Bal Kahani Hindi Mein का अंश:
शिष्य ने हाथ जोड़कर गुरु से निवेदनकिया और प्रयाश्चित करने के लिए प्रार्थना की । गुरु ने उसकी बात को सुन कर भी अनसुना कर दिया ।गुरु कुछ भी बोले नहीं। दोनों को जहाँ जाना था वहां पर पहुंच गए।…।
वर्षा ऋतु का समय था। चारों तरफ बादल उमड़ रहे थे। किसान लोग खेतों मेंजा रहे थे। जगह-जगह गड़ढ़ों में पानी भर रहा था।
मेंढक टरें-टरे कर रहेथे। कहीं-कहीं पानी में से निकलकर छोटे-छोटे मेंढक कूद-फांद रहे थे ।
उस समयकिसी कार्य से गुरु और शिष्य कहीं जा रहे थे। अंचानक असावधानी से गुरु केपैरों तले एक छोटा मेंढक आ गया और वह मर गया ।
शिष्य ने हाथ जोड़कर गुरु से निवेदनकिया और प्रयाश्चित करने के लिए प्रार्थना की । गुरु ने उसकी बात को सुन कर भी अनसुना कर दिया ।
गुरु कुछ भी बोले नहीं। दोनों को जहाँ जाना था वहां पर पहुंच गए।
शिष्य आया । नमस्कारकर बोला–गुरुदेव ! उस मेढक का प्रायश्चित करना है।
यह सुनते ही गुरु क्रोध मेंलाल हो गये, रोधपूर्ण वऋ-दृष्टि से शिष्य को देखने लगे । शिष्य ने सोचा, अभीकहना उपयुक्त नहीं था क्योंकि गुरुजी कार्य में व्यस्त हैं।
सायंकाल प्रतिक्रमण केसमय याद दिलाना उपयुक्त होगा । वह उठा और अपने स्थान पर चला गया ।
धीरे-धीरे शाम भी होने को आयी, सूर्य अस्त हुआ । प्रतिक्रमण करने के लिए सभी संतगण उधत हुए।
आलू -चना लेने के लिए गुरु के समक्ष वहू शिष्य आया । दिन में किये गये गलतीकी आलोचना करके बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर वह बोला–पृज्यवर! आजमार्ग में आपके पैरों से मेढक की हत्या हो गयी थी। उसकी आप भीप्रयाश्चितकर लें।
गुरुजी अब अपने कर्तव्य को भूल गये। गुस्से में विवेकहीन बन गये औरअपना डण्डा लेकर शिष्य के पीछे क्षपटे । उसे पकड़ने के लिए दौड़ें और बोले—जरा इधर आ, तुझे बताऊं मेंढक की हत्या कैसे हुई और कैसे होती है।
शिष्यआगे-आगे और गुर पीछे-पीछे दौड़ने लगे।
गुरु को इस तरह आवेश मेंदेखकर शिष्य कहीं छिप गया। उपाश्रय में गहरा अंधेरा था। खम्भे भी बहुत थे ।अचानक एक खम्से से गुरुजी टकरा गये और गिरते ही उनका देहान्त हो गया ।
उनकी वह आत्मा शरीर को छोड़कर चण्ड्कौशिक सर्प के रूप में उत्पन्न हुई ।
क्रोध के कारण उनकी संयम-साधना सफल न हो सकी और उनकोतिर्यञ्च-गति ( संसारी जीवों की दूसरी गति, जिसमें जीवों को दु:ख भोगने पड़ते हैं )में जन्म धारण करना पड़ा | अतः किसी भी स्थिति में क्रोध करना श्रेयस्करनहीं है।
क्रोध भयंकर आग से, होते तप-जप नंध्ट ।
गुरु के इस आाज्यात से, दीख रहा है स्पष्ट !
शिष्य ने हाथ जोड़कर गुरु से निवेदनकिया और प्रयाश्चित करने के लिए प्रार्थना की । गुरु ने उसकी बात को सुन कर भी अनसुना कर दिया ।गुरु कुछ भी बोले नहीं। दोनों को जहाँ जाना था वहां पर पहुंच गए।…।
वर्षा ऋतु का समय था। चारों तरफ बादल उमड़ रहे थे। किसान लोग खेतों मेंजा रहे थे। जगह-जगह गड़ढ़ों में पानी भर रहा था।
मेंढक टरें-टरे कर रहेथे। कहीं-कहीं पानी में से निकलकर छोटे-छोटे मेंढक कूद-फांद रहे थे ।
उस समयकिसी कार्य से गुरु और शिष्य कहीं जा रहे थे। अंचानक असावधानी से गुरु केपैरों तले एक छोटा मेंढक आ गया और वह मर गया ।
शिष्य ने हाथ जोड़कर गुरु से निवेदनकिया और प्रयाश्चित करने के लिए प्रार्थना की । गुरु ने उसकी बात को सुन कर भी अनसुना कर दिया ।
गुरु कुछ भी बोले नहीं। दोनों को जहाँ जाना था वहां पर पहुंच गए।
शिष्य आया । नमस्कारकर बोला–गुरुदेव ! उस मेढक का प्रायश्चित करना है।
यह सुनते ही गुरु क्रोध मेंलाल हो गये, रोधपूर्ण वऋ-दृष्टि से शिष्य को देखने लगे । शिष्य ने सोचा, अभीकहना उपयुक्त नहीं था क्योंकि गुरुजी कार्य में व्यस्त हैं।
सायंकाल प्रतिक्रमण केसमय याद दिलाना उपयुक्त होगा । वह उठा और अपने स्थान पर चला गया ।
धीरे-धीरे शाम भी होने को आयी, सूर्य अस्त हुआ । प्रतिक्रमण करने के लिए सभी संतगण उधत हुए।
आलू -चना लेने के लिए गुरु के समक्ष वहू शिष्य आया । दिन में किये गये गलतीकी आलोचना करके बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर वह बोला–पृज्यवर! आजमार्ग में आपके पैरों से मेढक की हत्या हो गयी थी। उसकी आप भीप्रयाश्चितकर लें।
गुरुजी अब अपने कर्तव्य को भूल गये। गुस्से में विवेकहीन बन गये औरअपना डण्डा लेकर शिष्य के पीछे क्षपटे । उसे पकड़ने के लिए दौड़ें और बोले—जरा इधर आ, तुझे बताऊं मेंढक की हत्या कैसे हुई और कैसे होती है।
शिष्यआगे-आगे और गुर पीछे-पीछे दौड़ने लगे।
गुरु को इस तरह आवेश मेंदेखकर शिष्य कहीं छिप गया। उपाश्रय में गहरा अंधेरा था। खम्भे भी बहुत थे ।अचानक एक खम्से से गुरुजी टकरा गये और गिरते ही उनका देहान्त हो गया ।
उनकी वह आत्मा शरीर को छोड़कर चण्ड्कौशिक सर्प के रूप में उत्पन्न हुई ।
क्रोध के कारण उनकी संयम-साधना सफल न हो सकी और उनकोतिर्यञ्च-गति ( संसारी जीवों की दूसरी गति, जिसमें जीवों को दु:ख भोगने पड़ते हैं )में जन्म धारण करना पड़ा | अतः किसी भी स्थिति में क्रोध करना श्रेयस्करनहीं है।
क्रोध भयंकर आग से, होते तप-जप नंध्ट ।
गुरु के इस आाज्यात से, दीख रहा है स्पष्ट !