प्रावधान
अपील से संबंधित उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय २९, धारा ३७२ से ३९४ में वर्णित है। धारा ३७२ के अन्तर्गत यह सामान्य नियम अधिकथित है कि दण्ड न्यायालय के किसी निर्णय या आदेश से कोई अपील इस संहिता द्वारा या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के द्वारा जैसा उपबंधित है, के सिवाय नहीं होगी।अपील का अर्थ
अपील एक परिवाद है जो छोटे न्यायालयों द्वारा किये गये विनिश्चयों के विरुद्ध बड़े न्यायालयों में दायर किया जाता है तथा उच्चतर न्यायालय से यह निवेदन किया जाता है कि वह निचले न्यायालय के विनिश्चय को ठीक कर दे अथवा उसे उलट दे। इस प्रकार अपील सदैव अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध किसी उच्चतर न्यायालय को की जाती है।दुर्गा शंकर मेहता बनाम रघुराज सिंह, 1954 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि व्यक्ति को किसी भी निर्णय के विरुद्ध अपील करने सम्बन्धी अन्तर्निहित प्राधिकार प्राप्त नही है। ऐसे अधिकार का उपयोग तभी किया जा सकता है जब उसे उक्त अधिकार संविधि द्वारा प्रदान किया गया हो। दूसरे शब्दों में, यह एक क़ानूनी अधिकार है अतः अपील सम्बन्धी अधिकार का दावा मौलिक अधिकार की भाँती नही किया जा सकता है।
धारा 372 दंड प्रक्रिया संहिता
इस संहिता के अनुसार या किसी अन्य कानून में बताये गए आपराधिक न्यायालय के किसी भी निर्णय या आदेश से ही अपील हो सकेगी, अन्यथा नहीं। इसके अलावा, मामले की पीड़िता/पीड़ित को यह अधिकार होगा कि वह न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश के खिलाफ (केवल 3 प्रकार के मामलों में) ऐसे न्यायालय में अपील कर सकता/सकती है, जहाँ सामान्यतः उस न्यायालय से अपील होती है। वो 3 मामले निम्न प्रकार के हैं:-- अभियुक्त की दोषमुक्ति
- अभियुक्त को कम/छोटे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाना
- जहाँ अपर्याप्त मुआवजा लगाया गया हो
“पीड़ित (व्यक्ति) को न्यायालय द्वारा पारित किसी आदेश, जिसके द्वारा अभियुक्त को दोषमुक्त किया गया है या न्यूनतर अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया है या अपर्याप्त प्रतिकर अधिरोपित किया गया है, के विरुद्ध अपील प्रस्तुत करने का अधिकार होगा और ऐसा अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें अपील सामान्य रुप से ऐसे न्यायालय की दोषसिद्धि के आदेश के विरुद्ध होती है”।
इस परन्तुक जोड़े जाने का प्रयोजन पीड़ित पक्ष को अपील का अधिकार ठीक उसी प्रकार प्रदान करना है जैसे दीवानी मामलों में किसी व्यथित पक्ष को प्राप्त होता है। इस अध्याय के अधीन विविध मामलों में अपील संबंधित उपबंध अलग-अलग धाराओं में वर्णित है।
- वे मामले जिसमे अपील हो सकेगी – 373, 374, 377, 378, 379,
- वे मामले जिसमे अपील नही हो सकेगी 375, 376
अपील के प्रकार क्या क्या हैं?
