एकलव्य ki Puri kahani | Birth to Death | Explained in Hindi

एकलव्य ki Puri kahani | Birth to Death | Explained in Hindi


दोस्तों, महाभारत का वह गुमनाम पात्र जिसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं और जानते भी हैं तो बस इतना कि एकलव्य नाम का एक धनुषधारी हुआ करता था जिसे गुरु द्रोण ने शिक्षा देने से मना कर दिया था और जब उसने उन को गुरु मानते हुए धनुर्विद्या में पारंगत हासिल कर ली तो द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में उससे उसकाअंगूठा मांग लिया। लेकिन दोस्तों आज की इस ब्लॉग में आपको बताऊंगा कि अंगूठा काटने के बाद एकलव्य का क्या हुआ और वह कौन था जिसने एकलव्य का वध किया था तो बने रही हमारे साथ ब्लॉग के अंतर तक।

नमस्कार और स्वागत है आपका “हिंदी विचार / Hindiv4” पर एक बार फिर। मित्रों एकलव्य को किसने और क्यों मारा है इससे पहले आपको बता दूं कि एकलव्य वास्तव में कौन था? धर्म ग्रंथ महाभारत के अनुसार द्वापर युग में प्रयागराज निकट शृंगवेरपुर नाम का एक राज्य हुआ करता था और उस समय उस राज्य के राजा हिरण धनु थे। एकलव्य निषाद राज हिरण धनु का ही पुत्र था जो कि महाभारत काल में निषाद जाति को शुद्र माना जाता था इसलिए शृंगवेरपुर राज्य के बारे में ज्यादा पढ़ने को नहीं मिलता है। एकलव्य के बचपन का नाम अभिद्युम्न था हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बचपन में एकलव्य अभय नाम से जाना जाता था। वही हरिवंश पुराण के अनुसार एकलव्य हिरण धनु का दत्तक पुत्र था, जिसका जन्म भगवान श्री कृष्ण के चाचा के यहां हुआ था परंतु जब ज्योतिषों ने उस बालक की कुंडली देखी और उसके भविष्य के बारे में पिता को बताया तो उन्होंने अपने भतीजे यानी श्रीकृष्ण की सलाह पर हिरण धनु को सौंप दिया, अर्थात हरिवंश पुराण की मने तो एकलव्य वास्तव में एक क्षत्रिय राजकुमार था न की शुद्र पुत्र।

