दण्डों के विषय में | of Punishment | IPC 1860 Chapter 3 | Sections 53-75

दण्डों के विषय में | of Punishment | IPC 1860 Chapter 3 | Sections 53-75


दण्ड संहिता का अध्याय III दण्ड से (of Punishment) सम्बन्धित है। जिनके लिये अभियुक्त संहिता के अन्तर्गत दायी है। यह अध्याय, जहाँ दण्डों के विषय का सम्बन्ध है, विस्तृत नहीं है क्योंकि विशिष्ट तथा स्थानीय विधियों के अन्तर्गत अन्य प्रकार के दण्ड आरोपित किये जा सकते हैं। इस धारा में उल्लिखित दण्ड केवल इस संहिता में वर्णित अपराधों पर लागू होगा।

सामान्यतया संहिता अधिकतम दण्ड का निर्धारण करती है जिसे किसी अभियुक्त पर थोपा जा सकता है। इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। किसी विशिष्ट मामले में, संहिता द्वारा निश्चित अधिकतम सीमा के अन्दर ही न्यायालय अपने विवेक के आधार पर दण्ड की मात्रा को निर्धारित करेगा।


परन्तु स्वविवेक यह दिग्दर्शित करे कि अपराध की गम्भीरता तथा आरोपित दण्ड के बीच एक युक्तियुक्त अनुपात है। दण्ड, न तो अनावश्यक कठोर होना चाहिये और न ही अत्यधिक उदार ताकि अभियुक्त के ऊपर प्रभाव डालने तथा दूसरों के लिये एक दृष्टान्त के रूप में इसका उद्देश्य विफल न हो जाये।

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ५३ निम्न प्रकार के दण्डों को मान्यता प्रदान करती है​

1.मृत्यु दण्ड (IPC Section 121, 132, 194, 302, 305, 307, 376A, 376D, 376E)
2.आजीवन कारावास (IPC Section 121, 121A, 122, 124A, 238, 307, 376)
3. कारावास, जो दो भांति का है अर्थात्: कठिन, (अर्थात् कठोर श्रम के साथ) (IPC Section 170, 193, 203), सादा (IPC Section 341, 509)
4. सम्पत्ति का समपहरण (IPC Section 126, 127)
5. जुर्माना (आर्थिक दण्ड) (IPC Section 137, 154, 278, 283)

IPC Section ५3A के अन्तर्गत यह उपबंधित किया गया है कि आजीवन निर्वासन का तात्पर्य `आजीवन कारावास’ समझा जायेगा।

IPC Section ५४ & ५५ मृत्युदण्डादेश और आजीवन कारावास (जो चौदह वर्ष से अधिक न हो) को समुचित सरकार के द्वारा लघुकृत किया जा सकता है।

IPC Section ५7 दण्डावधियों की भिन्नों की गणना करने में आजीवन कारावास को २० वर्ष के तुल्य गिना जायेगा।

IPC Section 60 दण्डादेश में कारावास की प्रकृति न्यायालय के विवेकानुसार कठोर अथवा सादा अथवा दोनों प्रकार का हो सकता है।

IPC Section 63 जुर्माने की राशि अमर्यादित तथा अत्यधिक नहीं होगी।

IPC Section 65 में कारावास की उस अवधि के बारे में उल्लेख है जो कि जुर्माना न देने पर दिया जा सकता है यदि दण्ड कारावास और जुर्माना दोनों रूपों में आदिष्ट किये जा सकते हैं। यह अवधि अपराध के लिए नियत अधिकतम दण्ड के १/४ से अधिक नहीं हो सकती।

IPC Section 67 में कारावास की उस अवधि का उल्लेख है जो कि जुर्माना न देने पर दिया जा सकता है जबकि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय हो। इसके अनुसार जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास सादा होगा और यदि जुर्माना पचास रुपए तक है तो अधिकतम २ माह तक यदि जुर्माना एक सौ रुपए तक है तो अधिकतम ४ माह तक तथा अन्य दशाओं में अधिकतम् ६ माह तक का हो सकता है।IPC

Section 68 जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर अतिरिक्त दण्ड कारावास के रूप में न्यायालय अधिरोपित कर सकता है, किन्तु जुर्माना दे देने या उद्गृहीत कर लिए जाने पर कारावास का समाप्त हो जायेगा।

IPC Section 69 जुर्माने के आनुपातिक भाग के दे दिए जाने की दशा में का पर्यवसान – यदि जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए नियत की गई कारावास का अवसान होने से पूर्व जुर्माने का ऐसा अनुपात चुका दिया या उद्गृहीत कर लिया जाए कि देने में पर कारावास की जो अवधि भोगी जा चुकी हो, वह जुर्माने के तब तक न चुकाए गए भाग के कम न हो तो कारावास पर्यवसित हो जाएगा।

