न्यायालय का क्षेत्राधिकार से क्या मतलब है?
न्यायालय का क्षेत्राधिकार से मतलब सक्षम न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके तहत न्यायालय अपने क्षेत्राधिकारिता के अंतर्गत किसी वाद, अपील या आवेदन पत्र को स्वीकार कर न्यायिक कार्यवाही पूर्ण कर पक्षकारों की सुनवाई के बाद उस वाद, अपील या आवेदन पत्र पर अपना न्यायिक निर्णय दे सकता है।न्यायालय का क्षेत्राधिकार कितने प्रकार के होते है?
किसी न्यायालय की अधिकारिता को निश्चित करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत कुछ अधिकारिताएं बताई गयी है क्योकि न्यायालय में किसी वाद को दर्ज करने से पहले निश्चित कर लेना चाहिए की क्या उस न्यायालय में ये सभी अधिकारिताएं**,** वाद के संदर्भ में निहित है या नहीं?सिविल न्यायालय क्षेत्राधिकार के प्रकार
- स्थानीय या प्रादेशिक अधिकारिता,
- धन सम्बन्धी अधिकारिता,
- विषयवस्तु सम्बन्धी अधिकारिता,
- प्रारम्भिक एवं अपीलीय अधिकारिता
1. स्थानीय या प्रादेशिक अधिकारिता
न्यायालय की स्थानीय क्षेत्राधिकार सीमा सरकार के द्वारा निर्धारित की जाती है जिसके अंतर्गत न्यायालय उस क्षेत्राधिकार सीमा के भीतर रहकर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है। जैसे :-- जिला न्यायालय को जिले की सीमा के अंतर्गत ही क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है**,** जिले की सीमा के भीतर ही वह अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकती है।
- उच्च न्यायालय को राज्य विशेष की सीमाओं के अंतर्गत क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है**,** राज्य विशेष की सीमाओं के भीतर रहकर ही अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करेगी।
- उच्चतम न्यायालय पुरे देश में अपने अधिकार का प्रयोग कर सकता है और उस वाद की सुनवाई पर अपना निर्णय दे सकता है।
- सिविल जज जूनियर डिवीजन का केवल एक विशेष सीमित क्षेत्र के अंतर्गत क्षेत्राधिकार प्राप्त होता है**,** उसी विशेष सीमित क्षेत्र के भीतर रहकर अपने क्षेत्राधिकारों का प्रयोग करना होता है।
धारा 15 न्यायालय जहाँ वाद दर्ज किया जायेगा :- सिविल विवाद से सम्बंधित हर वाद उस निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में दर्ज दाखिल किया जायेगा जो उस वाद का विचारण करने के सक्षम है।
धारा 16 वाद का वहां दर्ज किया जाना जहाँ वाद की विषय वस्तु स्थित है:- जहाँ सिविल विवाद विषय वस्तु की स्थित के सम्बन्ध में तो हर एक विवाद के निपटारे के लिए वाद उस न्यायालय में दर्ज किये जायेंगे जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर वह संपत्ति स्थित है, या उस न्यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के अंदर प्रतिवादी वास्तव में या अपनी इच्छा से निवास करता है. कारोबार करता है, धन प्राप्ति के लिए खुद काम करता है वहाँ के न्यायालय में वाद दर्ज किया जा सकेगा।
- विषय वस्तु की स्थिति के सम्बन्ध में उत्तपन हुए विवाद जैसे:-
- अचल संपत्ति के किराये की वसूली के लिए मुनाफे या बिना मुनाफे के साथ,
- अचल संपत्ति के विभाजन के लिए,
- अचल समपत्ति के बंधक, या उस पर के भार की दशा में मोचन या विक्रय के लिए,
- अचल संपत्ति में के किसी अन्य अधिकार या हित के अवधारण के लिए,
- अचल संपत्ति के प्रति किये गए दोष प्रतिकर के लिए,
- कुर्की के वस्तुतः अधीन चल संपत्ति के वसूली के लिए।
धारा 18 जहाँ न्यायालयों की अधिकारिता की स्थानीय सीमाएं अनिश्चित है वहां वाद का दर्ज किया जाना:-संपत्ति के विवाद को लेकर मुकदमा दर्ज करने के लिए जहाँ यह अभिकथन किया जाता है कि कोई अचल संपत्ति दो या दो से अधिक न्यायालयों की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित है और उन न्यायालयों की अधिकारिता की स्थानीय सीमाएं अनिश्चित है, तो उस सम्पति के अनुतोष या दोष के प्रतिकर के लिए वहां स्थित उन न्यायालयो में से कोई भी एक न्यायालय यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अभिकथित अनिश्चितता के लिए आधार है, उस भाव का कथन अभिलिखित कर सकेगा और तब जाकर उस विवादित संपत्ति के सम्बंधित किसी किसी भी मुकदमे / वाद की स्वीकृति करने और उस विवादित संपत्ति का निपटारा करने के लिए आगे की कार्यवाही कर सकेगा। उस वाद में उसकी डिक्री का वही प्रभाव होगा मानो वह विवादित संपत्ति उस न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित है। लेकिन, यह तब होगा जब की वह वाद ऐसा है जिसके सम्बन्ध में न्यायालय उस वाद की प्रकृति और मूल्य की दृष्टि से अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए सक्षम है।
