साक्ष्य अधिनियम में उपधारणा | Presumption of Law and Fact in Indian Evidence Act | May Presume, Shall Presume & Conclusive Proof

साक्ष्य अधिनियम में उपधारणा | Presumption of Law and Fact in Indian Evidence Act | May Presume, Shall Presume & Conclusive Proof


उपधारणा से आप क्या समझते है?​

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 में वर्णित उपधारणा से तात्पर्य मानवीय ज्ञान, अनुभव, योग्यता के आधार पर, किसी मान्य तथ्य के आधार पर किसी दूसरे तथ्य का अनुमान लगा लेना उपधारणा कहलाता है। उपधारणा तर्कों पर आधारित होती है। उपधारणा कोई प्रमाण (Proof) नहीं है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में उपधारणा (Presumption) की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है। कुछ ऐसे तथ्य होते है जिन्हें साक्ष्य नहीं माना जा सकता क्योंकि इनमें प्रमाणकारी शक्ति नहीं होती है। ऐसे अभियोजन की कार्यवाही में अभियुक्त के विरुद्ध यह तथ्य कि उसका आचरण बुरा है, असंगत होता है। जब तक कि उस बात का साक्ष्य न दिया गया हो कि वह सदाचारी है।


जब न्यायालय किसी तथ्य के अस्तित्व को मान ले तो इसे उपधारणा (Presumption) कहते हैं। किसी उपधारणा का प्रभाव यह होता है कि जिस पक्षकार के पक्ष में उपधारणा की जाती है वह उस तथ्य को साबित करने से बच जाता है। न्यायालय उसके पक्ष में किसी तथ्य के अस्तित्व को मान लेता है और जब तक कि उसका खंडन न कर दिया जाय।

उपधारणाये​

भारतीय साक्ष्य विधि के अंतर्गत दो प्रकार कि उपधारणाये होती है।

1. तथ्यात्मक उपधारणा (presumption of fact)

उपधारणा कर सकेगा (May presume) : IEA Sec. 86, 87, 88, 88A, 90, 90A, 113A, 114

2. विधिक उपधारणा (presumption of law)

उपधारणा करेगा (Shall presume)

(1) खण्डनीय उपधारणा IEA Sec. 79-85, 89, 105, 111A, 113B

(2) अखण्डनीय उपधारणा या निश्चायक सबूत IEA Sec. 41, 112, 113, 115, 116, 117 & IPC Sec. 82

तथ्या की उपधारणा (presumption of fact)​

तथ्या की उपधारणा जो सदैव खण्डनीय होती है। जैसे यदि कही धुंआ दिखाई देता है तो यह उपधारणा की सकती है कि कही आग लगी हो लेकिन ऐसा सत्य न होकर मृग मरीचिका हो अर्थात भ्रम हो सकता है, जिसका खंडन किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत “उपधारणा कर सकेगा” (May Presume) जिसका तात्पर्य है, न्यायालय तथ्यों के आधार पर उपधारणा कर सकता है जो किसी अधिकार, योग्यता, निर्योग्यता के सम्बन्ध में हो सकता है। इस सम्बन्ध में न्यायालय को यह अधिकार है कि अपने विवेक का प्रयोग करते हुए खंडन के लिए साक्ष्य की मांग करे। इस प्रकार यह न्यायालय के विवेक पर है कि वह उपधारणा करें या न करे (न्यायालय ऐसी उपधारणा उपलब्ध तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर करता है)। न्यायालय ऐसे मामले में उपधारणा करने को बाध्य नहीं है।

उदाहरण:– यदि किसी व्यक्ति के कब्जे (Possession) से चोरी का माल चोरी के तुरन्त बाद पाया जाता है, तो न्यायालय यह ‘उपधारणा कर सकेगा’ कि वह चोर है या यह जानते हुये कि माल चोरी का है, उसने प्राप्त किया है। परन्तु जिस व्यक्ति के विरुद्ध न्यायालय ने उपधारणा की है, उसे न्यायालय साक्ष्य देकर ऐसी उपधारणा को खण्डित (समाप्त) करने का अवसर देगा। उपरोक्त अध्ययन एवं उदाहरण से स्पष्ट है कि उपधारणा कर सकेगा’ अर्थात् तथ्य की उपधारणा हमेशा खण्डनीय (Rebuttable) होती है।


विधिक उपधारणा विधिक (presumption of law)​

उपधारणा ऐसी उपधारणा है जो विधि के नियमों के आधार पर की जाती है। विधि की उपधारणा दो प्रकार की होती है –