उदाहरण: क एक सौ रुपये के जुर्माने और उसके देने में व्यतिक्रम होने की दशा के लिए चार मास के कारावास से दण्डादिष्ट किया गया है। यहाँ, यदि कारावास के एक मास के अवसान से पूर्व जुर्माने के पचहत्तर रुपये चुका दिए जाएं या उद्गृहीत कर लिए जाएं तो प्रथम मास का अवसान होते ही क उन्मुक्त कर दिया जाएगा। यदि पचहत्तर रुपए प्रथम मास के अवसान पर या किसी भी पश्चातुवर्ती समय पर, जबकि क कारावास में है, चुका दिए या उद्गृहीत कर लिए जाएं, तो क तुरन्त उन्मुक्त कर दिया जाएगा। यदि कारावास के दो मास के अवसान से पूर्व जुर्माने के पचास रुपये चुका दिए जाएं या उद्गृहीत कर लिए जाएं, तो क दो मास के पूरे होते ही उन्मुक्त कर दिया जाएगा। यदि पचास रुपये उन दो मास के अवसान पर या किसी भी पश्चात्वर्ती समय पर, जब कि क कारावास में है, चुका दिए जाएं या उद्गृहीत कर लिए जाएं, तो क तुरन्त उन्मुक्त कर दिया जाएगा।


IPC Section70 जुर्माने का छह वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान में उद्ग्रहणीय होना: सम्पत्ति को दायित्व से मृत्यु उन्मुक्त नहीं करती-जुर्माना या उसका कोई भाग, जो चुकाया न गया हो, दण्डादेश दिए जाने के पश्चात् छह वर्ष के भीतर किसी भी समय और यदि अपराधी दण्डादेश के अधीन छह वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय हो तो उस कालावधि के अवसान से पूर्व किसी समय, उद्गृहीत किया जा सकेगा, और अपराधी की मृत्यु किसी भी सम्पत्ति को, जो उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके ऋणों के लिए वैध रूप से दायी हो, इस दायित्व से उन्मुक्त नहीं करती।

टिप्पणी: जुर्माना या भुगतान न करने के कारण हुआ कारावास अभियुक्त को उसके ऊपर आरोपित जुर्माने की सम्पूर्ण राशि के भुगतान के दायित्व से उन्मुक्त नहीं करता, जुर्माने का भुगतान न किये जाने के कारण हुआ कारावास जुर्माने से मुक्ति या उसकी पूर्ति नहीं है अपितु यह जुर्माने का भुगतान न करने के कारण आरोपित होता है। अभियुक्त इस बात का चुनाव नहीं कर सकता कि वह कारावास की सजा भुगतेगा या जुर्माने का भुगतान करेगा। इसका मात्र यही प्रभाव होगा कि वह जुर्माने के लिये शारीरिक रूप से दायी नहीं रह जायेगा। परन्तु उसकी सम्पत्ति को दायित्व से उन्मुक्ति नहीं मिलेगी अर्थात् जुर्माने की वसूली उसकी सम्पत्ति से की जायेगी। जुर्माने की वसूली की अवधि साधारण तौर पर छः साल की होगी। छ: साल की अवधि बीतने के पश्चात् सम्पत्ति को बेच कर जुर्माने की वसूली नहीं की जा सकती।

IPC Section 71 जहां कि कोई अपराध कार्य, ऐसे भागों से, जिनका कोई भाग स्वयं अपराध है, मिलकर बना है, वहां अपराधी अपने ऐसे अपराधों में एक से अधिक के दण्ड से दण्डित नहीं किया जाएगा, जब तक कि ऐसा स्पष्ट रूप से उपबन्धित न हो। जहां कि कोई बात अपराधों को परिभाषित या दण्डित करने वाली किसी तत्समय प्रवॄत्त विधि की दो या अधिक पॄथक् परिभाषाओं में आने वाला अपराध है, अथवा जहांकि कई कार्य, जिनमें से स्वयं एक से या स्वयं एकाधिक से अपराध गठित होता है, मिलकर भिन्न अपराध गठित करते हैं; वहां अपराधी को उससे कठोर दण्ड से दण्डित नहीं किया जाएगा, जो ऐसे अपराधों में से किसी भी एक के लिए न्यायालय, जो उसका विचारण करे, उसे दे सकता हो।

उदाहरण: (क) क, य पर लाठी से पचास प्रहार करता है। यहां, हो सकता है कि क ने सम्पूर्ण मारपीट द्वारा उन प्रहारों में से हर एक प्रहार द्वारा भी, जिनसे वह सम्पूर्ण मारपीट गठित है, य की स्वेच्छया उपहति कारित करने का अपराध किया हो। यदि क हर प्रहार के लिए दण्डनीय होता वह हर एक प्रहार के लिए एक वर्ष के हिसाब से पचास वर्ष के लिए कारावासित किया जा सकता था। किन्तु वह सम्पूर्ण मारपीट के लिए केवल एक ही दण्ड से दण्डनीय है।

(ख) किन्तु यदि उस समय जब क, य को पीट रहा है, म हस्तक्षेप करता है, और क, म पर साशय प्रहार करता है, तो यहां म पर किया गया प्रहार उस कार्य का भाग नहीं है, जिसके द्वारा क, य को स्वेच्छया उपहति कारित करता है, इसलिए क, य को स्वेच्छया कारित की गई उपहति के लिए एक दण्ड से और म पर किए गए प्रहार के लिए दूसरे दण्ड से दण्डनीय है।

