Ramshah Tomar: हल्दीघाटी युद्ध के महानायक

हल्दीघाटी युद्ध के महानायक रामशाह तंवर (Ramshah Tomar) की बिस्तृत् जानकारी।

ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर ने अपने 3 पुत्रों (कुंवर शालिवाहन, कुंवर भान, कुंवर प्रताप) व एक पौत्र (धर्मागत) व 300 तोमर साथियों के साथ हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया और सभी वीरगति को प्राप्त हुए... एक साथ 3-3 पीढ़ियों ने अपने रक्त से रणभूमि को पवित्र कर दिया

महाराणा प्रताप के बहनोई कुंवर शालिवाहन तोमर महाभारत के अभिमन्यु की तरह लड़ते हुए सबसे अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए

मुग़ल लेखक भी रामशाह तोमर की महानता को लिखने वंचिंत नहीं रहे​

प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी 'मुन्तख़ब उत तवारीख' में लिखता है "यहाँ राजा रामशाह तोमर ने जिस तरह अपना जज्बा दिखाया, उसको लिख पाना मेरी कलम के बस की बात नहीं"


रामशाह तोमर का का जीवन परिचय​

सन् 1526 में पानीपत के युद्ध में बाबर के विरुद्ध इब्राहिमलोदी के पक्ष में ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह के पुत्र विक्रमादित्य लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उस समय उनके पुत्र रामसिंह तोमर लगभग 12 वर्ष के थे। बाद में ग्वालियर पर मुगलों का अधिकार हो गया। रामसिंह तोमर ने जब जवानी में कदम रखा तो सैन्य संग्रह कर सन् 1540 में चम्बल के बीहड़ों से निकलकर ग्वालियर पर अधिकार की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। चम्बल क्षेत्र के राजपूतों को साथ लेकर सन् 1548 तक अर्थात् 18 वर्ष तक बार-बार ग्वालियर पर कब्जे का प्रयास किया, लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान, अपनी आन, बान और शान की रक्षा के लिए मेवाड़ (चितोडगढ़) चले गए। जहां मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने उन्हें पूरा सम्मान दिया और उनके मुगलों के विरुद्ध लगातार 18 वर्ष के संघर्ष और उनकी वीरता देखते हुए उन्हें "शाहों का शाह" की उपाधि से सम्मानित किया तभी से उन्हें "रामशाह तोमर " कहा जाने लगा। महाराणा ने उन्हें ग्वालियर के राजा से सम्बोधित किया और अंत तक इसी सम्मान का पात्र बनाए रखा। अपनी एक पुत्री अर्थात् राणा प्रताप की बहन की शादी रामशाह के बड़े पुत्र शालीवाहन से की। यह सारा घटनाक्रम विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग चितोडगढ़ का है।

हल्दीघाटी का युद्ध न तो हिंदू- मुश्लिम का था और न ही सत्ता की लडाई के लिए था ये युद्ध सिर्फ सही गलत का था​

भारत के इतिहास में राजस्थान का विशेष स्थान है और राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ का अपना महत्व है। और मेवाड़ में हल्दीघाटी विश्व प्रसिद्ध युद्ध के लिए दुनिया में सुविख्यात है। इस युद्ध में एक ओर दिल्ली का शासक अकबर था ओर दूसरी ओर छोटी सी रियासत का स्वामी प्रताप। यह एक ऐसा संग्राम था जिसमें हिंदू-मुस्लिम का कोई प्रश्न नहीं था। एक और जहां प्रताप की सेना के बाएं भाग का दलनायक हकीम खां सूर था और साथ ही कई मुस्लिम सैनिक थे तो दूसरी ओर अकबर का सेनापति एक हिंदू था और सेना में सैकड़ों राजपूत सैनिक थे। इस युद्ध में प्रताप की ओर से मेवाड़ के सिसोदिया वंश के राजपूतों के अतिरिक्त राठौड़, चौहान, पंवार, झाला, सोलंकी, डोडिया, देवडा, हाडा, एवं भील मीणो के साथ ही ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर के नेतृत्व में चम्बल घाटी के सैकड़ों तौमर, भदौरिया, सिकरवार और जादौन राजपूतों ने युद्ध में भाग लिया था।

