20+ बेस्ट मुर्शिद शायरी

दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे
हमको फ़रियाद करनी आती है
आप सुनते नहीं तो क्या कीजे

बिजली इक कांद गई आँखों के आगे तो क्या,  बात करते कि मैं लव तश्नये-तक़दीर भी था।  पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिए पर नाहक,  आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था।


बिजली इक कांद गई आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लव तश्नये-तक़दीर भी था।
पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिए पर नाहक,
आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था।

इन बुतों को ख़ुदा से क्या मतलब
तौबा तौबा ख़ुदा ख़ुदा कीजे
रंज उठाने से भी ख़ुशी होगी
पहले दिल दर्द आशना कीजे
अर्ज़-ए-शोख़ी निशात-ए-आलम है
हुस्न को और ख़ुदनुमा कीजे
दुश्मनी हो चुकी बक़द्र-ए-वफ़ा
अब हक़-ए-दोस्ती अदा कीजे
मौत आती नहीं कहीं, ग़ालिब
कब तक अफ़सोस जीस्त का कीजे


यूं हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं
तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं

आज फिर इस दिल में बेक़रारी है
सीना रोए ज़ख्म-ऐ-कारी है
फिर हुए नहीं गवाह-ऐ-इश्क़ तलब
अश्क़-बारी का हुक्म ज़ारी है
बे-खुदा , बे-सबब नहीं , ग़ालिब
कुछ तो है जिससे पर्दादारी है

दुःख दे कर सवाल करते हो
तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो
देख कर पूछ लिया हाल मेरा
चलो कुछ तो ख्याल करते हो
शहर-ऐ-दिल में उदासियाँ कैसी
यह भी मुझसे सवाल करते हो
मरना चाहे तो मर नहीं सकते
तुम भी जिना मुहाल करते हो
अब किस किस की मिसाल दू मैं तुम को
हर सितम बे-मिसाल करते हो

पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के, ग़ालिब  या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है।


पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के, ग़ालिब
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है।

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो में पिए होते
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिए होते
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिए होते

सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है
देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है

मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना
मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के मकान अपना

हर एक बात पे कहते हो तुम कि ‘तू क्या है’
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में ‘ग़ालिब; की आबरू क्या है


ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के
ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये
हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के
शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर
देखिए कब दिन फिरें हम्माम के
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक
दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक
आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब‌
दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन‌
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक
परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक
गम-ए-हस्ती का ‘असद’ कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

तू वो जो जालिम है जो दिल में कर भी मेरा न बन सका, ग़ालिब  और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया।


तू वो जो जालिम है जो दिल में कर भी मेरा न बन सका, ग़ालिब
और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया।

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही
क़त्अ कीजे, न तअल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही
मेरे होने में है क्या रुसवाई
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत ही सही
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही
हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैं
ना सही इश्क़, मुसीबत ही सही
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाए ‘असद’
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही

मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तेहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में
कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में
शब हाए हिज्र को भी रखूँगा हिसाब में
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में
क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ वो जो लिखेंगे जवाब में
मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में
लाखों लगाव एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव एक बिगड़ना इताब में
ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले
मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकले
हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों
जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों
क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों
वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों
हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों
‘ग़ालिब’-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

इस नजाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या  हाथ आएं तो उन्हें हाथ लगाए न बने  कह सके कौन है यह जलवागरी किस  पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने।


इस नजाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आएं तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन है यह जलवागरी किस
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने।

वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ
को शब ओ रोज़ ओ माह ओ साल कहाँ
फुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक किसे
ज़ौक-ए-नज़ारा-ए-ज़माल कहाँ
दिल तो दिल वो दिमाग भी ना रहा
शोर-ए-सौदा-ए-खत्त-ओ-खाल कहाँ
थी वो इक शख्स की तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ
ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ
हमसे छूटा किमारखाना-ए-इश्क
वाँ जो जावे गिरह में माल कहाँ
फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ
मुज़महिल हो गए कवा ग़ालिब
वो अनासिर में एतिदाल कहाँ
बोसे में वो मुज़ाइक़ा न करे
पर मुझे ताक़ते सवाल कहाँ

ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतजार होता
तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर ना जाते, अगर ‘ऐतबार’ होता
तेरी नाज़ुकी से जाना के बँधा था ‘एहेद-ए-बोधा’
कभी तू ना तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम कश को
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई गम-गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता, वो लहू की फिर ना थमता
जिसे गम समझ रहे हो, ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जान-गुलिस हैं , पे कहाँ बचें के दिल हैं
ग़म-ए-इश्क़ गर ना होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं के क्या हैं शब-ए-ग़म बुरी बला हैं
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता के यगान हैं वो यक्ता
जो दूई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता


ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते, जो ना बादा-ख्वार

दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं ज़ंजीर से भागेंगे क्यूँ
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िंदाँ से घबरावेंगे क्या
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त असद
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

सबने पहना था बड़े शौक से कागज का लिबास  जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले  अदल के तुम न हमें आस दिलाओ  क़त्ल हो जाते हैं, जंजीर हिलाने वाले


सबने पहना था बड़े शौक से कागज का लिबास
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले
अदल के तुम न हमें आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं, जंजीर हिलाने वाले

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
याद थी हमको भी रन्गा रन्ग बज़्माराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं
थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियाँ हो गईं
क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं
सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलैख़ा ख़ुश के मह्व-ए-माह-ए-कनाँ हो गईं
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा के शमएं हो फ़रोज़ाँ हो गईं
इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं
नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परिशाँ हो गईं
मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुल-बुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं
वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्श्गाँ हो गईं
बस कि रोका मैं ने और सीने में उभरें पै ब पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं
वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दर्बाँ हो गईं
जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं
हम मुवहिहद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गैइं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं
रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं
यूँ ही गर रोता रहा ‘ग़ालिब’, तो अए अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं

मुद्‌दत हुई है यार को मिह्‌मां किये हुए
जोश-ए क़दह से बज़्‌म चिराग़ां किये हुए
कर्‌ता हूं जम`अ फिर जिगर-ए लख़्‌त-लख़्‌त को
`अर्‌सह हुआ है द`वत-ए मिज़ह्‌गां किये हुए
फिर वज़`-ए इह्‌तियात से रुक्‌ने लगा है दम
बर्‌सों हुए हैं चाक-ए गरेबां किये हुए
फिर गर्‌म-ए नालह्‌हा-ए शरर-बार है नफ़स
मुद्‌दत हुई है सैर-ए चिराग़ां किये हुए
फिर पुर्‌सिश-ए जराहत-ए दिल को चला है `इश्‌क़
सामान-ए सद-हज़ार नमक्‌दां किये हुए
फिर भर रहा हूं ख़ामह-ए मिज़ह्‌गां ब ख़ून-ए दिल
साज़-ए चमन-तराज़ी-ए दामां किये हुए
बा-हम-दिगर हुए हैं दिल-ओ-दीदह फिर रक़ीब
नज़्‌ज़ारह-ए जमाल का सामां किये हुए
दिल फिर तवाफ़-ए कू-ए मलामत को जाए है
पिन्‌दार का सनम-कदह वीरां किये हुए
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
`अर्‌ज़-ए मत`-ए `अक़्‌ल-ओ-दिल-ओ-जां किये हुए
दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लालह पर ख़ियाल
सद गुल्‌सितां निगाह का सामां किये हुए
फिर चाह्‌ता हूं नामह-ए दिल्‌दार खोल्‌ना
जां नज़्‌र-ए दिल-फ़रेबी-ए `उन्‌वां किये हुए
मांगे है फिर किसी को लब-ए बाम पर हवस
ज़ुल्‌फ़-ए सियाह रुख़ पह परेशां किये हुए
चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आर्‌ज़ू
सुर्‌मे से तेज़ दश्‌नह-ए मिज़ह्‌गां किये हुए
इक नौ-बहार-ए नाज़ को ताके है फिर निगाह
चह्‌रह फ़ुरोग़-ए मै से गुलिस्‌तां किये हुए
फिर जी में है कि दर पर किसी के पड़े रहें
सर ज़ेर-बार-ए मिन्‌नत-ए दर्‌बां किये हुए
जी ढूंड्‌ता है फिर वही फ़ुर्‌सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्‌वुर-ए जानां किये हुए
ग़ालिब हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए अश्‌क से
बैठे हैं हम तहीयह-ए तूफ़ां किये हुए

