हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत विवाह विच्छेद (तलाक) | Divorce under the Hindu Marriage Act 1955

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत विवाह विच्छेद (तलाक) | Divorce under the Hindu Marriage Act 1955


विवाह की नींव आपसी विश्वास है, यदि नींव ही टूट जाये तो विवाह एक जर्जर ढांचा मात्र रह जायेगा। अतः विश्वास टूटने पर यही उचित है कि वे उसी स्वतन्त्रता से विवाह-विच्छेद कर लें जिस स्वतन्त्रता से उन्होंने विवाह किया था। आपसी विश्वास को स्थापित रखने का अन्य कोई साधन नहीं है। पारम्परिक अनुमति द्वारा विवाह-विच्छेद एक असहनीय परिस्थिति का प्रतिग्रहण है। विधि अभागे युगल से कहती है-“यदि तुम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हो कि तुम्हारा विवाह असफल हो गया है और विवाह-विच्छेद ही इस स्थिति से उबरने का एकमात्र मार्ग है, तो तुम विवाह-विच्छेद कर सकते हो।”


विवाह-विच्छेद, जिसे तलाक कह सकते है। शादी के उपरांत जीवन साथी को छोड़ने के लिए सामान्यतः 2 शब्दों का प्रयोग किया जाता है; 1-Divorce (अंग्रेजी) 2-तलाक (उर्दू) वास्तव में हिन्दू धर्म मे विवाह विच्छेद जैसा शब्द कही नही मिलता है। हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह किया जाता है तो पति-पत्नी के बीच किसी भी तरह अलग होने का कोई प्रावधान नहीं है अगर तुमने मैरिज़ की होती तो तुम डाइवोर्स ले सकते थे अगर तुमने निकाह किया होता तो तुम तलाक ले सकते थे लेकिन तुमने विवाह किया है तो, इसका मतलब ये हुआ कि हिंदू धर्म और हिंदी में कहीं भी पति-पत्नी के एक हो जाने के बाद अलग होने का कोई प्रावधान है ही नहीं। “हिन्दी एक भाषा ही नहीं – संस्कृति है” “हिन्दू भी धर्म नही – सभ्यता है” हिन्दू विधि में विशेष परिस्थितियों में विवाह विच्छेद के प्रावधान मिलते हैं।

विवाह विच्छेद का सामान्य अर्थ​

वह अवस्था जिसमें पुरुष और स्त्री अपना वैवाहिक सम्बन्ध तोड़कर एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। मानव-समाज द्वारा यह मानने पर कि विवाह एक अनुबन्ध है, यह तर्कसंगत ही था कि विवाह-विच्छेद को भी मान्यता दी जाये। विवाह के अनुबन्ध होने के साथ-साथ यह स्वीकार किया जाने लगा कि विवाह का विघटन भी हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि विवाह एक अनुबन्ध माना जाने लगा, फिर भी यह साधारण अनुबन्ध नहीं है; यह एक विशेष अनुबन्ध है। विवाह एक सामाजिक संस्था भी है। इस संस्था को बनाये रखने में ही समाज का हित है। यही कारण है कि संसार की सभी विधि-व्यवस्थाओं में विवाह को अनेक भांति के परित्राण दिये गये हैं, परिवार की सुरक्षा के प्रतिबन्ध किये गये हैं, और विवाहितों को सुविधायें दी गयी हैं। यदि विवाह विशेष अनुबन्ध है तो उसका विघटन साधारण अनुबन्ध की भांति नहीं हो सकता है। अतः प्रारम्भिक धारणा यह स्थापित हुयी कि विवाह-विच्छेद किन्हीं विशेष कारणों से ही हो सकता था। विवाह-विच्छेद की प्रारम्भिक विधि में बहुत कम कारणों को विवाह-विच्छेद का हेतु माना गया। उदाहरणार्थ, प्रारम्भिक अंग्रेजी विधि में जारकर्म, अभित्यजन और क्रूरता ही विवाह-विच्छेद के आधार माने गये थे।

विवाह विच्छेद का इतिहास​

वैदिक काल में, पुरुष के पक्ष में विवाह- विच्छेद के कुछ विशेष परिस्थितियां दी गई हैं। मनु,नारद, वृहस्पति और कौटिल्य आदि ने कुछ विकट परिस्थितियों में विवाह-विच्छेद को स्वीकारा है। मनु के अनुसार, स्त्री के बांझ होने, उसके बच्चे जीवित ना रहने या केवल लड़कियां ही होने अथवा स्त्री की झगड़ालू प्रवृत्ति होने पर पुरुष को दूसरा विवाह करने की बात कही है।