दंड प्रक्रिया संहिता में 4 प्रकार (या परिस्थितियों में) की अपील की बात की गयी है।- दोषसिद्धि से अपील(धारा 374)
- दंडादेश के विरूद्ध अपील (धारा 377)
- दोषमुक्ति की दशा में अपील (धारा 378)
- कुछ मामलों में अपील का विशेष अधिकार (धारा 380)
1. दोषसिद्धि से अपील (धारा 374)
इसके अंतर्गत वह मामले आते हैं जहाँ किसी व्यक्ति को विचारण के बाद दोषी करार दिया जाता है। इन मामलों में कई फोरम में सुनवाई के अधिकार दिए गए हैं और ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि एक बार व्यक्ति को दोषी करार दिया जाता है तो उसके तमाम अधिकारों का हनन होता है। और चूँकि न्याय का यह मुख्य सिद्धांत है कि किसी भी बेक़सूर को बेवजह सजा नहीं दी जानी चाहिए इसलिए ऐसे व्यक्तियों को उचित रूप से संहिता में अधिकार दिए गए हैं। दोषी पाए गए व्यक्ति को निम्नलिखित फोरम में अपील में जाने का मौका मिलता है:-- धारा ३७४ (१) उच्चतम न्यायालय में अपील कोई व्यक्ति जो उच्च न्यायालय द्वारा असाधारण, आरंभिक दांडिक अधिकारिता के प्रयोग में किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है।
- धारा ३७४ (२) उच्च न्यायालय में अपील कोई व्यक्ति जो सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश द्वारा किए गए विचारण में या किसी अन्य न्यायालय द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, जिसमें सात वर्ष से अधिक के कारावास का दण्डादेश उसके विरुद्ध या उसी विचारण में दोषसिद्ध किए गए किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध दिया गया है, उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
- धारा ३७४ (३) सत्र न्यायलय में अपील कोई व्यक्ति, (क) जो महानगर मजिस्ट्रेट या सहायक सेशन न्यायालय या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, अथवा (ख) जो धारा ३२५ के अधीन दण्दादिष्ट किया गया है, अथवा (ग) जिसके बारे में किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा ३६० के अधीन आदेश दिया गया है या दण्डादेश पारित किया गया है। सेशन न्यायालय में अपील कर सकता है।
मजिस्ट्रेट के किन आदेश के विरुद्ध अपील की जा सकती है
धारा 117 के अधीन परिशान्ति कायम रखने व सदाचार के लिए प्रतिभूति मांगने का आदेश एवं धारा 121 के अधीन प्रतिभू स्वीकार करने से इंकार करने (धारा 373)। धारा 325 के अधीन दिया गया दण्ड (धारा 374)। किसी विचारण में दिया गया दोषसिद्धि का आदेश (धारा 374)। द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रत्येक आदेश के विरुद्ध अपील की जा सकती है।मजिस्ट्रेट के निम्न आदेशों के विरुद्ध अपील नही की जा सकती है
धारा 376 के अनुसार जहां सेशन न्यायाधीश या महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा 3 माह तक का कारावास या 200 तक का जुर्माना या दोनों का दण्ड अधिरोपित किया है। या जहां न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वितीय वर्ग के द्वारा 100 रुपया जुर्माना दिया गया है। जहां संक्षेपतः विचारण के किसी मामले में 200 रुपये तक का जुर्माना दिया गया है। लेकिन यदि उपरोक्त दण्ड के साथ कोई अन्य दण्ड दिया जाता है तब अपील की जा सकती है। यदि दो दण्डादेश दिए गये हैं, चाहे उनके एक साथ चलने का आदेश दिया हो तो भी वह “छोटा मामला” नही होगा और उसके विरुद्ध अपील की जा सकती है। जहां मजिस्ट्रेट ने 100 रूपये के जुर्माने के साथ यह भी आदेश दिया है कि 2 माह में मकान खाली करा दी जाये तो वहाँ भी ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील की जा सकती है।कुछ मामलो में अभियुक्त के दोषी होने के अभिवचन पर अपील न करना
