संघवाद क्या है? संघवाद की मुख्य विशेषताएं। Federalism in India – Federal Features of Indian Constitution

संघवाद क्या है? संघवाद की मुख्य विशेषताएं। Federalism in India – Federal Features of Indian Constitution


संघवाद क्या है?​

संघवाद (Federalism) शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘Foedus’ से हुई है जिसका अर्थ एक प्रकार का समझौता या संधि है। संघवाद एक राजनीतिक प्रणाली है जिसमें केंद्र, राज्य , प्रांत या राज्यों की स्वायत्तता को बढ़ावा मिलता है, जो मिलकर एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण करते हैं। संघीय शासन व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केन्द्रीय प्राधिकार और उसकी विभिन्न आनुषंगिक इकाइयों के बीच बटी होती है।

आम तौर पर संघीय शासन व्यवस्था में दो स्तर पर सरकारें होती हैं। इसमें एक केंद्रीय सरकार होती है जो पूरे देश के लिए होती है, जिसके जिम्मे राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं। फिर राज्य या प्रांतों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनिक कामकाज को देखती हैं।


केंद्र व राज्य के अलग-अलग कार्य होते हैं, तथा शासन के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने-अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर अपना कार्य करती हैं। संघवाद विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देता है। भारत में केंद्र और राज्य सरकारों की सर्वोच्चता नहीं है, संविधान ही सर्वोच्च है। क्योंकि केंद्र व राज्य दोनों को संविधान द्वारा ही शक्तियां प्राप्त होती है, तथा संविधान की सर्वोच्चता न्यायिक हस्तक्षेप के द्वारा सुरक्षित रखी गई है।

संघवाद में सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति​

संघ के लक्षणों में संबसे महत्वपूर्ण लक्षण है कि उसके पास एक स्वतंत्र न्यायपालिका हो जो संविधान की व्यख्या करें। केंद्र तथा राज्य के बीच हुए विवादों को सुलझाना सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार हैं। यदि केंद्र अथवा राज्य सरकार द्वारा पारित कोई कानून संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता हो तो न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

एकात्मक शासन​

एकात्मक व्यवस्था में शासन का एक ही स्तर होता है और बाकी इकाइयाँ उसके अधीन होकर काम करती हैं। इसमें केंद्रीय सरकार प्रांतीय या स्थानीय सरकारों को आदेश दे सकती है। लेकिन संघीय व्यवस्था में केंद्रीय सरकार राज्य सरकार को कुछ विशेष करने का आदेश नहीं दे सकती है। राज्य सरकारों के पास अपनी शक्तियाँ होती है और इसके लिए वह केंद्रीय सरकार को जवाबदेह नहीं होती हैं। ये दोनों ही सरकारें अपने-अपने स्तर पर जनता के प्रति जवाबदेह होती है।

भारत में संघीय व्यवस्था तीन स्तरीय शासन व्यवस्था हैं​

  1. संघ सरकार या केंद्र सरकार
  2. राज्य सरकार
  3. पंचायत और नगरपालिका
भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत को राज्यों का संघ ( Union of States) की संज्ञा दी है। भारत के संविधान में कहीं भी संघ (Federation) शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है। हमारे संविधान का निर्माण करते समय संविधान निर्माताओं के सामने भारत शासन अधिनियम, 1935 का संघात्मक सरकार का मॉडल था। संविधान निर्माता उस व्यवस्था को अपनाना चाहते थे, जो भारतीय परिस्थितियों और जनमानस की प्रकृति के अनुकूल हो। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में कहा कि जो व्यवस्था हमारे अनुकूल हो वही श्रेष्ठ है।

संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ . भीमराव अम्बेडकर ने “राज्यों का संघ” वाक्यांश बहुत सोच समझकर रखा था। यह दो तथ्यों को इंगित करता था। पहला, भारत की संघीय व्यवस्था संघटक इकाइयों के समझौते के फलस्वरूप निर्मित नहीं की गई, अपितु ब्रिटिश शासन काल के प्रान्तों और देशी रियासतों को मिलाकर बनाया गया था। दूसरा, भारत के संघ में सम्मिलित राज्य संघ सरकार से किसी भी स्थिति में अलग नहीं हो सकते हैं।

भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है किन्तु भारत के लिए (Federation) शब्द के स्थान पर (Union) शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका कारण यह है कि भारतीय संघ संघटक इकाइयों के मध्य किसी संविदा या समझौते का परिणाम नहीं है बल्कि इसका सृजन स्वयं संविधान द्वारा किया गया है और इसे कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है। भारत की संघीय प्रणाली कनाडा के संविधान से प्रेरित है। कनाडा के समान ही भारत में भी संघ तथा राज्यों की शक्तियों का संविधान द्वारा स्पष्ट उल्लेख किया गया है तथा अवशिष्ट शक्तियाँ संघ को प्रदान करते हुए एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की गई हैं। इस प्रकार भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी केन्द्र के पक्ष में झुका हुआ है और आपात के दौरान तो यह एक प्रकार से एकात्मक स्वरूप ग्रहण कर लेता है, जो देश की एकता और अखण्डता के लिए उचित ही नहीं आवश्यक भी है। उल्लेखनीय है कि, भारतीय संविधान द्वारा विधायी, प्रशासनिक तथा वित्तीय शक्तियों का विभाजन किया गया है किन्तु न्यायिक शक्ति को विभाजन से परे रखा गया है। भारत में न्यायिक प्रणाली एकीकृत है अर्थात् न्यायपालिका शक्ति का संघ और राज्यों के मध्य विभाजन नहीं किया गया है। अतः केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।


संवैधानिक प्रावधान​

भारत, राज्यों का एक संघ है। भारत के संविधान को विधियाका, कार्यपालिका और केंद्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों में विभाजित किया गया है, जो संविधान को संघीय विशेषता प्रदान करता है जबकि न्याय पालिका एक श्रेणीबद्ध संरचना में एकीकृत है। केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों का उल्लेख संविधान के भाग XI और XII में विधायी, प्रशासनिक तथा वित्तीय संबंधों के तहत किया गया है। संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय को सुरक्षित करने के लिए विभिन्न प्रावधान तय किए गए हैं।

केंद्र-राज्य संबंध तीन भागों में विभाजित हैं जिनका उल्लेख नीचे किया जा रहा है:

(a). विधायी संबंध (अनुच्छेद 245-255)

(b). प्रशासनिक संबंध (अनुच्छेद 256-263)

(c). वित्तीय संबंध (अनुच्छेद 264-293)


विधायी संबंध​

केंद्र अथवा राज्य द्वारा किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति को विधायी शक्ति कहा जाता है। भारत एक ऐसी प्रणाली का पालन करता हैं जिसमें विधायी शक्तियों का वर्णन करने वाली दो प्रकार की विषय सूची होती है, जिन्हें क्रमशः संघ सूची और राज्य सूचीके रूप में जाना जाता है। इसके अलावा एक अन्य सूची भी है जिसे समवर्ती सूचीकहा जाता है।

संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के 100 विषय शामिल हैं और यह तीनों सूचियों में सबसे बड़ी है। इस सूची से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र के पास होता है। जैसे रक्षा, रेलवे, पोस्ट और टेलीग्राफ, आयकर, कस्टम ड्यूटी, आदि इस सूची में शामिल कुछ महत्त्वपूर्ण विषय हैं।

राज्य सूची में शामिल विषयों पर राज्य के विधानमण्डलों को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। साधारण स्थितियों में संसद इस शक्ति का उल्लंघन नहीं कर सकती परन्तु कुछ आपवादिक परिस्थितियों में संसद, राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। इस सूची में क्षेत्रीय अथवा स्थानीय महत्व के विषय शामिल हैं, जैसे – लोक व्यवस्था, पुलिस, स्थानीय शासन, कृषि, लोक स्वास्थ्य और स्वच्छता, आदि। राज्य सची में मूलतः 66 विषय शामिल थे। वर्तमान में इस सूची में संख्या की दृष्टि से 61 विषय शेष हैं।