मेह वो क्यों बहुत पीते बज्म-ऐ-गैर में या रब आज ही  हुआ मंजूर उन को इम्तिहान अपना  मंजर इक बुलंदी पर और हम बना सकते  ग़ालिब अर्श से इधर होता काश के मकान अपना।


मेह वो क्यों बहुत पीते बज्म-ऐ-गैर में या रब आज ही
हुआ मंजूर उन को इम्तिहान अपना
मंजर इक बुलंदी पर और हम बना सकते
"ग़ालिब" अर्श से इधर होता काश के मकान अपना।

नुक्‌तह-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
क्या बने बात जहां बात बनाए न बने
मैं बुलाता तो हूं उस को मगर अय जज़्‌बह-ए दिल
उस पह बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने
खेल सम्‌झा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए
काश यूं भी हो कि बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिर्‌ता है लिये यूं तिरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि यह क्या है तो छुपाए न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो वह भले हैं तो क्‌या
हाथ आवें तो उंहें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन कि यह जल्‌वह-गरी किस की है
पर्‌दह छोड़ा है वह उस ने कि उठाए न बने
मौत की राह न देखूं कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूं कि न आओ तो बुलाए न बने
बोझ वह सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने
`इश्‌क़ पर ज़ोर नहीं है यह वह आतिश ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है  बस नहीं चलता कि फिर खंजर काफ-ऐ-कातिल में है।  देखना तकदीर के लज्जत की जो उसने कहा  मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।


सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर खंजर काफ-ऐ-कातिल में है।
देखना तकदीर के लज्जत की जो उसने कहा
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।

इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
शरअ ओ आईन पर मदार सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई
चाल जैसे कड़ी कमान का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई
बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
किस की हाजत रवा करे कोई
क्या किया ख़िज़्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
जब तवक़्क़ो ही उठ गई ग़ालिब
क्यूँ किसी का गिला करे कोई

तुम न आये तो क्या सहर न हुई,  हाँ मगर चैन से बसर न हुई।  मेरा नाला सुना जमाने ने,  एक तुम हो जिसे खबर न हुई।


तुम न आये तो क्या सहर न हुई,
हाँ मगर चैन से बसर न हुई।
मेरा नाला सुना जमाने ने,
एक तुम हो जिसे खबर न हुई।

ज़ुल्‌मत-कदे में मेरे शब-ए ग़म का जोश है
इक शम`अ है दलील-ए सहर सो ख़मोश है
ने मुज़ह्‌दह-ए विसाल न नज़्‌ज़ारह-ए जमाल
मुद्‌दत हुई कि आश्‌ती-ए चश्‌म-ओ-गोश है
मैने किया है हुस्‌न-ए ख़्‌वुद-आरा को बे-हिजाब
अय शौक़ हां इजाज़त-ए तस्‌लीम-ए होश है
गौहर को `उक़्‌द-ए गर्‌दन-ए ख़ूबां में देख्‌ना
क्या औज पर सितारह-ए गौहर-फ़रोश है
दीदार बादह हौस्‌लह साक़ी निगाह मस्‌त
बज़्‌म-ए ख़याल मै-कदह-ए बे-ख़रोश है
अय ताज़ह-वारिदान-ए बिसात-ए हवा-ए दिल
ज़िन्‌हार अगर तुम्‌हें हवस-ए नै-ओ-नोश है
देखो मुझे जो दीदह-ए `इब्‌रत-निगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए नसीहत-नियोश है
साक़ी ब जल्‌वह दुश्‌मन-ए ईमान-ओ-आगही
मुत्‌रिब ब नग़्‌मह रह्‌ज़न-ए तम्‌कीन-ओ-होश है
या शब को देख्‌ते थे कि हर गोशह-ए बिसात
दामान-ए बाग़्‌बान-ओ-कफ़-ए गुल-फ़रोश है
लुत्‌फ़-ए ख़िराम-ए साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए सदा-ए चन्‌ग
यह जन्‌नत-ए निगाह वह फ़िर्‌दौस-ए गोश है
या सुब्‌ह-दम जो देखिये आ कर तो बज़्‌म में
ने वह सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है
दाग़-ए फ़िराक़-ए सुह्‌बत-ए शब की जलि हुई
इक शम`अ रह गई है सो वह भी ख़ामोश है
आते हैं ग़ैब से यह मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए ख़ामह नवा-ए सरोश है