धारा 375 के अनुसार जहां अभियुक्त के दोषी होने के अभिवचन पर दोषसिद्धि हुआ है वहाँ अपील: यदि दोषसिद्धि उच्च न्यायालय द्वारा हुई है तो कोई अपील नहीं होगी। यदि दोषसिद्धि सेशन न्यायालय, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग, न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वितीय वर्ग द्वारा हुई है तो अपील दण्ड के परिणाम या उसकी वैधता के बारे में हो सकती है। यदि अभियुक्त ने दोषी होने का अभिवचन नही किया है किन्तु साक्ष्य के पश्चात धारा 313 के अधीन पूछने पर सब तथ्य को मान लिया है तो यह दोषी होने का अभिवचन नही माना जाएगा2. दंडादेश के विरूद्ध अपील
इसके अंतर्गत राज्य किसी भी ऐसे मामले में, जहाँ उसे लगता हो कि दोषी को कम सजा मिली है, अथवा जरुरत से कम सजा मिली है या उसकी सजा उपयुक्त नहीं है, ऐसे दोषी की सजा को बढाने के लिए अपील कर सकता है (लोक अभियोजक को निर्देश देकर यह अपील की जाएगी)। इसके लिए जरुरी नियम धारा 377 में बताये गए हैं। राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के अलावा किसी भी अदालत द्वारा किये गए विचरण में सजा के मामले में, लोक अभियोजक को यह निर्देश दे सकती है कि वह अपनी अपर्याप्तता के आधार पर ऐसी सजा के खिलाफ अपील करे- अगर सजा मजिस्ट्रेट द्वारा दी गयी है तो, सत्र न्यायालय में
- अगर सजा किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित की गयी है तो उच्च न्यायालय में;
धारा 377 (1)
इसके अलावा जब अपर्याप्तता के आधार पर किसी सजा के खिलाफ अपील की जाती है तो सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा उस सजा को तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा, जबतक दोषी व्यक्ति को यह मौका न दिया जाए की वो सजा को बढ़ाने के खिलाफ कारण बताये और ऐसा करते हुए वह दोषी व्यक्ति या तो दोषमुक्ति के लिए, या अपनी सजा को कम करने की गुजारिश अदालत से कर सकता है;धारा 377 (3)
यह ध्यान देने योग्य बात है कि सजा की अपर्याप्तता के आधार पर अपील करने का अधिकार केवल राज्य के पास होता है न की पीड़ित/पीड़िता को। हालाँकि पीड़ित/पीडिता या तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में रिविजन के अंतर्गत जा सकते हैं।3. दोषमुक्ति की दशा में अपील (धारा 378)
ऐसे मामले में जहाँ किसी अभियुक्त को दोष मुक्त कर दिया गया हो, तो उसके खिलाफ अपील कैसे, किस दशा में और किसके द्वारा की जा सकती है, इसके बारे में धारा 378 में नियम बताये गए हैं। दरअसल जिला मजिस्ट्रेट, किसी भी मामले में, लोक अभियोजक को एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध के संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए दोषमुक्ति के आदेश से सत्र न्यायालय में अपील पेश करने का निर्देश दे सकता है।- लाल सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1981 के वाद में यह कहा गया कि यह राज्य सरकार की अपनी कार्यपालिका शक्ति के अधीन कार्य है। उसके विरुद्ध अपील फाइल करने के लिए परमादेश जारी नही किया जा सकता है।
