शून्य और शून्यकरणीय विवाह (Void & Voidable Marriage) | हिंदू विवाह अधिनियम 1955 | Family Law

शून्य और शून्यकरणीय विवाह (Void & Voidable Marriage) | हिंदू विवाह अधिनियम 1955 | Family Law


विवाह (Marriage) सात जन्मों का बंधन माना जाता है। लेकिन खंडित और शून्य वैवाहिक जीवन टूट ही जाए तो अच्छा है। ऐसे वैवाहिक जीवन को घसीटते रहने से क्या फायदा, जिसमें वे न स्वयं को विवाहित कह पाते हैं और न ही अविवाहित होते हैं। वे अन्यत्र विवाह कर पाने के लिए भी स्वतंत्र नहीं होते इसलिए यह अत्यंत पीड़ादायक स्थिति होती है, चाहे उसके लिए कोई भी जिम्मेदार हो।


शून्य विवाह (Void Marriage) कोई विवाह नहीं है। यह ऐसा संबंध है जो विधि के समक्ष विद्यमान है ही नहीं। इसे विवाह केवल इस कारण कहते हैं कि दो व्यक्तियों ने विवाह के अनुष्ठान सम्पन्न कर लिये हैं। परन्तु पूर्ण अवबाधाओं के होने या पूर्णतया सामर्थ्यहीन होने के कारण कोई भी व्यक्ति पति-पत्नी की प्रास्थिति विवाह के अनुष्ठान करके ही प्राप्त कर सकता है। शून्य विवाह एक ऐसा विवाह है जो कि कानून के तहत गैरकानूनी या अमान्य है। ये एक ऐसा विवाह है जो शुरुआत से ही अमान्य है जैसे कि विवाह अस्तित्व में आया ही ना हो।

उदाहरण​

हिंदू विवाह के अंतर्गत यदि कोई भाई-बहन विवाह सम्पन्न कर लें तो वे पति-पत्नी नहीं हो सकते हैं। कुछ अपवाद जैसे: रूढ़ी और प्रथाओं को छोड़कर। जैसे दक्षिण भारत में यह प्रथा है की बुआ के लड़के-लड़की या मामा के लड़के-लड़की से विवाह हो सकता है। वहां की ऐसी प्रथा है।

शून्य विवाह, विवाह न होने के कारण किसी भी विधिक सम्बन्ध या प्रास्थिति को जन्म नहीं देता है, वैध विवाह के अन्तर्गत विधिक संस्थितियां और संबंध जन्म लेते हैं। यदि पक्षकारों में से कोई (या दोनों हो) दूसरा विवाह कर लें तो वह विवाह का दोषी नहीं होगा। यदि पत्नी को कोई रखैल कहकर पुकारे तो वह मानहानि का अपराध या दोषी नहीं होगा। कोई भी व्यक्ति उस विवाह को शून्य मानकर चल सकता है, वह उसे शून्य घोषित कराने का बाद भी प्रेषित कर सकता है या अन्य कानूनी कार्यवाही में उस विवाह को शून्य मानकर चल सकते हैं। विवाह अधिनियम का कोई भी उपबंध इस कार्यवाहक में बाधक नहीं है।

शून्य विवाह को शून्य करार देने के लिये शून्य घोषित करने की डिक्री की आवश्यकता नहीं है। जब न्यायालय वैसी डिक्री पारित करता भी है तो वह केवल इस तथ्य की घोषणा करता है कि विवाह शून्य है। विवाह न्यायालय की डिक्री द्वारा शून्य नहीं होता है, वह प्रारम्भ से ही शून्य होता है।

विवाह की समाप्ति​

  1. यदि विवाह का कोई पक्षकार हिंदू विवाह अधिनियम (Hindu Marriage Act) 1955 की धारा 5 की शर्तों को पूरा करने में असमर्थ होता है तो ऐसा विवाह शून्य विवाह माना जाता है।
  2. पक्षकारों द्वारा विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त किए बिना किया गया दूसरा विवाह शून्य विवाह माना जाता है।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार शून्य विवाह​

इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अनुष्ठित किया गया यदि कोई विवाह धारा 5 के खण्ड (1), (4) और (5) में उल्लिखित शतों में से किसी एक का उल्लंघन करता है, तो वह अकृत और शून्य होगा और उसमें के किसी भी पक्षकार के द्वारा दूसरे पक्षकार के विरुद्ध पेश की गई याचिका पर अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 का खंड (1) के अनुसार​

दोनों पक्षकारों में से किसी का पति या पत्नी विवाह के समय जीवित नहीं है। विवाह के समय दोनों पक्ष कार में से, वर का ना कोई जीवित पत्नी हो, और ना ही वधू का कोई जीवित पति हो।


विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 का खंड (4) के अनुसार​

जब कि उन दोनों में से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो, तब पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर नहीं हैं।
  1. संथालों मे वर द्वारा वधू के मस्तक पर सिन्दूर लगाना अनुष्ठान है।
  2. दक्षिण भारत के नायाहनो में वर द्वारा वधू के गले में वायद बीता थाली बांधना ही पर्याप्त है।
  3. बौद्धों में आपसी सहमति विवाह सम्पन्न करने के लिये पर्याप्त है, किसी अनुष्ठान का करना अनिवार्य नहीं है।
  4. करेवा’ विवाह के लिये भी किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है: पक्षकारों का दूसरे के साथ पति-पत्नी की भांति रहना ही पर्याप्त है।
  5. पंजाब में प्रचलित चादर-अंदोजी विवाह पर लागू होती है।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 18 के अनुसार​

1 माह के साधारण कारावास या 1 हजार के जुर्माने या दोनों से दंडनीय होगा। परन्तु यदि पक्षकारो को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात करती है तब ये शर्तें लागू नही होगी।

विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के खंड (5) के अनुसार​

जब तक कि उनमें से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो तब पक्षकार एक-दूसरे के सपिण्ड नहीं हैं।

बहिर्विवाह का तात्पर्य किसी जाति के एक छोटे समूह से तथा निकट संबंधियों के वर्ग से बाहर विवाह का नियम है। हिंदू समाज में प्रचलित सपिंडता के सामान्य नियम के अनुसार माता की पाँच तथा पिता की सात पीढ़ियों में होने वाले व्यक्तियों को संपिड माना जाता है, इनके साथ वैवाहिक संबंध वर्जित है।

शून्य करणीय विवाह (Voidable Marriage)​

जिस विवाह को किसी भी एक पक्ष में अनुरोध पर रद्द किया जा सकता है, उसे शून्यकरणीय विवाह कहते हैं। यह विवाह कानूनी तौर पर मान्य है, लेकिन विवाह के किसी भी एक पक्ष द्वारा न्यायालय में चुनौती पर इसे निरस्त किया जा सकता है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा १२ में शून्यकरणीय के बारे में उल्लेख है। हिंदू विवाह में प्रावधान है, कि शून्यकरणी विवाह, विवाह के पक्षकारों में से किसी भी एक प्रकार की याचिका द्वारा निर्धारित हो सकता है। यदि उनमें से एक पक्षकार की मृत्यु हो जाए तो उस विवाह की शून्यकरणीयता के डिक्री पारित नहीं की जा सकती।

यदि विवाह के दोनों पक्षकार जीवित हैं। और वह विवाह के शून्यकरणी घोषित कराने की कार्यवाही नहीं करते हैं। तो विवाह विधि मान्य होगा। विधि के अनुसार शून्यकरणी विवाह जब तक शून्यकरणी घोषित नहीं हो जाता, तब तक उसके अंतर्गत विधि मान्य विवाह के सब परिस्थितियों और सब अधिकार कर्तव्य और दायित्व जन्म लेते हैं। ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान धर्मज होती है।
  1. शून्यकरणीय विवाह सभी तथ्यों के लिए वैध समझा जाएगा। उस स्थिति तक जब तक कि जिला न्यायालय द्वारा पीड़ित याचिका प्रार्थना पत्र स्वीकार नहीं कर लिया जाता।
  2. शून्य विवाह में दोनों पक्षकार बिना डिक्री पारित हुए, दूसरा विवाह कर सकते हैं। परंतु शून्यकरणीय विवाह में विवाह के पक्षकार ऐसा नहीं कर सकते, यदि वे या उनमें कोई ऐसा करेगा तो वह अपराधी होगा।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 धारा 12 शून्यकरणीय विवाह​

(1) कोई विवाह भले ही वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अनुष्ठित किया गया है; निम्न आधारों में से किसी पर अर्थात्:

(क) कि प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण विवाहोत्तर संभोग नहीं हुआ है; या

(ख) इस आधार पर कि विवाह धारा 5 के खण्ड (2) में उल्लिखित शतों के उल्लंघन में है; या

(ग) इस आधार पर कि याचिकादाता की सम्मति या जहाँ कि याचिकादाता के विवाहार्थ संरक्षक की सम्मति, धारा 5 के अनुसार बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम, 1978 (1978 का 2) के लागू होने के पूर्व थी वहाँ ऐसे संरक्षक की सम्मति बल या कर्म-काण्ड की प्रकृति या प्रत्यर्थी से सम्बन्धित किसी तात्विक तथ्य या परिस्थिति के बारे में कपट द्वारा अभिप्राप्त की गई थी, या