वैदिक काल में स्त्री के पक्ष में विवाह- विच्छेद करने की परिस्थितियां: पति के जीवित रहते दूसरा विवाह करने वाली स्त्री को “पुनर्भू” कहा जाता है। परंतु यदि पति दूश्चरित्र हो, बहुत समय से विदेश में हो, अपने बंधु-बांधव के प्रति कृतज्ञ्न हो, जाति से बहिष्कृत कर दिया गया हो, पुरुषत्वहीन हो या उससे पत्नी के जीवन को संकट उत्पन्न हो सकता है ऐसी परिस्थिति में पति को त्यागने की बात की गई है।

हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 के पारित होने के बाद हिन्दू धर्म से शासित होने वाले हिन्दुओ के मध्य इस अधिनियम के पारित होने के पूर्व या पश्चात सम्पन्न हुए विवाह को धारा 13 में दिये गये प्रावधानों एवम आधारों के अनुसार विवाह विच्छेद की डिक्री दम्पति में से किसी एक के द्वारा जिला न्यायलय पेश याचिका के आधार पर पारित की जा सकती हैं। धारा 10 न्यायिक पृथक्करण एवम विवाह विच्छेद के लिए एक ही आधार है जिनके अनुसार न्यायलय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करे या विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करे ऐसा मामला के आधार पर ओर परिस्थितियों के अनुसार किया जा सकता है। धारा 23 के अध्यधीन रहते हुए ही याचिकाकर्ता को राहत दी जा सकती हैं क्योंकि याचिकाकर्ता अपनी गलती का लाभ नहीं ले सकता है किंतु विधिक प्रावधान के अनुसार याचिकाकर्ता को विवाह विघटन कराने का लाभ मिलता है तो वह लाभ ले सकता हैं।


AIR 1977 SC 2218 – हिन्दू विधि में सहमति से विवाह विच्छेद​

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 विवाह विच्छेद की व्यवस्था भी करता है। लेकिन इसमें विवाह के पक्षकारों की सहमति से विवाह विच्छेद की व्यवस्था 1976 तक नहीं थी। मई 1976 में एक संशोधन के माध्यम से इस अधिनियम में धारा 13-Aधारा 13-B जोड़ी गईं, तथा धारा 13-B में सहमति से विवाह विच्छेद की व्यवस्था की गई। धारा 13-B में प्रावधान किया गया है कि यदि पति-पत्नी एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे हैं तो वे यह कहते हुए जिला न्यायालय अथवा परिवार न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं कि वे एक वर्ष या उस से अधिक समय से अलग रह रहे है, उन का एक साथ निवास करना असंभव है और उन में सहमति हो गई है कि विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर विवाह को समाप्त कर दिया जाए।

प्रारंभिक हिन्दू विधि में तलाक या विवाह विच्छेद की कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं थी। हिन्दू विधि में विवाह एक बार हो जाने के बाद उसे खंडित नहीं किया जा सकता था। विवाह विच्छेद की अवधारणा पहली बार हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 से हिन्दू विधि में सम्मिलित हुई। वर्तमान में हिन्दू विवाह को केवल उन्हीं आधारों पर विखंडित किया जा सकता है।

धारा 13 – विवाह विच्छेद (Divorce)​

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाह विच्छेद की प्रक्रिया दी गई है जो कि हिंदू, बौद्ध, जैन तथा सिख धर्म को मानने वालों पर लागू होती है। इस अधिनियम की धारा-13 के तहत विवाह विच्छेद के निम्नलिखित आधार हो सकते हैं:

1. कोई विवाह, भले वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अनुष्ठित हुआ हो, या तो पति या पत्नी पेश की गयी याचिका पर तलाक की आज्ञप्ति द्वारा एक आधार पर भंग किया जा सकता है कि –

(I) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अपनी पत्नी या अपने पति से भिन्न किसी व्यक्ति , के साथ स्वेच्छया मैथुन किया है; या

(I-क) विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अर्जीदार के साथ क्रूरता का बर्ताव किया है; या

(I-ख) अर्जी के उपस्थापन के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष की कालावधि तक अर्जीदार को अभित्यक्त रखा है; या

(II) दूसरा पक्षकार दूसरे धर्म को ग्रहण करने से हिन्दू होने से परिविरत हो गया है, या

(III) दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृत-चित रहा है, लगातार या आन्तरायिक रूप से इस किस्म के और इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित रहा है कि अर्जीदार से युक्ति-युक्त रूप से आशा नहीं की जा सकती है कि वह प्रत्यर्थी के साथ रहे।

स्पष्टीकरण-इस खण्ड में

(क) “मानसिक विकार”
पद से मानसिक बीमारी, मस्तिष्क का संरोध या अपूर्ण विकास, मनोविकृति या मस्तिष्क का कोई अन्य विकार या निःशक्तता अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत विखंडित मनस्कता भी है;