- स्टेट बनाम देवी सिंह, 1968 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि लोकसेवक द्वारा इस धारा के अंतर्गत की जाने वाली प्रत्येक अपील राज्य सरकार की अनुमति से ही दायर की जा सकेगी। यदि लोक अभियोजक ने राज्य सरकार के अनुमति के बिना ही अपील दायर की हो, तो ऐसी अपील प्रवर्तनीय नही होगी।
कुछ मामलों में अपील का विशेष अधिकार (धारा 380)
जब एक से अधिक व्यक्तियों को एक विचरण में दोषी ठहराया जाता है, और ऐसे किसी भी व्यक्ति के संबंध में एक अपील योग्य निर्णय या आदेश पारित किया गया है (यानी यह तय किया गया है की वह व्यक्ति अपील कर सकता है), तो ऐसे विचरण में दोषी ठहराए गए सभी या किसी भी व्यक्ति का अपील का अधिकार होगा।अपील पेश करने का तरीका
धारा 382 के अनुसार जो व्यक्ति अपील करना चाहता है वह स्वयं या अपने अधिवक्ता के माध्यम से अपील कर सकता है और निर्णय या आदेश की प्रमाणित प्रति लगाएगा लेकिन अगर अपील न्यायालय ने इजाजत दी है तो प्रतिलिपि लगाने की आवश्यकता नही होती है।धारा 383 के अनुसार यदि अपीलार्थी जेल में है तो वह अपनी अपील जेल के भारसाधक अधिकारी को दे सकता है और जेल का भारसाधक अधिकारी अपील न्यायालय को अपील भेज देगा। जिस दिन वह भारसाधक अधिकारी को अपील देगा उसी दिन अपील मान ली जायेगी। इसको जेल अपील भी कहा जाता हैं।
अपील की सुनवाई
संक्षेपतः सुनवाई धारा 384 अपील न्यायालय अपील की अर्जी और साथ में भेजे गये आदेश व निर्णय की कॉपी पर विचार करेगा यदि वह समझता है कि इसमें कोई सही कारण नही है तो वह अपील को संक्षेपतः खारिज करेगा। ख़ारिज करने से पूर्व वह अपीलार्थी या उसके अधिवक्ता को सुने जाने का अवसर प्रदान करेगा। यदि अपीलार्थी ने जेल से अपील किया है तो निम्न स्थिति में उसे बुलाकर सुनने की आवश्यकता नही होगी- जब अपील तुच्छ है।
- जब उसे न्यायालय में पेश करने में अत्यधिक असुविधा है।
संक्षेपतः खारिज न की गयी अपीलों की सुनवाई के लिए प्रक्रिया (धारा 385)
सुनवाई की सूचना
यदि अपील न्यायालय अपील को संक्षिप्ततः खारिज नही करता है तो वह उस समय व स्थान की, जब और जहां ऐसी अपील सुनी जानी है, सूचना निम्न को देगा:-- अपीलार्थी या उसके वकील को।
- ऐसे अधिकारी को जिसे राज्य सरकार ने इस कार्य के लिए नियुक्त किया है।
- परिवादी को यदि परिवाद पर संस्थित मामले में दोषसिद्धि के निर्णय के विरुद्ध अपील की गयी है।
- यदि अपील अपर्याप्त दण्ड व दोषमुक्ति के आधार पर दी गयी है तो अभियुक्त को।
अतिरिक्त साक्ष्य लेना धारा 391
यदि अपील न्यायालय की यह राय है कि मामले में अतिरिक्त साक्ष्य लेने की आवश्यकता है, तो वह कारण लिखते हुए अतिरिक्त साक्ष्य लेने का आदेश दे सकता है। अतिरिक्त साक्ष्य वह स्वयं अपने न्यायालय में ले सकता है या अपने अधीनस्थ न्यायालय को साक्ष्य लेने के लिए निदेश दे सकता है। उच्च न्यायालय ऐसा आदेश सेशन न्यायालय या मजिस्ट्रेट को दे सकता है। अभियुक्त या उसके अधिवक्ता को अतिरिक्त साक्ष्य लेते समय उपस्थित रहने का अधिकार है। इसलिए साक्ष्य आरम्भ करने से पहले उसे सूचना दी जानी चाहिए। साक्ष्य उसी प्रकार लिया जाएगा जैसे जांच के दौरान लिया जाता है। गुजरात राज्य बनाम मोहन लालके वाद में कहा गया कि जहां विशेषज्ञ की रिपोर्ट दाखिल की गयी है वहाँ उसको औपचारिक रूप से सिद्ध करने के लिए अतिरिक्त साक्ष्य पेश करने की अनुमति दी जा सकती है। जाहिरा हबीबुल्लाह एच. शेख बनाम गुजरात राज्य (बेस्ट बेकरी वाद) इस वाद में अपील न्यायालय ने अतिरिक्त साक्ष्य पेश करने की अनुमति दी थी।अपील न्यायालय की शक्तियाँ धारा 386
