इस कविता के बारे में :
इस काव्य ‘तुम्हारी कुछ तारीफे’ को Yahya Bootwala के लेबल के तहत Yahya Bootwala ने लिखा और प्रस्तुत किया है।*****
विनाश के बाद के निर्मान में ली गयी
जिंदगी में पहली सास सी लगती हो तुम
जिसके होने से ही सुकून मिल जाता है
और जिसके ना होना हर चीज़ को
बेमतलब बना देता है
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चादर की सिलवटें में छुपे राज
जैसी लगती हो तुम सुलझने पर भी कहा
मेरी निशानियाँ भुला पाती हो
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हर करवट पर मेरे साथ लिपटी जाती हो
जितना लिपटे संग उतनी मुश्किल
जुदाई कर जाती है मेरी कलम जो कोशिश
करके भी ब्यान नहीं कर पाए वैसे किस्से
सी लगती हो
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क्यू कैद करू तुम्हें कागज़ पर
तुम लकीरों की बंदिश से आजाद
ही अच्छी लगती हो जेवर सी पहनती हो
अपनी हर अदा बिंदी मे सादगी ओर
झूमको मे मेरी जान रखती हो
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वैसे तो यह दुनिया है तुम्हारी कदमों
की धूल के बराबर तुम फिर भी इसे
पयाल जैसी पहनती हो
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खोकर जिसे जन्नत भी जमीन से जलता हैं
तुम खुदा सी अफसोस सी लगती हो
क्यू ना रखूं तुम्हें तारों के दर्जे पर
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तुम आसमान सी आजाद लगती हो
मेरे ज़मीर की उम्मीद के लिए जरूरी लगते हो
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लोग कहते हैं कि दोनों मिलते हैं इक जगह
मैं जानता हू इसे नजरो का धोखा कहते है
फिर भी उस धोखे पर तेरा इन्तज़ार करता हू