समवर्ती-सूची इसे तीसरी सूची भी कहते हैं। इस सूची में शिक्षा, स्टाम्प ड्यूटी, ड्रग्स, बिजली, समाचार पत्र, आपराधिक कानून, श्रम कल्याण जैसे कुल 52 विषय हैं। इस सूची में शामिल विषयों पर संसद तथा राज्य विधानसभा दोनों को कानून बना सकते हैं। परंतु किसी विषय पर संघ और राज्य के कानून के बीच टकराव की स्थिति में संघ के कानून को सर्वोपरि माना जाएगा।

यदि कोई विषय किसी भी सूची में न हो? ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार को संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों के आधार ऐसे विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है जो न राज्य सूची में हो और न ही समवर्ती सूची में। इसे केंद्र सरकार की अवशिष्ट शक्ति कहा जाता है।

प्रशासनिक संबंध​

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256-263 का संबंध केंद्र और राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंधों से संबंधित है। अनुच्छेद 256 यह बताता है कि संसद द्वारा बनाए गये कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करना प्रत्येक राज्य का कर्तव्य है। कोई भी मौजूदा कानून जो उस राज्य पर लागू होता है और संघ की कार्यकारी शक्ति का विस्तार करने हेतु एक राज्य को इस तरह के दिशा-निर्देश दिए जाते हैं जिसे राज्य को इस उद्देश्य हेतु भारत सरकार के सामने प्रस्तुत करना जरूरी होता है।
  1. सामान्य रूप में संघ तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, परंतु प्रशासनिक शक्तियों के विभाजन में संघीय सरकार अधिक शक्तिशाली है और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार के प्रशासन पर संघ को पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया है।
  2. केंद्र को यह अधिकार दिया गया है कि वह आवश्यकतानुसार कभी भी राज्यों को निर्देश दे सकता है। इसके अलावा संसद को यह अधिकार है कि वह अंतर-राज्यीय नदी विवादों पर फैसला कर सकती है।
  3. भारतीय संविधान ने प्रशासनिक व्यवस्था में एकरूपता सुनिश्चित करने का भी प्रावधान किया है। इसमें IAS और IPS जैसी अखिल भारतीय सेवाओं का निर्माण और उन्हें राज्य के प्रमुख पद आवंटित करने संबंधी प्रावधान शामिल हैं। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की मौजूदगी से केंद्र सरकार को अपने अधिकारों का प्रयोग करने और उनके माध्यम से राज्यों पर नियंत्रण रखने का मार्ग प्रशस्त होता है, क्योंकि केंद्र का अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्यों पर अधिकार होता है।
  4. अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की भर्ती तो केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, परंतु उनकी नियुक्ति राज्यों में होती है।

वित्तीय संबंध​

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 268-293 तक केंद्र एवं राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधों की व्याख्या की गई है। साथ ही संघ एवं राज्यों के मध्य वित्तीय संसाधनों का विभाजन किया गया है, जो कि भारत शासन अधिनियम, 1935 पर आधारित हैं।गौरतलब है कि वित्त आयोग के सुझाव पर केंद्र एवं राज्यों के मध्य राजस्व का वितरण किया जाता है। संविधान, द्वारा केंद्र और राज्य सरकारों को राजस्व का स्वतंत्र स्रोत प्रदान किए गए है।
  • संविधान के अनुसार, संसद के पास संघ सूची में शामिल विषयों पर कर (टैक्स) लगाने की शक्ति है।
  • राज्य विधायिकाओं के पास राज्य सूची में शामिल विषयों पर कर (टैक्स) लगाने की शक्ति है।
  • संसद और राज्य विधायिकाओं दोनों के पास ही समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर कर लगाने का अधिकार है।
  • संसद के पास अवशिष्ट विषयों से संबंधित मामलों पर भी कर लगाने का अधिकार है।

