मैना कुमारी जिसने 13 वर्ष की आयु मे आग मे जलना पसंद किया परंतु क्रांतिकारी नाना साहेब पेशवा का पता नही बताया।
3 सितम्बर 1857 को जब...बिठूर में एक पेड़ से बंधी 13 वर्ष की लड़की को, ब्रिटिश सेना ने जिंदा ही आग के हवाले किया, धूँ धूँ कर जलती वो लड़की, उफ़ तक न बोली और जिंदा लाश की तरह जलती हुई, राख में तब्दील हो गई।
13 साल की उम्र में मैना कुमारी ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया परंतु अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का ठिकाना नहीं बताया, सबसे कम उम्र की बलिदानी हुई मैंना कुमारी, 3 सितंबर 1857 मैंना कुमारी ये वही दिन था जिस मैंना कुमारी ने अपना बलिदान देकर से बलिदान दिवस बना दिया।
दे दी आज़ादी बिना खड़ग बिना ढ़ाल सब बकवास फैलाया गया हैं, लाखों लड़े और शहीद हुवे तब हमें आज़ादी मिली।
पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी। जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े,वह वहां से गायब हो गयी। सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया। सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी। अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।
पर मैना जीवित थी। रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं। ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।
नाना साहेब पेशवा पर अँग्रेजी हुकूमत ने एक लाख का ईनाम घोषित किया था।
नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित था। जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था। उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है। अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही। यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।
शत शत नमन है इस महान बाल वीरांगना को!
3 सितम्बर 1857 को जब...बिठूर में एक पेड़ से बंधी 13 वर्ष की लड़की को, ब्रिटिश सेना ने जिंदा ही आग के हवाले किया, धूँ धूँ कर जलती वो लड़की, उफ़ तक न बोली और जिंदा लाश की तरह जलती हुई, राख में तब्दील हो गई।
कौन थी मैना कुमारी (Maina Kumari)?
मैना कुमारी नाना साहब पेशवा की दत्तक पुत्री थी,जिसे 160 वर्ष पूर्व, आउटरम नामक ब्रिटिश अधिकारी ने जिंदा जला दिया था।13 साल की उम्र में मैना कुमारी ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया परंतु अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का ठिकाना नहीं बताया, सबसे कम उम्र की बलिदानी हुई मैंना कुमारी, 3 सितंबर 1857 मैंना कुमारी ये वही दिन था जिस मैंना कुमारी ने अपना बलिदान देकर से बलिदान दिवस बना दिया।
परन्तु आज़ादी का सिरमौर वो ले गये जो कभी आज़ादी के लिये लड़े ही नहीं
आज़ इतिहास इन विरंगनाओ को भुला चुका है, सँभवतः आप मैना कुमारी का नाम भी नहीं जानते हैं, आप आज़ादी की लडाई को लड़ने वालों मे सर्वोपरी नाम महात्मा गांधी और नेहरू का सुनते हैं आ रहे हैं, क्योंकि हमारे शिक्षा पद्धति मे भी यही जोड़ गया और हमें पढ़ाया गया था। परंतु सचाई तो ये हैं की रति भी आज़ादी की लडाई इनका सहयोग नहीं था, इनकी तो मंसा यही थी ,की अंग्रेज़ ही हम पर राज़ करें, बस हमे थोड़ी सहुलियत मिल जाय बस।दे दी आज़ादी बिना खड़ग बिना ढ़ाल सब बकवास फैलाया गया हैं, लाखों लड़े और शहीद हुवे तब हमें आज़ादी मिली।
नाना साहेब 1857 के युद्ध के प्रमुख क्रांतिकारी थे
1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई; पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा। भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया। उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।मैंना कुमारी ने आज़ादी की क्रांति को अपने सुरक्षा से ज्यादे अहम रखा
मैना नानासाहब की दत्तक पुत्री थी। वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी। नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें ? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयां आयें। अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था। ऐसे में मैना ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं
नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं। फिर मैना तो एक कन्या थी। अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी। उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था। उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं। मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है। अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।बिठूर महल मे मैना कुमारी को ढूँढने के लिये अंग्रेजों ने तोप के गोले बरसाये
पर कुछ दिन बाद ही अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा। इस पर मैना बाहर आ गयी। सेनापति हे नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था। अतः उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता हो गयी थी। मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था। अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी। जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े,वह वहां से गायब हो गयी। सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया। सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी। अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।
पर मैना जीवित थी। रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं। ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।
नाना साहेब पेशवा पर अँग्रेजी हुकूमत ने एक लाख का ईनाम घोषित किया था।
नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित था। जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था। उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है। अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही। यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।
अंततः मैंना कुमारी आग मे जल गई परंतु अंगेरेजों को किसी क्रांतिकारी का ठिकाना नहीं बताया
अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया। निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी। इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।शत शत नमन है इस महान बाल वीरांगना को!
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