(i) उपधारणा करेगा (Shall Presume) अर्थात न्यायालय विधि के मान्य नियमों के अनुसार किसी अधिकार, योग्यता या तथ्य के बारे में मानने के लिए बाध्य है कि कोई तथ्य ऐसा है। जैसे यह प्रश्न हो कि क्या कोई व्यक्ति जिन्दा है या मर चुका है तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 108 प्रावधान करती है कि जब किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह प्रश्न हो है कि जीवित है या मर गया है और यह साबित कर दिया जाता है कि सम्बन्धित व्यक्ति के बारे में सात वर्षों से उन लोगों द्वारा कुछ भी नहीं सुना गया जीवित रहने पर जिनके द्वारा स्वाभाविक रूप से सुना (देखा) जाता (जैसे माता, पिता, पति, पत्नी, पुत्र इत्यादि) तो न्यायालय यह ‘उपधारणा करेगा’ कि उस व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है (उपधारणा करेगा अर्थात् उपधारणा करने को बाध्य है)। परन्तु साक्ष्य देकर इस प्रकार की उपधारणा को खण्डित अर्थात् समाप्त किया जा सकता है।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-A के अंतर्गत यदि विवाह की तिथि से 7 वर्ष के भीतर स्त्री की मृत्यु अस्वाभाविक रूप से हो जाती और यह साक्ष्य आता है कि उसके साथ क्रूरता की गयी थी तो न्यायालय यह उपधारणा कर सकेगी कि उसको आत्महत्या के लिए विवश किया गया है लेकिन, धारा 113-B में यदि यह साक्ष्य आता है कि दहेज कि मांग कि गयी थी तो न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि उसकी दहेज हत्या की गयी है। यह न्यायालय की मानने की बाध्यता होगी कि उसकी दहेज़ हत्या की गयी है।

(ii) निश्चयात्मक सबूत (Conclusive Proof) साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत जहाँ कहीं भी इस शब्द का प्रयोग किया गया है, वहां उन तथ्यों के अस्तित्व के सम्बन्ध में निश्चायक सबूत माना जायेगा जो एक विधिक उपधारणा है। ऐसी स्थिति में न्यायालय न तो खंडनीय साक्ष्य की मांग करेगा और यदि ऐसा साक्ष्य दिया भी जाता है तो लेने से इन्कार करेगा। जैसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 82 के अंतर्गत 7 वर्ष से कम उम्र के बालक द्वारा किया गया कार्य अपराध नही माना जायेगा।

जहाँ पर किसी न्यायालय द्वारा किसी को अपने निर्णय के माध्यम से कोई हैसियत प्रदान की गयी है तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 41 के अंतर्गत यह एक निश्चायक सबूत माना जायेगा, जिसके खण्डन का साक्ष्य नहीं लिया जायेगा। साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के अंतर्गत धर्मजत्व का सिद्धांत दिया गया है, जिसमें यह बताया गया है कि वैवाहिक काल के दौरान जो संतान पैदा होती है वह धर्मज है, यह एक विधिक बाध्यता है कि न्यायालय ऐसे तथ्य का निश्चायक सबूत मानेगी। यह नियम लोक नीति और सामाजिक मर्यादा को बनाये रखने के लिए दिया गया है।

इस प्रकार ‘’उपधारणा कर सकेगा’’ से तात्पर्य न्यायालय को खण्डन का साक्ष्य मांगने का अधिकार है। ‘’उपधारणा करेगा’’ में न्यायालय को ऐसा अधिकार नहीं है लेकिन यदि ऐसा साक्ष्य दिया जाता है तो न्यायालय उसे लेने से इन्कार नहीं करेगी और ‘’निश्चायक सबूत’’ के सम्बन्ध में यदि खण्डन का कोई साक्ष्य दिया भी जाये तो अपवादों को छोड़कर किसी भी पारिस्थिति में • खंडन का साक्ष्य न तो माँगा जायेगा न लिया जायेगा। भारत में केवल तथ्य की उपधारणा एवं विधि की उपधारणा मान्य है जबकि अंग्रेजी विधि के तथ्य और विधि की मिश्रित उपधारणा भी मान्य है।

रसेल के अनुसार जब हम एक तथ्य के आधार पर अन्य तथ्य का अनुमान लगा लेते है तो यह उपधारणा करना कहलाता है। वेस्ट महोदय के अनुसार उपधारणा एक निष्कर्ष है जो न्यायालय संभाव्य तर्क का प्रयोग कर के किसी अन्य सत्य या मान्य सत्य सिद्धि से किन्हीं तथ्यों के सकारात्मक या नकारात्मक अस्तित्व को मान लेना उपधारणा करना है। शाब्दिक अर्थों में उपधारणा बिना जांच के सबूत मान लेता है। संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि उपधारणा एक अनुमान है जो विपरीत साक्ष्य पर ली जाती है।

 
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