यदि अपील न्यायालय यह समझता है कि अपील में कोई आधार नही है तो वह अपील को ख़ारिज कर सकता हैअथवा
- दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध अपील में आदेश को उलट सकता है और निदेश दे सकता है कि इसमें अतिरिक्त जांच की जाये तथा मामला पुनः विचारण के लिए भेज सकता है या दोषी ठहराकर उचित दण्ड दे सकता है।
- दोषसिद्धि के आदेश के विरुद्ध अपील में वह विचारण न्यायालय के आदेश को उलट अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है या दण्ड को कायम रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है या दण्ड के स्वरूप या परिणाम में परिवर्तन कर सकता है परन्तु इस प्रकार नही कर सकता कि दण्ड में वृद्धि हो जाये।
- दण्ड में वृद्धि के लिए अपील में दोषसिद्धि के आदेश के विरुद्ध अपील में जो शक्तियों का प्रयोग अपील न्यायालय करता है, उन्ही शक्तियों का प्रयोग करेगा लेकिन अपील न्यायालय उससे ज्यादा दण्ड नही दे सकता है जो विचारण न्यायालय उस पक्षकार के लिए दे सकता है।
- किसी अन्य आदेश के विरुद्ध अपील में ऐसे आदेश को पलट सकता है या परिवर्तन कर सकता है।
- कोई संशोधन या कोई पारिणामिक या आनुसंगिक आदेश जो न्यायसंगत या उचित हो, दे सकता है।
- बाराती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालयको उस साक्ष्य का, जिसपर दोषमुक्ति का आदेश आधारित है पूर्ण रूप से पुनरीक्षण करने और इस निष्कर्ष पर पहुचने की पूरी शक्ति है कि साक्ष्य के आधार पर दोषमुक्ति का आदेश उलट दिया जाये।
- अंतार सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्यके वाद में कहा गया कि उच्च न्यायालय विचारण के निष्कर्षो को दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में तभी उलट सकता है जब वह उन सब परिस्थितियों को दूर कर दे जिन्हें विचारण न्यायालय ने अपने निर्णय का आधार माना है निर्णय को केवल इस आधार पर नही उल्टा जा सकता कि उसी साक्ष्य पर उच्च न्यायालय ने भिन्न मत अपनाया है।
अधीनस्थ अपील न्यायालय के निर्णय धारा 387
आरंभिक अधिकारिता वाले दण्ड न्यायालय के निर्णय के बारे में अध्याय 27 में अंतर्विष्ट नियम, जहां तक साध्य हो, सेशन न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय के अपील में दिए गये निर्णयों को लागू होगा। परन्तु निर्णय दिया जाना सुनने के लिए अभियुक्त को न तो लाया जाएगा और न उससे हाजिर होने की अपेक्षा की जायेगी जब तक कि अपील न्यायालय अन्यथा निदेश न दे।अपील में उच्च न्यायालय के आदेश को प्रमाणित करके निचले न्यायालय को भेजा जाना धारा 388
इस धारा में यह उपबंधित है कि उच्च न्यायालय अपील में दिए गये अपने निर्णय या आदेश को प्रमाणित करके उस अधीनस्थ न्यायालय को भेजेगा जिसके निष्कर्ष, आदेश या निर्णय के विरुद्ध अपील की गयी थी।अपील लंबित रहने तक दण्डादेश का निलंबन
अपीलार्थी का जमानत पर छोड़ा जाना धारा धारा 389