(घ) इस आधार पर कि प्रत्युत्तरदात्री विवाह के समय याचिकादाता से भिन्न किसी व्यक्ति द्वारा गर्भवती थी; शून्यकरणीय होगा और अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा अकृत किया जा सकेगा।

(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी विवाह को अकृत करने के लिए कोई याचिका:

(क) उपधारा (1) के खण्ड (ग) में उल्लिखित आधार पर उस सूरत में ग्रहण न की जायेगी जिसमें कि –

(i) अर्जी, यथास्थिति, बल प्रयोग के प्रवर्तनहीन हो जाने या कपट का पता चल जाने के एकाधिक वर्ष पश्चात् दी जाए; या

(ii) अजींदार, यथास्थिति, बल प्रयोग के प्रवर्तन हो जाने के या कपट का पता चल जाने के पश्चात् विवाह के दूसरे पक्षकार के साथ अपनी पूर्ण सहमति से पति या पत्नी के रूप में रहा या रही है;

(ख) उपधारा (1) के खण्ड (घ) में उल्लिखित आधार पर तब तक ग्रहण न की जायेगी जब तक कि न्यायालय का समाधान नहीं हो जाता है –

(i) कि याचिकादाता अभिकथित तथ्यों से विवाह के समय अनभिज्ञ था;

(ii) कि इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठित विवाहों की अवस्था में कार्यवाहियाँ ऐसे प्रारम्भ के एक वर्ष के भीतर और ऐसे प्रारम्भ के पश्चात् अनुष्ठित विवाहों की अवस्था में विवाह की तारीख से एक वर्ष के भीतर संस्थित कर दी गई हैं; और

(iii) कि याचिकादाता की सम्मति से वैवाहिक सम्भोग उक्त आधार के अस्तित्व का पता याचिकादाता को चल जाने के दिन से नहीं हुआ है।

उक्त प्रावधानों के सामान्य अध्ययन से, यह स्पष्ट है कि इस धारा में विहित शर्ते, यदि साबित कर दी जाती हैं, तो पक्षकारों को विधिमान्य विवाह से वंचित कर देती है। विवाह स्वतः शुन्य नहीं है बल्कि खण्ड के अधीन शून्यकरणीय है। ऐसी शर्ते सबूत के कठोर मानक की उपेक्षा करती हैं। सबूत का भार पक्षकार पर है, जो न्यायालय से पहले से अनुष्ठापित विवाह-विच्छेद के लिये अनुरोध करता है।

न्याय दृष्टांत​

राजिन्दर सिंह बनाम श्रीमती प्रमिला, के मामले में न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया, कि जहां पति ने पहले संपन्न हुए अपने विवाह की बात छुपाई है। और पत्नी के पिता द्वारा विवाहार्थ किए गए विज्ञापन के उत्तर में अपनी वैवाहिक स्थिति अथवा अपने पूर्व विवाह के तलाक की बात छिपाई हो। वहां पत्नी इस बात पर धारा 12 (1) (सी) के अंतर्गत विवाह की अकृत डिक्री प्राप्त कर सकती है। क्योंकि वैवाहिक स्थिति का छुपाया जाना दूसरे पक्षकार को विवाह के लिए निर्णय लेने में एक महत्वपूर्ण विचारक हो सकता है।

शून्य विवाह और शून्यकरणीय विवाह का प्रभेद (Difference between void marriage and voidable marriage)​

शून्य विवाह, और शून्यकरणीय विवाहों के बीच मूलभूत प्रभेद है। शून्य विवाह, विवाह ही नहीं है, जो प्रारम्भ से ही शून्य होता है। उस विवाह के अन्तर्गत पक्षकार पति-पत्नी की संस्थित प्राप्त नहीं करते हैं। सन्तान भी धर्मज सन्तान की प्रास्थिति प्राप्त नहीं करती है, न ही पक्षकारों के आपसी अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का जन्म होता है। दूसरी ओर शून्यकरणीय विवाह जब तक शून्यकरणीय की डिक्री द्वारा विघटित न हो जाये पूर्णतया मान्य विवाह है। उसके अन्तर्गत पति-पत्नी की प्रास्थिति प्राप्त करते हैं, सन्तान धर्मज सन्तान की प्रास्थिति प्राप्त करती है और समस्त पारम्परिक अधिकार, कर्तव्य और दायित्वों का जन्म होता है।
 
मॉडरेटर द्वारा पिछला संपादन:

सम्बंधित टॉपिक्स

सदस्य ऑनलाइन

अभी कोई सदस्य ऑनलाइन नहीं हैं।

हाल के टॉपिक्स

फोरम के आँकड़े

टॉपिक्स
1,845
पोस्ट्स
1,886
सदस्य
242
नवीनतम सदस्य
Ashish jadhav
Back
Top