भारत में संघवाद का महत्त्व​

  1. भारतीय प्रशासन में शक्ति केंद्र से स्थानीय निकायों यानी पंचायत तक प्रवाहित होती है, इसी कारण देश में सत्ता का विकेंद्रीकरण आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि केंद्र सभी शक्तियों का अधिग्रहण न करे। यही से संघवाद की आवश्यकता का जन्म होता है।
  2. संघीय प्रणाली प्रशासनिक कार्य के बोझ तले दबे प्रशासन की मदद करती है। गौरतलब है कि केंद्र में बैठे अधिकारी गाँवों तक नहीं पहुँच सकते है जिसके कारण गाँव विकास से अछूते रह जाते हैं। इसलिये स्थानीय सरकार कार्यपालिका को निचले स्तर तक पहुँचने में मदद करती है और देश के सभी नागरिकों की लोकतंत्र में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करती है।
  3. भारत में विभिन्न नस्लों और धर्मों के लोग रहते हैं। भारत ने एक धर्मनिरपेक्ष विचार को अपनाया जो 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया। संघवाद की अवधारणा देश के अंतर्गत विविधता को कायम रखने में मदद करती है।

भारत में संघवाद के समक्ष चुनौतियाँ​

क्षेत्रवाद भारत में संघवाद के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक माना जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि संघवाद सबसे अधिक लोकतंत्र में ही कामयाब रहता है, क्योंकि यह केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के केंद्रीकरण को कम करता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के विपरीत भारत में शक्तियों का वितरण संविधान की सातवीं अनुसूची में वर्णित तीन सूचियों के तहत किया जाता है। शक्तियों के विभाजन का आधारभूत सिद्धांत यही माना जा सकता है कि जो विषय राष्ट्रीय महत्त्व के हैं उन पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र के पास है और जो विषय क्षेत्रीय महत्त्व के हैं उन पर कानून बनाने का अधिकार राज्य के पास है। इसके अलावा समवर्ती सूची में वे विषय शामिल हैं जिनमें केंद्र व राज्य दोनों की ही भागीदारी की आवश्यकता होती है। परंतु विवाद की स्थिति में केंद्र को प्रमुख माना जाएगा।

इस प्रकार शक्तियों के बँटवारे के कई अन्य प्रावधान भी हैं जिनमें केंद्र को वरीयता दी गई है, जो कि राज्यों के मध्य केंद्रीकरण का भय उत्पन्न करता है।

एक सामान्य महासंघ में संविधान में संशोधन की शक्ति महासंघ और इसकी इकाइयों के बीच साझा आधार पर विभाजित होती है। भारत में संविधान संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 368 और अन्य प्रावधानों के तहत केंद्र के ही पास है।

भारत में प्रत्येक राज्य के लिये राज्यपाल का कार्यालय एक संवेदनशील मुद्दा रहा है, क्योंकि यह कभी-कभी भारतीय संघ के संघीय चरित्र के लिये खतरा बन जाता है। केंद्र द्वारा इस तरह के संवैधानिक कार्यालय का दुरुपयोग किया जाना हमेशा से ही देश में तीखी बहस और मतभेद का कारण रहा है।

भारत में भाषाओं की विविधता भी कभी-कभी संविधान की संघीय भावना को ठेस पहुँचती है। भारत में संवैधानिक रूप से स्वीकृत 22 भाषाएँ हैं। इसके अलावा देश में सैकड़ों भाषाएँ बोली जाती हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब संघ की सबसे मज़बूत इकाई दूसरों पर एक विशेष भाषा को लागू करने का प्रयास करती है। भारत में आधिकारिक भाषा के लिये लड़ाई आज भी एक ज्वलंत मुद्दा है।

 
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