तोमर वंश का दिल्ली से पतन होने के बाद ग्वालियर मे अपना स्वाधीन राज्य बनाया था​

आज देश की सर्वाधिक आकर्षक राजधानी दिल्ली की स्थापना महाभारत युद्ध के नायक अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के वंशज तौमर राजपूतों ने ही की थी। चंबल क्षेत्र के तौमर राजपूतों ने सन् 736 ई. में ही अपना राज्य हरियाणा क्षेत्र में स्थापित किया था और सन् 1192 तक दिल्ली को राजधानी बनाकर राज्य करते रहे। तौमरों के दिल्ली राज्य का अंत होने के कोई दो शताब्दी बाद तौमरों ने ग्वालियर में अपने स्वाधीन राज्य की नींव डाली।

शेरशाह सूरी के ग्वालियर को कब्जाने के बाद रामशाह तोमर का परिवार साथियों समेत मेवाड चला गया​

हमारे नायक वीरवर रामशाह तौमर के पिता विक्रमादित्य वीर एवं साहसी शासक थे, जो इब्राहिम लोदी के पक्ष में बाबर के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए थे। बाद में हुमायूं काल में शेरशाह सूरी ने ग्वालियर पर अधित कर लिया। ग्वालियर लेने के लिए 18 वर्ष तक संघर्ष करने के बाद जब सफलता मिली तो रामशाह अपने परिवार और साथियों के साथ मेवाड़ चले गए। मेवाड़ में रहते हुए रामशाह ने अपनी वीरता और शौर्यता से अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। 1567 में जब अकबर ने चितोड. पर आक्रमण किया जो उसमें रामशाह ने राणा की ओर भाग लिया और मुगलों की घेराबंदी को कुशलता पूर्वक तोड़कर महाराणा उदयसिंह के पास पहुंच गया।

महाराणा उदय सिंह के बाद महाराणा प्रताप गद्दी पर बैठे और उनके सहयोगी हुए रामशाह तोमर​

महाराणा उदयसिंह के दाह संस्कार के समय जगमाल की अनुपस्थिति से रामशाह एवं जालौर मानसिंह अखेराजोत को संदेह हुआ तब इन दोनों ने चूण्डावत सरदार कृष्णदास के सहयोग से प्रताप को गद्दी पर बिठाया। इस प्रकार रामशाह ने अपने वीरतापूर्ण एवं दृढ़ के साथ न्याय का पक्ष लिया और अपने आप को मेवाड़ का सच्चा हितैषी सिद्ध किया। रामशाह के विरोचित और न्यायोचित कदम ने प्रताप में वह जोश और उत्साह पैदा किया कि उन्होंने आजीवन मुगलों से टक्कर लेकर और स्वाधीनता की ज्योति को प्रज्वलित कर मेवाड़ और राजस्थान को विश्व प्रसिद्ध बना दिया।

वीरवर रामशाह महाराणा प्रताप के विश्वसनीय सहायकों में से एक थे। हल्दीघाटी के युद्ध में इन्होंने एवं इनके तीन पुत्रों और एक पौत्र एवं चंबल क्षेत्र के सैकड़ों राजपूतों ने भाग लिया था। प्रताप की सेना के दक्षिणी पार्श्व का नेतृत्व रामशाह तौमर ने ही किया था। युद्ध के मैदान में इनका मुकाबला मुगलों के बाएं पार्श्व के नेता गाजी खां से हुआ, भयंकर युद्ध शुरु हुआ और मुगलों की हरावल का बायां भाग मैदान से भाग खडा हुआ और राजपूतों के प्रबल पराक्रम के सामने गाजीखां रणक्षेत्र छोड़ कर भागा।


