साक्ष्य अधिनियम 1872 | धारा 17 स्वीकृति | Evidence Act Section 17 | Admission defined

साक्ष्य अधिनियम 1872 | धारा 17 स्वीकृति | Evidence Act Section 17 | Admission defined


भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act 1872) के अंतर्गत स्वीकृति (Admission) को महत्वपूर्ण माना गया है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को मान लेता है या अपराध को स्वीकार कर लेता है तो उसे आम भाषा में इसे स्वीकृति कहा जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 में इसे विस्तारपूर्वक समझाया गया है।

स्वीकृति और परिभाषा​

धारा १७ के अनुसार स्वीकृति वह मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में अंतर्विष्ट कथन है जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान इंगित करता है और जो ऐसे व्यक्तियों में से किसी के द्वारा और ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जो धारा १८, १९ व २० में वर्णित है।


अत: भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा १७ के अधीन स्वीकृति की परिभाषा के अनुसार स्वीकृति मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में अंतर्विष्ट कथन है।

धारा १७ में प्रयुक्त शब्दावली ‘‘मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रानिक रूप में अन्तर्विष्ट’’ को सूचना प्राद्योगिकी अधिनियम, २००० के द्वारा संशोधित रूप में समविष्ट किया गया। धारा १८ १९ एवं २० के अनुसार ऐसे व्यक्तियों को ही स्वीकृतियां सुसंगत हैं, जो कार्यवाही के पक्षकार या उसके अभिकत्र्ता द्वारा, प्रतिनिधिक रूप से वादकत्र्ता द्वारा, विषय-वस्तु में हितबद्ध पक्षकार द्वारा, उस व्यक्ति द्वारा जिससे हित व्युत्पन्न हुआ हो, रेफरी इत्यादि द्वारा की गयी हो। स्वीकृति का मौलिक सिद्धांत यह है कि यदि स्वीकृति अपने हित के विरुद्ध की जाती है तो ग्राह्य है क्योंकि यह मानव स्वभाव है कि अपने विरुद्ध कोई बात तभी स्वीकार करेगा जब वह सच हो।

स्वीकृति के आवश्यक तत्व​

:1. स्वीकृति एक मौखिक या दस्तावेजी या इलैक्ट्रॉनिक अभिलेख में अंतर्विष्ट कथन है।
2. यह एक ऐसा कथन है जो जो विवाधक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में अनुमान इंगित करता है।
3. यह अधिनियम में वर्णित परिस्थितियों में निदृष्ट व्यक्तियों द्वारा किया गया कथन है।आचरण भी स्वीकृति गठित कर सकता है उचित मामला में “मौन” स्वीकृति गठित कर सकता है सक्रिय आचरण भी स्वीकृति गठित कर सकता है। यहाँ धारा 8 का दृष्टांत (g) सन्दर्भ योग्य है।

स्वीकृति दायित्व की प्रत्यक्ष अभिस्वीकृति के रूप में हो सकती हैं यह दायित्व का संकेत या अनुमान करने वाला कथन या आचरण भी हो सकती है अनुमान स्पष्ट अभ्रामक तथा बोधगम्य होना चाहिये इसे अस्पष्ट, भ्रमाक या खंडित नहीं होना चाहिये।

कौन स्वीकृति कर सकेगा- धारा 18,19,20​

धारा 18 के अनुसार निम्न व्यक्तियों के कथन स्वीकृति हो सकते है-
  1. वाद के पक्षकार
  2. पक्षकारो के प्राधिकृत अभिकर्ता
  3. विषय वस्तु में साम्पतिक या आर्थिक हित धारक व्यक्ति जबकि वे ऐसा हित धारण करते हो।
  4. प्रतिनिधिक हैसियत से वाद संचालित कर रहे या वाद में प्रतिरक्षा कर रहे व्यक्ति का कथन ऐसे व्यक्तियों का कथन जिनसे पक्षकारो ने हित प्राप्त किया हो।
धारा 19 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति का कथन स्वीकृति हो सकेगा जिसकी स्थिति या दायित्व पक्षकारो के विरुद्ध सिद्ध की जाती है तथा

धारा 20 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति का कथन स्वीकृति होगा जिसे वाद के पक्षकार ने विवादित विषय के सन्दर्भ में सुचना हेतु अभिव्यक्त संदर्भित किया हो। धारा 20 मे निदृष्ट विधि विलियम्स बनाम एस के प्रकरण में प्रतिपादित सिद्धांत पर आधारित है। धारा 20 इस सामान्य नियम का अपवाद है कि तृतीय व्यक्ति का कथन सुसंगत नहीं होता है।