धारा 19 शरीर या चल संपत्ति के प्रति किये गए दोषो के लिए क्षतिपूर्ति के लिए वाद का स्थान: जहाँ शरीर या चल संपत्ति के प्रति किये गए क्षति के प्रति क्षतिपूर्ति के लिए वाद दर्ज करना है वहां यदि क्षति /दोष एक न्यायलय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर किया गया था और प्रतिवादी किसी अन्य न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर निवास करता है, कारबार करता है, धन कमाने के लिए खुद काम करता है, तो वह वाद वादी के ऊपर निर्भर करता है की वह उक्त न्यायलयों में से किसी भी न्यायालयों अनुतोष या संपत्ति के प्रति किये गए दोष के लिए प्रतिकर के लिए वाद दर्ज कर सकेगा।
उदाहरण:- अयोध्या में निवास करने वाला क लखनऊ में ख पर हमला कर उसको बुरी तरह से पीटता है। तो ऐसे में ख के पास दो विकल्प है की वह क के खिलाफ अयोध्या या लखनऊ के न्यायालय में मुकदमा दर्ज कर सकेगा।
धारा 20 अन्य वाद वहां दर्ज किए जा सकेंगे जहाँ प्रतिवादी निवास करता है या जहाँ वाद उत्पन्न हुआ है- उपर्युक्त परिसीमाओं के अधीन रहते हुए हर एक वाद ऐसे न्यायालय में दर्ज किये जायेंगे जिनकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर है। जहाँ एक या एक से अधिक प्रतिवादी है वहां प्रतिवादी में से हर एक वाद के प्रारंभ के समय वास्तव में और अपनी इच्छा से निवास करता है, कारबार करता है या धन कमाने के लिए खुद काम करता है। वाद हेतुक पूर्णतः या भागतः पैदा होता है।
2. धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार
हर एक न्यायालय की धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार की सीमा सरकार द्वारा ही निर्धारित की जाती है जिसके तहत न्यायालय को उसी निर्धारित धन सम्बन्धी सीमा के अंतर्गत ही वाद या अपील को स्वीकार करने का अधिकार होता है। एक बात ध्यान रखने वाली यह है कि धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार की सीमा अलग अलग राज्यों में अलग अलग हो सकती है। धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार निम्न प्रकार हैं:—- **सिविल जज (जूनियर डिवीजन): ** २५००० रुपये तक
- सिविल जज (सीनियर डिवीजन) अतिरिक्त जिला जज या जिला जज: २५,००१ से असीमित सीमा तक।
- लघुवाद न्यायालय: १००० रुपये तक। उत्तर प्रदेश में लघुवाद न्यायालय की धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकारिता धन सम्बन्धी वाद में ५०००/- रुपये तक सीमित है किन्तु भाटक (किराये) के बेदखली सम्बन्धी वाद में यह अधिकारिता २५,००० रुपये तक है।
- उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकारिता असीमित है।
3. विषय वस्तु सम्बन्धी क्षेत्राधिकार
हर एक न्यायालय की विषय वस्तु सम्बन्धी क्षेत्राधिकार की सीमा सरकार द्वारा ही निर्धारित की जाती है जिसके अंतर्गत वह उस निश्चित की गयी विषय वस्तु के तहत वादों को स्वीकार करता है। सभी विषय वस्तु सम्बन्धी वादों में विचारण कर अपना निर्णय सुना सकने का यह अधिकार हर एक न्यायालय को प्राप्त नहीं है।- सिविल सम्बन्धी विवाद,
- पारिवारिक सम्बन्धी विवाद,
- उपभोक्ता सम्बन्धी विवाद,
- औद्योगिक सम्बन्धी विवाद ,
- सहकारी समिति सम्बन्धी विवाद।
4. प्रारम्भिक एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार
हर एक न्यायालय की प्रारम्भिक एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार की सीमा सरकार द्वारा ही निर्धारित की जाती है उसी सीमा के अंतर्गत वह न्यायालय उस प्रारंभिक कार्यवाही एवं अपीलीय कार्यवाही को स्वीकार करती है। प्रारंभिक सिविल क्षेत्राधिकार से मतलब न्यायालय के उस अधिकार से है जिसके अंतर्गत किसी भी सिविल वाद या प्रार्थना पत्र या अन्य न्यायिक कार्यवाही को प्रथमतः स्वीकार कर विचारण कर अपना निर्णय सुना कर उस वाद का निपटारा करना होता है जैसे:-- वसीयत ,
- विवाह विच्छेद / तालक ,
- विवाह विधि सम्बन्धी मामले ,
- कंपनी विधि सम्बन्धी मामले ,
- न्यायालय की अवमानना सम्बन्धी मामले।
सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (धारा 9) जब तक कि वर्जित न हो, न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेंगे – न्यायालयों को (इसमें अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए) उन वादों के सिवाय,जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है, सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।
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