(ख) “मनोविकृति” पद से मस्तिष्क का दीर्घ स्थायी विकार या निःशक्तता (चाहे इसमें वृद्धि की अवसामान्यता हो या नहीं) अभिप्रेत है जिसके परिणामस्वरूप दूसरे पक्षकार का आचरण असामान्य रूप से आक्रामक या गंभीर रूप से अनुत्तरदायी हो जाता है और चाहे उसके लिए चिकित्सीय उपचार अपेक्षित हो या नहीं अथवा ऐसा उपचार किया जा सकता हो या नहीं; या

(IV) [दूसरा पक्षकार] उम्र और असाध्य कुष्ठ से पीड़ित रहा है; या

(V) [दूसरा पक्षकार] संचारी रूप से रतिज रोग से पीड़ित रहा है; या

(VI) दूसरा पक्षकार किसी धार्मिक पंथ के अनुसार प्रव्रज्या ग्रहण कर चुका है; या

(VII) दूसरा पक्षकार जीवित है या नहीं इसके बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि के भीतर उन्होंने कुछ नहीं सुना है जिन्होंने उसके बारे में यदि वह पक्षकार जीवित होता तो स्वभाविकतः सुना होता।

स्पष्टीकरण – इस उपधारा में “अभित्यजन” पद से विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा अर्जीदार का ऐसा अभित्यजन अभिप्रेत है जो युक्तियुक्त कारण के बिना और ऐसे पक्षकार की सम्मति के बिना या इच्छा के विरुद्ध हो और इसके अन्तर्गत विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा जानबूझकर अर्जीदार की उपेक्षा करना भी है और इस पद के व्याकरिणक रूपभेदों तथा सजातीय पदों के अर्थ तदनुसार लगाए जाएंगे।]

(1क) विवाह का कोई भी पक्षकार, विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात्, विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर भी अर्जी उपस्थापित कर सकेगा-

(I) कि ऐसी कार्यवाही में पारित, जिसके उस विवाह के पक्षकार, पक्षकार थे, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के पश्चात् [एक वर्ष] या उससे ऊपर की कालावधि भर, उन पक्षकारों के बीच सहवास का कोई पुनरारंभ नहीं हुआ है; या

(II) कि ऐसी कार्यवाही में पारित, जिसके उस विवाह के पक्षकार, पक्षकार थे, दाम्पत्याधिकार के प्रत्यास्थापन की डिक्री के पश्चात् 7[एक वर्ष] या उससे ऊपर की कालावधि भर, उन पक्षकारों के बीच दाम्पत्याधिकारों का कोई प्रत्यास्थापन नहीं हुआ है ।

(2) पत्नी विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा अपने विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर भी अर्जी उपस्थापित कर सकेगी-

(I) कि इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व अनुष्ठापित विवाह की दशा में, पति ने ऐसे प्रारंभ के पूर्व फिर विवाह कर लिया था या कि अर्जीदार के विवाह के अनुष्ठान के समय पति की कोई ऐसी दूसरी पत्नी जीवित थी जिसके साथ उसका विवाह ऐसे प्रारंभ के पूर्व हुआ था: परन्तु यह तब जब कि दोनों दशाओं में दूसरी पत्नी अर्जी के उपस्थान के समय जीवित हो; या

(II) कि पति विवाह के अनुष्ठापन के पश्चात् बलात्संग, गुदामैथुन या पशुगमन का [दोषी रहा है; या]

(III) कि हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के अधीन वाद में या दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 125 के अधीन (या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 की तत्स्थानी धारा 488 के अधीन) कार्यवाही में यथास्थिति, डिक्री या आदेश, पति के विरुद्ध पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किये जाने के समय से पक्षकारों में एक वर्ष या उससे अधिक के समय तक सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ है; या

(IV) कि उसका विवाह (चाहे विवाहोत्तर संभोग हुआ हो या नहीं) उसकी पन्द्रह वर्ष की आयु हो जाने के पूर्व अनुष्ठापित किया गया था और उसने पन्द्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात् किन्तु अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व विवाह का निराकरण कर दिया है।

स्पष्टीकरण: यह खण्ड उस विवाह को भी लागू होगा जो विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 (1976 का 68) के प्रारंभ के पूर्व या उसके पश्चात् अनुष्ठापित किया गया है।

13क. विवाह-विच्छेद की कार्यवाहियों में प्रत्यर्थी को वैकल्पिक अनुतोष​

इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी पर, उस दशा को छोड़कर जिसमें अर्जी धारा 13 को उपधारा (1) के खण्ड (II), (VI) और (VII) में वर्णित आधारों पर है, यदि न्यायालय मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह न्यायसंगत समझता है तो, वह विवाह-विच्छेद की डिक्री के बजाय न्यायिक पृथक्करण के लिए डिक्री पारित कर सकेगा ।