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है
मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दा क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा-ए- ख़ुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़मजा-ओ-`इशवा- ओ-अदा क्या है
शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्यों है
निगह-ए-चश्म-ए-सुर्मा सा क्या है
सबज़ा-ओ-गुल कहाँ से आये हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हाँ भला कर तेरा भला होगा
और दर्वेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैंने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है

कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं,  इस तीर मेरे सीने में मारा के हाय-हाय।


कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं,
इस तीर मेरे सीने में मारा के हाय-हाय।

रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी
थे ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए
रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम
बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए
पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए
करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक् ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
इस रंग से उठाई कल उसने ‘असद’ की नाश
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए

वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां
वह शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहां
फ़ुर्‌सत-ए कारोबार-ए शौक़ किसे
ज़ौक़-ए नज़्‌ज़ारह-ए जमाल कहां
दिल तो दिल वह दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए सौदा-ए ख़त्‌त-ओ-ख़ाल कहां
थी वह इक शख़्‌स के तसव्‌वुर से
अब वह र`नाई-ए ख़याल कहां
ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहां
हम से छूटा क़िमार-ख़ानह-ए `इश्‌क़
वां जो जावें गिरिह में माल कहां
फ़िक्‌र-ए दुन्‌या में सर खपाता हूं
मैं कहां और यह वबाल कहां
मुज़्‌महिल हो गए क़ुवा ग़ालिब
वह `अनासिर में इ`तिदाल कहां

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया
दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नज़र याद आया
उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्‌द में गर याद आया
आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया
फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद् आया
कोई वीरानी-सी-वीराँई है
दश्त को देख के घर याद आया
मैंने मजनूँ पे लड़कपन में ‘असद’
संग उठाया था के सर याद आया

बुए-गुल, नाला-ए-दिल, टूटे चिरागे महफ़िल,  जो तेरी बज्म से निकला सो परेशां निकला।  चंद तश्वीरें-बुताँ चंद हसीनों के खुतूत,  बाद मरने के मरे घर से समां निकला।


बुए-गुल, नाला-ए-दिल, टूटे चिरागे महफ़िल,
जो तेरी बज्म से निकला सो परेशां निकला।
चंद तश्वीरें-बुताँ चंद हसीनों के खुतूत,
बाद मरने के मरे घर से समां निकला।

फिर कुछ इस दिल् को बेक़रारी है
सीना ज़ोया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है
फिर जिगर खोदने लगा नाख़ून
आमद-ए-फ़स्ल-ए-लालाकारी है
क़िब्ला-ए-मक़्सद-ए-निगाह-ए-नियाज़
फिर वही पर्दा-ए-अम्मारी है
चश्म-ए-दल्लल-ए-जिन्स-ए-रुसवाई
दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्बारी है
वही सदरंग नाला फ़र्साई
वही सदगूना अश्क़बारी है
दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से फिर
महश्रिस्ताँ-ए-बेक़रारी है
जल्वा फिर अर्ज़-ए-नाज़ करता है
रोज़-ए-बाज़ार-ए-जाँसुपारी है
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है

आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ के तुझसा कहें जिसे
हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़्याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवेदा कहें जिसे
फूँका है किसने गोशे मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे
सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डलिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक के सहरा कहें जिसे
है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़ता दरिया कहें जिसे
दरकार है शिगुफ़्तन-ए-गुल हाये ऐश को
सुबह-ए-बहार पंबा-ए-मीना कहें जिसे
‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये
ये ज़िद्, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है, क्या कहिये
रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये
ज़िह-ए-करिश्म के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उंहें सब ख़बर है, क्या कहिये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये
उंहें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है, क्या कहिये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है, क्या कहिये
कहा है किसने कि ‘ग़ालिब’ बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये
 
मॉडरेटर द्वारा पिछला संपादन:

सम्बंधित टॉपिक्स

सदस्य ऑनलाइन

अभी कोई सदस्य ऑनलाइन नहीं हैं।

हाल के टॉपिक्स

फोरम के आँकड़े

टॉपिक्स
1,845
पोस्ट्स
1,886
सदस्य
242
नवीनतम सदस्य
Ashish jadhav
Back
Top