अभय या अभिद्युम्न एकलव्य कैसे बना ? | How Abhya become Eklavya ?​

चलिए अब जानते हैं कि अभय या अभिद्युम्न, एकलव्य कैसे बना दरअसल एकलव्य बचपन से कुशाग्र बुद्धि का धनी था और जब 5 वर्ष की आयु में उसकी शिक्षा के लिए गुरुकुल आरंभ हुई तो उसकी लगन और एक निष्ठा को देखते हुए गुरु ने उसका नाम एकलव्य रख दिया। उसी गुरुकुल में एक बार पुलक मुनि ने जब धनुष बाण सीखने की लगन और आत्मविश्वास से उसको भरा देखा तो उन्होंने निषाद राज हिरण धनु से कहा कि आप के पुत्र एकलव्य में एक बेहतरीन धनुर्धारी बनने के सारे गुण मौजूद हैं। बस इसके लिए एक अच्छे गुरु के मार्गदर्शन की जरूरत है उसके बाद पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण धनु अपने पुत्र को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले गए और उनसे एकलव्य को अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया। उधर एकलव्य द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान चुका था लेकिन गुरु द्रोण ने यह कहते हुए शिक्षा देने से मना कर दिया कि वह इस समय राजपूतों के अलावा किसी और को शिक्षा नहीं दे सकते। गुरु द्रोण की बात सुनकर एकलव्य और उसके पिता निराश हो वहां से लौट आए। परंतु एकलव्य द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान चुका था और वह भी जानता था कि धनुर्विद्या उसे उनसे बेहतर कोई और नहीं सिखा सकता फिर उसने द्रोणाचार्य के आश्रम से सटे हुए वन में गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा का निर्माण किया और उसी प्रतिमा को गुरु द्रोण मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। इसी तरह जब कई महीने बीत गए और जब एक दिन गुरु द्रोण कौरवों और पांडवों को धनुर्विद्या सीखा रहे थे उस समय एक कुत्ते की भौंकने की आवाज आई जिसकी वजह से सभी का ध्यान भंग हो गया परंतु कुछ समय बाद कुत्ते की भौंकने की आवाज बंद हो गई जिससे ग्रुप सहित सभी कौरव और पांडव हैरान हो गए फिर भी उसी ओर दौड़े जिधर से कुत्ते की भौंकने की आवाज आ रही थी वहां पहुंचकर उन सभी ने देखा किसी ने कुत्ते के मुंह को बड़ों से भर दिया है लेकिन रक्त की एक बूंद भी नहीं गिरी यह देखकर सभी एक दूसरे को देखने लगे फिर द्रोणाचार्य ने जोर से कहा कि यह किसने किया है तब एकलव्य उनके पास आया और प्रणाम करते हुए बोला गुरुदेव आपकी कृपा से मैंने इस कुत्ते का यह हाल किया है। एकलव्य के मुंह से ऐसी बातें सुनकर गुरु द्रोण ने उससे पूछा बालक तुम कौन हो और मैं तुम्हारा गुरु कैसे हुआ तो वह बोला गुरुदेव मैं वही एकलव्य हूं जो अपने पिता निषादराज हिरण धनु के साथ आप से शिक्षा ग्रहण करने आया था परंतु आपने मना कर दिया था लेकिन मैंने हार नहीं मानी और आप की प्रतिमा के सामने रोज धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और उसका परिणाम आपके सामने है। एकलव्य की बातें सुनकर गुरू द्रोण का गला भर आया और अपने मन में कहने लगे कि उन्होंने एकलव्य को शिष्य नहीं बना कर बहुत बड़ी गलती की। फिर वो एकलव्य को अपने सीने से लगाने के लिए आगे बढ़े और कुछ पग चलने के बाद उन्हें अर्जुन को दिए हुए अपने वचन का स्मरण हो आया। उन्होंने अर्जुन को वचन दे रखा था कि वे उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाएंगे। वचन ध्यान आते ही वे वहीं रुक गए और एकलव्य से बोले चलो चल कर मुझे मेरी प्रतिमा दिखओ। फिर एकलव्य द्रोणाचार्यसहित कौरव और पांडवों वहा गए जहा एकलव्य ने गुरु द्रोण की प्रतिमा बना रखी थी, जिसे देखकर गुरु द्रोण मन ही मन प्रसंन हुए, फिर उन्हें ध्यान आया कि अगर एकलव्य इसी तरह धनुर्विद्या अभ्यास करता रहा तो वह अवस्य अर्जुन से बड़ा धनुर्धर बन जायेगा इसलिए उन्होंने एकलव्य से कहा वत्स तुम मुझे अपना गुरु मानते हो तब तो यह भी जानते होगे कि बिना गुरु दक्षिणा दिए कोई भी विद्या सफल नहीं होती इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम मुझे गुरु दक्षिणा दो क्योंकि आज से मैंने तुम्हें अपना शिष्य मान लिया है। गुरु द्रोण के मुख से ऐसी बातें सुनकर एकलव्य प्रसन्न हो गया और बोला गुरुदेव में धन्य हो गया जो आपने मुझे अपना शिष्य मान लिया बताइए आपको गुरु दक्षिणा में मुझसे क्या चाहिए तब द्रोणाचर्य बोले वत्स गुरु दक्षिणा में मुझे तुम्हारे दाएं हाथ का अंगूठा चाहिए। गुरु द्रोण की बातें सुनकर एकलव्य पहले तो हैरान हो गया लेकिन उसने उसी क्षण अपने अंगूठे को चाकू से काट कर गुरु द्रोण के चरणों में समर्पित कर दिया। यह देख द्रोणाचार्य की आंखों से आंसू निकल आए फिर कुछ देर बाद एकलव्य से बोले वत्स अभी तक मेरे बहुत से शिष्य हुए और आगे भी होंगे परंतु तुम जैसा शिष्य किसी भी गुरु को अंत काल तक नहीं मिलेगा। फिर वे सभी वहां से अपने आश्रम लौट आए और उधर एकलव्य भी अपनेराज्यशृंगवेरपुर को लौट आया। यहाँ बिना अँगूठे की ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और देखते ही देखते बड़ा धनुर्धारी बन गया।

एकलव्य का अंत (मृत्यु) कैसे हुआ ? | Death Of Eklavya​

शृंगवेरपुर लौटने के कुछ वर्ष बाद हिरण धनु से अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुनीता से विवाह करा दिया। उसके बाद सब आनंद पूर्वक रहने लगे और कुछ वर्ष बाद जब पिता की मृत्यु हो गई तो एकलव्य शृंगवेरपुर राज्य का शासक बन गया। शासक बनाने के बाद एकलव्य निषाद जाति के लोगों को एक सशक्त सेना और नौसेना गठित की और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार भी करता रहा। इसी क्रम में वह मगध नरेश जरासंद से जा मिला जो की भगवान श्री कृष्ण का सबसे बड़ा शत्रु था। विष्णुपुराण की माने तो जरासंद से मित्रता करने के बाद वे एक बार द्वारका के विरुद्ध जरासंद के पक्ष में युद्ध करने गया जहां उसने देखते ही देखते लगभग पूरी यादव सेना का वध कर डाला। उधर बात का पता जब भगवान श्री कृष्ण को चला तो वे उससे मिलने आए और उन्होंने देखा कि वे दाहिने हाथ की सिर्फ़ 4 उंगलियों के सहारे धनुष वाण चला रहा है। यह देखकर श्री को ध्यान आया कि भविष्य में होने वाली महाभारत युद्ध में एकलव्य पांडवों के लिए खतरा बन सकता है इसलिए इसका नाश अभी आवश्यक है फिर वे एकलव्य के साथ युद्ध करने लगे जो काफी देर तक चला परंतु अंत में श्री के हाथों एकलव्य वीरगति को प्राप्त हो गया।

इस कथा को जाने के बाद आपके हिसाब से एकलव्य और अर्जुन में कौन श्रेष्ठ धनुर्धारी था नीचे कमेंट करके अवश्य बताइएगा। धन्यवाद्।
 

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