर्ष को टालना है। परन्तु सामण्ड ने इहरिंग द्वारा दी गई ‘अधिकार’ की परिभाषा को अपूर्ण मानते हुए कहा है कि विधिक अधिकार के लिए केवल विधिक संरक्षण दिया जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसे वैधानिक मान्यता भी प्राप्त होनी चाहिये। इस तर्क की पुष्टि सामण्ड एक दृष्टान्त द्वारा करते हैं। उनके विचार से पशुओं के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना विधि द्वारा निषिद्ध (prohibited) है तथा इसके लिए दोषी व्यक्ति को दण्डित किये जाने का प्रावधान है। अत: क्या यह कहना उचित होगा कि पशुओं को आत्म सुरक्षा का विधिक अधिकार प्राप्त है? आशय यह है कि पशुओं सम्बन्धी इस अधिकार को विधिक संरक्षण प्राप्त है, परन्तु विधिक मान्यता प्राप्त न होने के कारण इसे ‘विधिक अधिकार’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। यही कारण है कि सामण्ड ने पशुओं के इस अधिकार को केवल नैतिक अधिकार के रूप में ही स्वीकार किया है|

इच्छा सिद्धान्त (Will Theory)​

हीगल, कान्ट तथा ह्यम आदि विधिशास्त्रियों ने विधिक अधिकार सम्बन्धी हित सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति का अधिकार उसकी इच्छा को प्रदर्शित करता है। पुश्ता (Puchta) ने यह विचार व्यक्त किया कि अधिकार के माध्यम से व्यक्ति किसी वस्तु पर अपनी इच्छा शक्ति को अभिव्यक्त करता है। जर्मनी के ऐतिहासिक विधिशास्त्र के समर्थकों ने अधिकार सम्बन्धी इच्छा सिद्धान्त को स्वीकार किया है।

 
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