13ख. पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद:**​

  1. इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए यह है कि विवाह के दोनों पक्षकार मिलकर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी, चाहे ऐसा विवाह, विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारंभ के पूर्व या उसके पश्चात् अनुष्ठापित किया गया हो, जिला न्यायालय में, इस आधार पर पेश कर सकेंगे कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं तथा वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गए हैं कि विवाह का विघटन कर दिया जाना चाहिए।
  2. उपधारा (1) में निर्दिष्ट अर्जी के पेश किए जाने की तारीख से छह मास के पश्चात् और उस तारीख से अठारह मास के पूर्व दोनों पक्षकारों द्वारा किए गए प्रस्ताव पर, यदि इस बीच अर्जी वापस नहीं ले ली गई है तो, न्यायालय पक्षकारों को सुनने के पश्चात् और ऐसी जांच करने के पश्चात्, जो वह ठीक समझे, अपना यह समाधान कर लेने पर कि विवाह अनुष्ठापित हुआ है और अर्जी में किए गए प्रकयन सही है, यह घोषणा करते हुए विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित करेगा कि विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जाएगा ।]

14. विवाह से एक वर्ष के भीतर विवाह-विच्छेद के लिए कोई अर्जी उपस्थापित न की जाएगी​

(1) इस अधिनियम में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, कोई भी न्यायालय विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन की कोई अर्जी ग्रहण करने के लिए तब तक सक्षम न होगा [जब तक कि विवाह की तारीख से उस अर्जी के पेश किए जाने की तारीख तक एक वर्ष बीत न चुका हो:]

परन्तु न्यायालय उन नियमों के अनुसार किए गए आवेदन पर, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त बनाए जाएं, किसी अर्जी का, विवाह की तारीख से [एक वर्ष बीतने के पूर्व] भी इस आधार पर उपस्थापित किया जाना अनुज्ञात कर सकेगा कि मामला अर्जीदार के लिए असाधारण कष्ट का है या प्रत्यर्थी की असाधारण दुराचारिता से युक्त है; किन्तु यदि अर्जी की सुनवाई के समय न्यायालय को यह प्रतीत हो कि अर्जीदार ने अर्जी को उपस्थापित करने की इजाजत किसी दुर्व्यपदेशन या मामले की प्रकृति के प्रच्छादन द्वारा अभिप्राप्त की थी तो वह, डिक्री देने की दशा में, इस शर्त के अध्यधीन डिक्री दे सकेगा कि डिक्री तब तक सप्रभाव न होगी जब तक कि विवाह की तारीख से [एक वर्ष का अवसान] न हो जाए अथवा उस अर्जी को ऐसी अर्जी पर कोई प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना खारिज कर सकेगा जो 4[उक्त एक वर्ष के अवसान] के पश्चात् उन्हीं या सारतः उन्हीं तथ्यों पर दी जाए जो ऐसे खारिज की गई अर्जी के समर्थन में अभिकथित किए गए थे।

(2) विवाह की तारीख से [एक वर्ष के अवसान] से पूर्व विवाह-विच्छेद की अर्जी उपस्थापित करने की इजाजत के लिए इस धारा के अधीन किए गए किसी आवेदन का निपटारा करने में न्यायालय उस विवाह से उत्पन्न किसी अपत्य के हितों पर तथा इस बात पर ध्यान रखेगा कि पक्षकारों के बीच [उक्त एक वर्ष के अवसान] से पूर्व मेल-मिलाप की कोई युक्तियुक्त संभाव्यता है या नहीं।

15. कब विवाह-विच्छेद प्राप्त व्यक्ति पुनःविवाह कर सकेंगे​

जब कि विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह विघटित कर दिया गया हो और या तो डिक्री के विरुद्ध अपील करने का कोई अधिकार ही न हो या यदि अपील का ऐसा अधिकार हो तो अपील करने के समय का कोई अपील उपस्थापित हुए बिना अवसान हो गया हो या अपील की तो गई हो किन्तु खारिज कर दी गई हो तब विवाह के किसी पक्षकार के लिए पुनःविवाह करना विधिपूर्ण होगा।
 
मॉडरेटर द्वारा पिछला संपादन:
अति सरल वाक्यों में समझ में आने योग्य शैली के साथ प्रस्तुत विधिक जानकारी, अत्यंत सराहनीय है, धन्यवाद, जी,
कानून के प्रति जागरूक रहना वर्तमान की अनिवार्य आवश्यकता है, परंतु शिक्षा के मद में केन्द्रीय बजट का प्रावधान न्यून किया जाना शोचनीय है।
 

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