1947 में आज़ादी के साथ जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, तब सबसे बड़ी उम्मीद थी कि भारत प्राकृतिक न्याय की अवधारणा को ही राज्य व्यवस्था का मूल आधार बनाएगा। भारतीय संविधान की रचनाकार सभा ने अपनी पूरी ताकत प्राकृतिक न्याय को मूल रुप देने में लगाई। अस्पृश्यता को ख़त्म करने का प्रावधान, सभी को अपना धर्म मानने, उपासना करने और उसका प्रचार करने का अधिकार, बंधुआ होने से मुक्ति सरीखे अधिकार इसमें शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान की उद्देशिका में ही भारतीय सामाजिक और राज्य व्यवस्था के चरित्र को आकार देने के लिए न्याय, बंधुता, समानता और स्वतंत्रता का उल्लेख है।
भारत के संविधान में कहीं भी प्राकृतिक न्याय का उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि भारतीय संविधान की उद्देशिका , अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को मज़बूती से रखा गया है।
उद्देशिका
संविधान की उद्देशिका में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय, विचार, विश्वास एवं पूजा की स्वतंत्रता शब्द शामिल हैं और प्रतिष्ठा एवं अवसर की समता जो न केवल लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों में निष्पक्षता सुनिश्चित करती है बल्कि व्यक्तियों के लिये मनमानी कार्रवाई के खिलाफ स्वतंत्रता हेतु ढाल का कार्य करती है, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का मूल आधार है।अनुच्छेद 14
में बताया गया है कि राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। यह प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह नागरिक हो या विदेशी सब पर लागू होता है।अनुच्छेद* 21
वर्ष 1978 के मेनका गांधी मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत व्यवस्था दी कि प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता को उचित एवं न्यायपूर्ण मामले के आधार पर रोका जा सकता है। इसके प्रभाव में अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा केवल मनमानी कार्यकारी क्रिया पर ही उपलब्ध नहीं बल्कि विधानमंडलीय क्रिया के विरुद्ध भी उपलब्ध है।सामान्य शब्दों में, ‘प्राकृतिक न्याय’ का अर्थ है, वह न्यूनतम मानक एवं सिद्धांत जिनका प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा पालन किया जाना चाहिए, जब वे उन मामलों पर फैसला कर रहे हों, जो सीधे आम आदमी से जुड़े हों। मुख्य रूप से प्राकृतिक न्याय के दो सिद्धांत हैं, जिनका प्रत्येक प्रशासनिक अध्किारी को पालन करना अनिवार्य है, भले ही ये सिद्धांत प्रचलित कानूनों में न दिए गए हों। ये सिद्धांत हैं-
सिद्धांत
- कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के मामले में न्यायाधीश (जज) नहीं हो सकता है।
- दूसरे पक्ष को सुनो, कोई भी व्यक्ति बिना सुनवाई के दंडित नहीं किया जा सकता है।
प्राकृतिक न्याय का पहला सिद्धांत यह है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में किसी भी कारण से (जाति, भाषा, लिंग, आर्थिक स्थिति, धर्म या अन्य कुछ भी) के आधार पर पूर्व राय नहीं बनाई जानी चाहिए। यदि कोई न्यायाधीश किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर निर्णय करेगा तो इससे व्यक्ति के द्वारा किन परिस्थितियों में, किन कारणों या मंशा के साथ कोई कृत्य किया गया है या वह कृत्य किया ही नहीं गया है। यह कभी भी सामने नहीं आ पायेगा। इसी तरह यदि सरकार किसी समुदाय या संस्था के लिए किसी पूर्वाग्रह पर आधारित नियम या कानून बनाती है, तो उसमें “अन्याय” सन्निहित होगा ही।
पूर्वाग्रह के विरुद्ध नियम