स्वीकृति के 4 आधार बताये है​

  1. स्वीकृति सबूत का अधित्यजन होती है (धारा 58)
  2. स्वीकृति जब अपने हित के विरुद्ध होती है तो ग्राह्य होती है (धारा 17)
  3. स्वीकृति अपने पक्ष में आपवादिक परिस्थितियों में की जा सकती है (धारा 21)
  4. सत्य के साक्ष्य के रूप में (धारा 31)
ऐसी संस्वीकृति जो विसंगत है: धारा 24, 25, 26

संस्वीकृति जो सुसंगत है: धारा 28, 26, 27, 29, 30


स्वीकृति के प्रकार​

  1. लिखित
  2. मौखिक
  3. संकेत या मौन रहना
  4. आचरण के रूप में
  5. इसके अतिरिक्त औपचारिक और अनौपचारिक स्वीकृति होती
औपचारिक स्वीकृति वह है जो न्यायिक कार्यवाही के दौरान अभिवचनो में की जाती है या परिप्रश्नो के उत्तर में होती है या अधिवक्ता या वकील द्वारा की जाती है।

अनौपचारिक स्वीकृति जीवन या कारोबार के साधारण वार्तालाप के क्रम में हो सकती है। ऐसी स्वीकृति लिखित हो सकती है या मौखिक। लिखित स्वीकृति पत्र व्यवहार के दौरान कारोबार की पुस्तकों में पासबुक आदि में हो सकती है।

स्वीकृति के कथनों के माध्यम से किसी विवाधक तथ्यों या सुसंगत तथ्यों के अस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है, इसलिए साक्ष्य विधि में स्वीकृति को महत्व दिया गया है। स्वीकृति एक अत्यंत मजबूत साक्ष्य है तथा अन्य साक्ष्यों के मुकाबले स्वीकृति का साक्ष्य अधिक शक्तिशाली होता है।

आवश्यक नहीं की कोई स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब वह पूर्ण रूप से दायित्व को स्वीकार करे, केवल इतना ही पर्याप्त होगा की किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार किया गया है जिससे दायित्व का अनुमान लगता है। अर्थात यदि व्यक्ति ने किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार कर लिया है जो उसके दायित्व का साक्ष्य देती है तो यह सुसंगत होगी।

चीखम बनाम सुब्बाराव (ए आई आर 1981 एस सी 1542) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति का कोई अधिकार उसी के द्वारा की गई स्वीकृति के आधार पर छीनने के लिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति स्पष्ट तथा अंतिम हो उसमें कोई शक या अनिश्चितता वाली बात नहीं होना चाहिए।

इस मामले के माध्यम सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि यदि किसी व्यक्ति को उसके द्वारा की गई स्वीकृति के माध्यम से किसी अधिकार से वंचित करना है तो ऐसी स्वीकृति स्पष्ट एवं साफ साफ होनी चाहिए। स्वीकृति अंशों में होती है तथा इसी स्वीकृति के माध्यम से किसी एक ही संव्यवहार के अलग-अलग तथ्यों को साबित किया जा सकता है। जैसे कि किसी स्थान पर लाश मिलने के परिणाम स्वरूप किसी व्यक्ति को हत्या के अभियोजन में आरोपी बनाया गया है और आरोपी व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि जिस समय व्यक्ति की हत्या हुई थी उस समय वह उस ही स्थान पर था तो भले ही यह स्वीकृति यह साबित नहीं कर रही है की हत्या आरोपी द्वारा ही की गई है, परंतु यह अवश्य साबित कर रही है की आरोपी व्यक्ति हत्या के समय जिस स्थान से लाश मिली है उस स्थान पर उपस्थित था।

बृजमोहन बना अमरनाथ (एआईआर 1980 एस सी 54) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय को स्वीकृति के कथन के अंदर बाहर दोनों ओर से जांच कर लेनी चाहिए और किसी व्यक्ति को उसके कथनों से बाध्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह व्यापक तथा स्पष्ट है।

सबूत की आवश्यकता नहीं होना: स्वीकृति के कारण किसी तथ्य के सुसंगत होने पर सबूत आवश्यक नहीं रह जाती है। यदि कुछ तथ्यों को स्वीकृति मिल गई है तो ऐसे तथ्यों का सबूत देने की आवश्यकता नहीं रहती, जिस व्यक्ति द्वारा स्वीकृति की जाती है उसे अपनी बात को साबित करने के लिए कोई सबूत देने की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे यदि कोई भरण पोषण के लिए मुकदमा लाया जाता है यह मुकदमा अगर पत्नी द्वारा लाया जाता है, पत्नी किसी व्यक्ति को अपना पति बता रही है यदि वाद पत्र का जवाब देते हुए व्यक्ति जिस पर वाद लाया गया है वह वाद लाने वाली स्त्री को अपनी पत्नी मान लेता है तो या स्वीकृति है तथा इस स्वीकृति का साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होगी।