इस धारा में यह उपबंधित है कि अपील लंबित रहने तक दण्डादेश को निलंबित रखते हुए अपीलार्थी को जमानत पर छोड़ा जाएगा। उपधारा (1) के अधीन इस शक्ति का प्रयोग केवल अपीलीय न्यायालय ही कर सकता है तथा इस धारा के भावाबोध में उच्चतम न्यायालय अपीलीय न्यायालय नही है। उपधारा (1) के परन्तुक के अनुसार अपील न्यायालय ऐसे दोषसिद्ध व्यक्ति को जो मृत्यु या आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अन्यून अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया है, जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ने से पूर्व, लोक अभियोजक को ऐसे छोड़ने के विरुद्ध लिखित में कारण दर्शाने का अवसर देगा। परन्तु यह और कि ऐसे मामलों में जहां दोषसिद्ध व्यक्ति को जमानत पर छोड़ा जाता है वहाँ लोक अभियोजक जमानत रद्द किये जाने के लिए आवेदन फाइल कर सकेगा। इस धारा के अधीन दोषसिद्धि के बाद अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने की अपीलीय न्यायालय की शक्ति यद्यपि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती है फिर भी वह अध्याय 33 में वर्णित दोषसिद्धि के पूर्व जमानत पर छोड़े जाने इतनी विस्तृत नही है।दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध अपील में अभियुक्त की गिरफ्तारी धारा 390
जब धारा 378 के अधीन अपील पेश की जाती है तो उच्च न्यायालय वारण्ट जारी कर सकता है और यह निदेश दे सकता है कि अभियुक्त को गिरफ्तार किया जाये और उसके या किसी अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष लाया जाये और वह न्यायालय जिसके समक्ष अभियुक्त लाया जाता है अपील का निपटारा होने तक उसे कारागार में सुपुर्द कर देगा या उसकी जमानत ले सकता है।विचारण के निर्णय के बाद अपील करने में समय लगता है। जहां दोनों न्यायालय एक ही स्थान पर हैं वहाँ अधिक कठिनाई नही होती, फिर भी थोडा बहुत समय अपील में लग ही जाता है वही जहां अपील न्यायालय किसी दूर स्थान पर है वहाँ अपील करके जमानत का आदेश लाने में काफी समय लगता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए विचारण न्यायालय को उस समय तक, जब तक अपील हो सके, जमानत देने की शक्ति प्राप्त है। पुरानी संहिता में वह केवल अजमानतीय अपराध के लिए थी परन्तु वर्तमान समय में इसके क्षेत्र को विस्तृत कर दिया गया है।
जो चुमिनी चेट्टियार रामकृष्णन चेट्टियार बनाम केरल राज्य, 1988 के वाद में यह अवधारित किया गया कि इससे पहले कि अपील न्यायालय किसी अपीलार्थी को जमानत पर छोड़ने का आदेश दे, अपील विचारार्थ स्वीकार कर लेने चाहिए। यदि अपील देर से फाइल की गयी है तो जब तक देरी को माफ़ करने के आवेदन का निपटारा नही हो जाता तब तक जमानत पर छोड़ने का आदेश देना न्यायोचित नही है।
हरभजन सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1977 जमानत देते समय अपील न्यायालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपील की सुनवाई कितने समय बाद होगी। यदि अपील की सुनवाई में इतना समय लगने की संभावना हो कि अपीलार्थी को मिलने वाले दण्ड का अधिकांश भाग भुगतना पड़ जाये तो वह उसके साथ बड़ा अन्याय होगा।
जहां अपील न्यायालय के न्यायाधीश राय के बारे में सामान रूप से विभाजित हों, वहाँ प्रक्रिया धारा 392
इस धारानुसार जब अपीलीय न्यायालय के न्यायाधीशों की राय समान रूप से विभाजित हो, तो अपील उन न्यायाधीशों की राय के साथ किसी तीसरे न्यायाधीश के समक्ष रखी जायेगी तथा ऐसा न्यायाधीश समुचित सुनवाई के बाद अपनी राय देगा जो उस मामले का निर्णय होगा। परन्तु यदि तीसरा न्यायाधीश चाहे, तो मामले को वृहद खण्डपीठ द्वारा निपटाए जा सकने की राय दे सकता है। तब वह अपील वृहद खण्डपीठ द्वारा पुनः सुनी जायेगी और विनिश्चित की जायेगी।अपील पर आदेशों और निर्णयों का अंतिम होना धारा 393
