Bhagwan Mahavir Ki Kahani: चण्डकौशिक [भगवन महावीर]

Bhagwan Mahavir Ki Kahani का अंश:

चण्डकौशिक सर्प की बांबी( सांप का बिल) आयी। भगवान ध्यानस्थ खड़े हो गए। उसने विष छोड़ा। भगवान के पैर के अंगूठे को डसा। उसके जहर का उनके शरोर पर कोई प्रभाव न हुआ…। इस Bhagwan Mahavir Ki Kahani को अंत तक जरुर पढ़ें…

Bhagwan Mahavir Ki Kahani: चण्डकौशिक [भगवन महावीर]


भगवान महावीर जब श्वेताम्बिक्रा नगरी की ओर प्रस्थान कर रहे थे तब मार्गस्थ लोगों ने कहा–भगवन्‌ ! आप इधर न पघारें। मार्ग में एक भयंकर जहरीला चण्डकौशिक सर्प रहता है। जो भी व्यव्ति इस मार्ग से गुजरता है, उसे वह डस जाता है।

सैकड़ों व्यक्ति की इस कारण से मृत्यु हो गया। अंब इस मार्ग से कोई भी व्यक्ति आना-जाना नहीं चाहता है। अतः आप भी इस पथ से न जाएँ।

किन्तु भयवान महावीर उपसरगों से कब विचलित होने वाले थे !भय और डर से कब वे पराजित होने वाले थे ! उन्होंने अपना पूर्व निश्चित मार्ग न बदला, और मन्द गति से चलते रहे |

चण्डकौशिक सर्प की बांबी( सांप का बिल) आयी। भगवान ध्यानस्थ खड़े हो गए। उसने विष छोड़ा। भगवान के पैर के अंगूठे को डसा। उसके जहर का उनके शरोर पर कोई प्रभाव न हुआ |

तब फिर उसने उनके कंधों पर चढ़कर कंधों को डसा । फिर भी कोई असर नहीं । भगवान ज्यों के त्यों मेरु की भांति ध्यान-मद्रा में लीन रहे ।

उसे उनका रुधिर (खून) बहुत स्वादिष्ट लगा। वह उसे पीने लगा। मन-ही-मन जिज्ञासा जागृत हुई कि क्या कारण है, मेरे विष का इन पर कोई असर नहीं हुआ ? चितन, मनन, ऊहापोह करते ही उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया ।

ये तो चोबीसवें तीयंकर भगवान महावीर हैं।’ झट उनके शरीर से नीचे उतरा। उनके चरणों में लोटने लगा। पूर्वभव देखते ही वह दुःख करने लगा, हाय ! साधु जीवन में मैंने गुस्सा किया जिससे मुझे तिर्यञ्च-गति ( संसारी जीवों की दूसरी गति, जिसमें जीवों को दु:ख भोगने पड़ते हैं ) में आना पढ़ा ।

अब उसे उन क्रोधजनित कुत्सित कार्यों का भी स्मरण हुआ । उनकी आलोचना करता हुआ शरीर की ममता छोड़कर अनशनपूर्वेक वह बांबी में रहने लगा।

भगवान महावीर वहां से चले । लोगों ने देखा । आश्चर्य हुआ। यह क्या बात, सर्प ने इन्हें ढसा नहीं । कुछ नजदीक आकर देखा तो सर्प बिल्कुल शान्त होकर बैठा है ।

सारे शहर में यह बात प्रसिद्ध हो जाने से सैकड़ों व्यक्ति उसकी पूजा व अर्चना के लिए आने लगे। दूध, खाण्ड, मेवे-मिध्ठान आदि चढ़ने लगे।

उन पदार्थों की गन्ध से अनेक चींटियां जमा हो गईं। सर्प के शरीर को चुंभने लगीं। उसने इस असहनीय वेदना को समभाव से सहा। क्रोध नहीं किया।

समता व क्षमा के प्रभाव से वह देव योनि में उत्पन्त हुआ ।

जिस व्यक्ति ने क्रोघावेश में साधु जीवन को बिगाड़ा था, उसी जीव ने तिर्यञ्च-गति ( संसारी जीवों की दूसरी गति, जिसमें जीवों को दु:ख भोगने पड़ते हैं ) में समता के झुले में झूलकर अपने जीवन को सुधारा, यह है समता का साकार सुफल ।

समता के सदभाव से, शत्रु मित्र साकार।

मुनि कन्हैया’ क्रोध्न से, निशिद्रत अमित बिगाड़ ॥
 

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