स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विपरीत होती है: स्वीकृति के संदर्भ में यह माना गया है कि कोई भी स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध होती है। स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही की जाती है,जो व्यक्ति ऐसी स्वीकृति कर रहा है। परंतु यह आवश्यक नहीं है कि कोई भी स्वीकृति सदैव उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाए। कभी-कभी स्वीकृति केवल किसी विवाधक या सुसंगत तथ्य के अनुमान के लिए ही होती है। यह इस स्वीकृति को करने वाले व्यक्ति के हित के विपरित नहीं जाती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को ऐसा ही माना गया है। अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को केवल इतना माना गया है कि यह स्वीकृति केवल विवाधक एवं सुसंगत तथ्यों के अनुमान बताती है उनके अस्तित्व का निर्धारण करती है।

नगीनदास रामदास बनाम दलपतराम इच्छाराम के वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रारूपिक स्वीकृति के महत्व को समझा है तथा प्रारूपिक स्वीकृति के संदर्भ में कहा है कि यह एक मजबूत साक्ष्य होती है तथा ऐसे किसी साक्ष्य को साबित किए जाने की आवश्यकता नहीं होती है। यह न्यायालय के समक्ष की जाती है। ऐसी स्वीकृति यदि सही और स्पष्ट हो तो तथ्यों का सबसे अच्छा सबूत होती है। ऐसी स्वीकृति जो पक्षकारों ने अपने वाद में की है उसने न्यायिक स्वीकृति कहते है,जो धारा 58 के अंतर्गत है तथा जिसे पक्षकारों तथा उनके अभिकर्ताओं ने सुनवाई में किया है। ऐसी स्वीकृति दूसरा स्थान रखती है जो न्यायालय के बाहर होती है और गवाहों द्वारा साबित होती है। प्रथम श्रेणी की स्वीकृति करने वाले पक्षकार पर स्वीकृति पूर्ण रूप से बाध्य होती है, उनके सबूत का अभित्याजन हो जाता है, पक्षकारों के अधिकारों की बुनियाद बन सकती है।

हेमचंद्र गुप्ता बनाम ओम प्रकाश गुप्ता एआईआर 1987 कोलकाता 69 के मामले में जिस व्यक्ति ने पारिवारिक बंटवारे के विलय पर हस्ताक्षर किए थे। उसके विरुद्ध यह स्वीकृति मान ली गई, क्योंकि सभी व्यक्तियों द्वारा ऐसे किसी भी लेख पर हस्ताक्षर नहीं किए गए थे। औपचारिक स्वीकृति का कथन हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष कर सकते हैं, यह कथन किसी पति और पत्नी के बीच हुए संवाद के आधार पर भी हो सकता है। एक मामले में उच्चतम न्यायालय के शब्दों में यद्यपि किसी भूतपूर्व कथन मैं अपने ही पक्ष में की गई कोई बात कोई साक्ष्य नहीं होती है, परंतु कोई ऐसा भूतपूर्व कथन जो कथन करता है के हित के विरुद्ध हो वह स्वीकृति होगा और साक्ष्य के रूप में सुसंगत होगा।

स्वीकृति का प्रभाव (धारा 31)​

  1. स्वीकृतियां, स्वीकृत विषय पर निश्चायक साक्ष्य नहीं है अत: प्रतिकूल साक्ष्य द्वारा स्वीकृति को मिथ्या सिद्ध किया जा सकता है।
  2. यधपि स्वीकृतियां, स्वीकृत विषय पर निश्चायक साक्ष्य नहीं, तथापि यह बिबंध की भांति प्रवर्तित होती है अत: स्वीकृतकर्ता, उत्तरवर्ती अवसर पर अपनी स्वीकृति से मुकर नहीं सकता है।
  3. स्वीकृत तथ्यों को सिद्ध करना आवश्यक नहीं रह जाता है धारा 58 केवल न्यायिक स्वीकृतियों पर लागू होती है। न्यायिक स्वीकृतियां कार्यवाही के भाग के रूप मे या अभिवचनो के माध्यम से की जाती है।
  4. स्वीकृत तथ्यों को स्वीकृत से अन्यथा सिद्ध किये जाने की न्यायालय द्वारा अपेक्षा की जा सकती है।
 
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