अपील में अपील न्यायालय द्वारा पारित निर्णय या आदेश धारा 377, धारा 378, धारा 384की उपधारा (4) या अध्याय 30में उपबंधित दशाओं के सिवाय अंतिम होंगे: परन्तु किसी मामले में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील का अंतिम निपटारा हो जाने पर भी, अपील न्यायालय: क. धारा 378 के अधीन दोषमुक्ति के विरुद्ध किसी मामले से पैदा होने वाली अपील को; अथवा ख. धारा 377 के अधीन दण्डादेश में वृद्धि के लिए उसी मामले से पैदा होने वाली अपील को, सुन सकता है और गुणावगुण के आधार पर उसका निपटारा कर सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपील में अपील न्यायालय ने जो आदेश या निर्णय दिया है, वह निचे बताई गई दशाओं को छोड़कर अंतिम होगा:-- पुनर्विलोकन द्वारा: पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायालयों को संहिता की धारा 362 के अनुसार इतनी ही है कि वह लिपिकीय या गणितीय भूल सुधार सकते हैं।
- धारा 377 के अधीन अपील: इस धारा के अंतर्गत दण्ड के अपर्याप्तता के विरुद्ध अपील की जा सकती है। वैसे यह धारा केवल विचारण न्यायालयों के दंदादेशों के विरुद्ध लागू होती है। अपील न्यायालय के दण्डादेश के विरुद्ध अपर्याप्त दण्ड के कारण अपील नही की जा सकती है।
- धारा 378 के अधीन अपील: इसके अनुसार अपील न्यायालय के दोषमुक्ति के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। जेल अपील खारिज होने पर नियमित अपील की सुनवाई: कभी-कभी कोई अपराधी जेल के भारसाधक अधिकारी द्वारा तथा वकील द्वारा नियमित अपील कर देता है तब यदि जेल अपील संक्षेपतः खारिज भी हो गयी हो तब भी यदि अपील न्यायालय न्याय के हित में उचित समझे तो नियमित अपील पर विचार कर सकता है।
- पुनरीक्षण द्वारा: अध्याय 30 में सेशन या उच्च न्यायालय को अधीनस्थ दाण्डिक न्यायालयों के आदेशों और निर्णयों के विरुद्ध पुनरीक्षण करके उचित आदेश देने की शक्ति मिली है। इसलिए अपील न्यायालयों के आदेशों के विरुद्ध पुनरीक्षण की कार्यवाही सेशन या उच्च न्यायालय में हो सकती है। द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट के आदेशों के विरुद्ध अपील केवल सहायक सेशन न्यायाधीश और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ही सुन सकते हैं। इसलिए इनके अपील आदेशों के विरुद्ध पुनरीक्षण सेशन न्यायालय में हो सकता है किसी अन्य उच्च न्यायालय में नही हो सकता। बाहेर सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1981 के वाद में यह मत व्यक्त किया गया कि जब अपील का निर्णय अंतिम हो जाता है तब वह अभियुक्त पर आबद्धकर होगा। वह उसकी वैधता को बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट (habeas corpus writ) फाइल करके ही चुनौती दे सकता है।
- अपीलों का उपशमन धारा 394: यदि अभियुक्त या अपीलार्थी की मृत्यु हो जाती है तो यह प्रश्न उठता है कि क्या उसके विरुद्ध की गयी अपील या उसके द्वारा फाइल की गयी अपील समाप्त हो जायेगी। धारा 377 तथा 378 के अधीन अपील के मामले में अभियुक्त की मृत्यु हो जाने की दशा में अपील का अंतिम रूप से उपशमन हो जाएगा। इसी प्रकार अध्याय 29 के अधीन जुर्माने के दण्ड के विरुद्ध की गयी अपील के सिवाय प्रत्येक अन्य अपील में अपीलार्थी की मृत्यु हो जाने पर अपील का अंतिम रूप से उपशमन हो जाएगा।
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