पूर्वाग्रह (prejudice) का अर्थ ‘पूर्व-निर्णय’ है, अर्थात् किसी मामले के तथ्यों की जाँच किये बिना ही राय बना लेना या मन में निर्णय ले लेना। जैसे किसी धर्म या जाति के लोगों के प्रति कोई धारणा बना लेना और बिना किसी तथ्य को देखे पूर्व धारणा के आधार पर निर्णय दे देना। इस सिद्धांत की आवश्यकता यह है कि न्यायाधीश निश्चित रूप से निष्पक्ष होना चाहिए एवं किसी वाद का फैसला उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर निष्पक्षता के साथ किया जाना चाहिए। इसलिए कोई व्यक्ति, चाहे जिस कारण से भी हो, उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर निष्पक्ष निर्णय नहीं ले सकता तो उसे पूर्वाग्रह से ग्रसित कहा जाएगा। एक व्यक्ति उस मामले में निष्पक्ष निर्णय नहीं ले सकता, जिसमें उसका अपना हित हो, क्योंकि मानवीय स्वभाव है कि अपने हित के विरुद्ध निर्णय ले पाना बहुत कठिन हैं। किसी प्रकार पक्षपातपूर्ण निर्णय न हो ताकि लोगों का निष्पक्ष प्रशासनिक न्याय व्यवस्था पे विश्वास बना रहे, क्योंकि ‘कोई भी व्यक्ति स्वयं के ही मामले में जज नहीं हो सकता’, के साथ-साथ ‘न्याय न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि स्पष्ट रूप से एवं बिना किसी संदेह के होते हुए दिखना भी चाहिए। न्याय-व्यवस्था में निष्पक्ष लोग होने चाहिए, जो न्यायोचित ढंग से एवं पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना निर्णय कर सकें।‘पूर्वाग्रह’ के वशीभूत होकर दिया गया निर्णय का कोई अर्थ नही है तथा इस तरह की सुनवाई का कोई महत्व नही रह जाता है। इसलिए ‘पूर्वाग्रह’ का निष्कर्ष, सिर्फ परोक्ष संकेत, अनुमान या संदेह के आधार पर होना चाहिए। ‘पूर्वाग्रह’ कई प्रकार के होते हैं एवं फ़ैसलों को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करते हैं। जैसे व्यक्तिगत पूर्वाग्रह, धन-संबंधी पूर्वाग्रह, धार्मिक/जातिगत पूर्वाग्रह, विभागीय पूर्वाग्रह, पूर्व धरणा पर आधरित पूर्वाग्रह आदि।
निष्पक्ष सुनवाई के नियम
सामने वाले व्यक्ति को भी स्वयं के बचाव का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए। यह सिद्धांत प्रत्येक सभ्य समाज के लिए अनिवार्य है। ‘‘यदि कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष को सुने बिना फैसला करता है तो उसे सही किसी भी तरह से सही फैसला नहीं कहा जा सकता, तब भी जबकि उसने वही किया हो, जो उचित था।’’लार्ड हेवार्ट ने इस सिद्धांत को व्यक्त किया था, जब उसने कहा था, यह सिर्फ महत्व की नहीं, बल्कि मूलभूत महत्व की चीज है कि न्याय न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि स्पष्ट रूप से बिना किसी संदेह के होते हुए दिखना भी चाहिए। यदि विधयिका ने विशेष तौर पर, बिना सुनवाई के, कुछ अपवादों को छोड़कर, कोई प्रशासनिक कार्यवाही की है तो यह निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांत का के विरुद्ध है।
निष्पक्ष सुनवाई में निम्न अधिकार
- नोटिस पाने का अधिकार
- वाद एवं साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार
- प्रतिकूल साक्ष्य को खंडित करने का अधिकार
- बहस का अधिकार (प्रतिपरीक्षा/जिरह)
सभी नियम या विधियां स्पष्ट नहीं होती है। जहां नियम या विधि स्पष्ट नहीं हो, ऐसी परिस्थिति में उन परिस्थितियों में एक स्वस्थ दिमाग का आदमी तर्कसंगत रूप से क्या सोच सकता है, उसको दृष्टिगत रखकर निर्णय लिया जाता है। ऐसी कई विविध स्थितियों में कानून की नजीरे भी होती है वे इन तर्क संगत धारणाओं को बल प्रदान करते है।
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अपवाद
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के प्रयोगों को संविधन के अनुच्छेद-14 एवं 21 के प्रावधनों के अंतर्गत स्पष्ट रूप से या कुछ विशेष परिस्थितियों में प्रतिबंधित भी किया जा सकता है। इसलिए यदि कानून स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थों के द्वारा प्राकृतिक न्याय के नियमों को प्रतिबंधित कर देता है तो मनमानेपन के आधर पर यह नियमों की अवहेलना नहीं मानी जाएगी।आपात स्थिति
किसी आपात स्थिति या असाधरण मामलों में जब निरोधक या निवारक कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता होती है, ऐसी स्थिति में नोटिस एवं सुनवाई का इंतजार नही किया जा सकता है। जैसे कि यदि कोई खतरनाक इमारत जिससे आस पास के लोगो को जीवन को खतरा हो उसे गिराने के मामले। यद्यपि किसी आपात स्थिति का प्रशासनिक निर्धारण, जिसके द्वारा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अवरुद्ध किया जाता है तो ये अंतिम नहीं हो सकता है। न्यायालयें ऐसी स्थितियों की समीक्षा कर सकते हैं।
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