IPC Section 72 कई अपराधों में से एक के दोषी व्यक्ति के लिए दण्ड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है: उन सब मामला में, जिनमें यह निर्णय दिया जाता है कि कोई व्यक्ति उस निर्णय में विनिर्दिष्ट कई अपराधों में से एक अपराध का दोषी है, किन्तु यह संदेहपूर्ण है कि वह उन अपराधों में से किस अपराध का दोषी है, यदि वही दण्ड सब अपराधों के लिए उपबन्धित नहीं है तो वह अपराधी उस अपराध के लिए दण्डित किया जाएगा, जिसके लिए कम से कम दण्ड उपबन्धित किया गया है।IPC Section

73 एकान्त परिरोध: जब कभी कोई व्यक्ति ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया जाता है जिस लिए न्यायालय को इस संहिता के अधीन उसे कठिन कारावास से दण्डादिष्ट करने की शक्ति है, तो न्याय अपने दण्डादेश द्वारा आदेश दे सकेगा कि अपराधी को उस कारावास के, जिसके लिए वह दण्डा गया है, किसी भाग या भागों के लिए, जो कुल मिलाकर तीन मास से अधिक के न होंगे, निम्न मा अनुसार एकान्त परिरोध में रखा जाएगा, अर्थात् यदि कारावास की अवधि छ: मास से अधिक न हो तो एक मास से अनधिक समय; यदि कारावास की अवधि छ: मास से अधिक हो और एक वर्ष से अधिक न हो तो दो मास से अनधिक समय; यदि कारावास की अवधि एक वर्ष से अधिक हो तो तीन मास से अनधिक समय।I

PC Section 74 एकांत परिरोध के दण्डादेश के निष्पादन में ऐसा परिरोध किसी दशा में भी एक बार में चौदह दिन से अधिक न होगा।IPC Section

75 जो कोई व्यक्ति – भारत में के किसी न्यायालय द्वारा इस संहिता के अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए दोनों में से किसी भांति के कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध हो, उन अध्यायों के तहत किसी अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध का दोषी हो, होने वाले प्रत्येक अपराध के लिए विषय वस्तु हो, तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिए कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।

यह धारा अनेक प्रकार के दण्डों का वर्णन करती है जिनके लिये अभियुक्त संहिता के अन्तर्गत दायी है। यह धारा, जहाँ तक दण्ड के प्रकारों का सम्बन्ध है, विस्तृत नहीं है क्योंकि विशिष्ट तथा स्थानीय विधियों के अन्तर्गत अन्य प्रकार के दण्ड आरोपित किये जा सकते हैं। इस धारा में उल्लिखित दण्ड केवल इस संहिता में वर्णित अपराधों पर लागू होगा। सामान्यतया संहिता अधिकतम दण्ड का निर्धारण करती है जिसे किसी अभियुक्त पर थोपा जा सकता है। इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। किसी विशिष्ट मामले में, संहिता द्वारा निश्चित अधिकतम सीमा के अन्दर ही न्यायालय अपने विवेक के आधार पर दण्ड की मात्रा को निर्धारित करेगा। परन्तु स्वविवेक यह दिग्दर्शित करे कि अपराध की गम्भीरता तथा आरोपित दण्ड के बीच एक युक्तियुक्त अनुपात है। दण्ड, न तो अनावश्यक कठोर होना चाहिये और न ही अत्यधिक उदार ताकि अभियुक्त के ऊपर प्रभाव डालने तथा दूसरों के लिये एक दृष्टान्त के रूप में इसका उद्देश्य विफल न हो जाये। दण्ड का निर्धारण करते समय अपराध एवं अपराधी से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर समग्र रूप से विचार करना चाहिये और ऐसा दण्ड देना चाहिये जो विधि के प्रतिरोधक एवं पुनर्वास जैसे उद्देश्यों को प्रभावकारी रूप से अग्रसर कर सके। विधि विहित न्यूनतम अनिवार्य दण्ड के अधीन रहते हुये दण्ड की मात्रा न्यायिक विवेक के अधीन रहती है। न्यायालय वाद के विभिन्न पहलुओं को देखते हुये दण्ड की मात्रा को कम कर सकता है। जैसे यदि अभियुक्त एक लोक-सेवक है और दोषसिद्धि के फलस्वरूप उसे नौकरी से च्युत कर दिया जाता है और इस बात की भी सम्भावना हो कि उसे पेंशन का लाभ नहीं मिलेगा तथा तीन माह तक जेल में बन्द रह चका है तो ऐसी स्थिति में यदि वह किसी गम्भीर अपराध का दोषी नहीं है तो दण्ड की मात्रा कम की जा सकती। अभियुक्त की आय को भी दण्ड की मात्रा के निर्धारण में ध्यान रखना आवश्यक है। यदि अधि 17 वर्ष की आय का है तो उसे मृत्यु-दण्ड की सजा न देकर न्यायालय आजीवन कारावास की ही सजा करते हैं।

 
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