रामशाह Tomar महाराणा प्रताप दक्षिणी पार्श्व सेना के नायक थे​

इस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी और अकबर की ओर से लडने वाले मुल्ला अब्दुल कादर बदायुनी रामशाह के इस समय के पराक्रम के विषय में लिखा है "ग्वालियर के राजा मानसिह के पोते राजा रामशाह जो हमेशा राणा की हरावल में रहता था और युद्ध के दिन दक्षिणी पार्श्व का नेता था ऐसी वीरता दिखलायी कि जो लेखनी की शक्ति से बाहर है! राणा प्रताप, राजा रामशाह और हकीमखां सुर की मार से मुगल सेना भाग खड़ी हुई, इस प्रकार युद्ध का पर्थम अध्याय महाराणा की आंशिक विजय के साथ समाप्त हुआ! बाद में घाटी से हटता -2 संग्राम का केन्द्र अब बनास के किनारे उस स्थल पर आ गया जो अब "रक्तकाल " कहा जाता है! य़हा अत्यंत भयंकर युद्ध हुआ और रणक्षेत्र खुन से लथपथ हो गया! इसलिए इस स्थान का नाम युद्ध के बाद रक्तकाल पड़ा! इसी रक्तकाल मे पिछले 50 वर्षो से हद्धय मे निरंतर प्रज्वलित अग्नि का अंतिम प्रकाश पुंज दिखाकर अनेक शत्रुओं के उष्ण रक्त से रणक्षेत्र को रक्त रंजित करते हुए मेवाड की स्वतंत्रता की रक्षा के निमित, प्रताप के स्वाभिमान आन के खातिर धराशायी हुआ विक्रम सुत राजा रामशाह तौमर और अपने वीर पिता की बलिदानी परंपराओ का पालन किया वीर पुत्रो ने और राजपुतो के बलिदान की धारा को आगे बढाते हुए रामशाह के तीनो पुत्र शालिवाहन, भवानीसिंह एवं पर्तापसिह और पौत्र बलभद्र यही बलिदान हुए और उनका साथ दिया, चंबल क्षेत्र के सैकडो राजपुतो ने जो युद्ध में भाग लेने य़हा से गये थे! कैसा दिल दहला देने वाला क्षण रहा होगा! जब पिता का बलिदान पुतरो के सामने हुआ और भाई का बलिदान भाई के सामने हुआ ! इस देश के लिए राजपुतो द्वारा किये बलिदानो की पंक्ति में इस बलिदान की कोइ मिशाल नहीं मिले सकती! हल्दीघाटी में रामशाह एवं उसके तीनो पुत्रो एवं एक पौत्र का बलिदान अर्थात एक ही दिन, एक ही स्थान पर, एक ही युद्ध मे, एक ही वंश व एक ही परिवार की 3 पीढ़ी एक दुसरे के सामने बलिदान हो गयी ! बलिदानो की पंक्ति में इसे देश और मात्रभुमि के लिए सर्वश्रेष्ठ बलिदान कहा जा सकता है!"

रामशाह तोमर के एक-एक योध्दा वीरगति को प्राप्त हुवे परन्तु कभी न हारे और न पीछे हटे​

प्रसिद्ध इतिहासकार बदायुनी के अनुसार युद्ध क्षेत्र में तौमर खानदान एवं युद्ध रत चंबल क्षेत्र के राजपुतो मे से एक भी जीवित नही बचा ! राजा रामशाह के प्रमुख सहयोगी दाऊसिह सिकरवार, बाबुसिह भदौरिया की बहादुरी और बलिदान ने युद्ध की हार का भी जीत की संज्ञा दिला दी ! तौमर वंश के इतिहास पुरुषों से अनेक भुले हुई थी कुछ कार्य जो किये जाने चाहिए थे, उन्होंने नही किये जो नही किये जाने चाहिए थे वे किेए, इन सबका परिमार्जन राजा रामशाह तथा उसके 3 पुत्रो 1 पौस्र और रण में उपस्थित समस्त तौमरो ने अपनी बलि देकर कर दिया! हल्दीघाटी के संग्राम का अंतिम अध्याय अपनी आंखों से नही देखना चाहते थे ! राजा रामशाह , उनके पुल्रो व चंबल क्षेत्र के राजपुतो ने अपने जीवित रहते हुए मुगलो को आगे बढ़ने नही दिया !!

उनकी पुर्णाहुति के प्रति कवि खडगराय ने अपनी श्रद्धांजलि के रुप मे कुछ पंक्तियां अर्पित की है​

झाला झुकि नहीं, लारो हारि हाडा मुख मोर्या
भदौरिया, सिकरवार पेवार हरिं करं, वर का जोर्यो
बागर बर मेवाड़ मेरू चने यक दिया
चलि चंदेल चौहान, मंदया मंचन किया
दो दला चल्लो, दलपति च्युत इक चलो न विक्रम शाह सुत
दे प्राण प्रन्याऊ रान सुरक्षि अरला रण में रहुब ।।


दोनो दल विचलित बडे - बडे दलपति भी विचलित हुए केवल एक विक्रम का पुत्र ही रण में अविचलित रहा, राणा रुपी धन की रक्षा में अपने प्राणो की पनिहाई के रुप में देकर राम रण में अटल रहा!,

हल्दीघाटी के युद्ध मे रामशाह तोमर के 3 पुत्र और 1 पौत्र शहीद हुवे थे​

हल्दीघाटी के युद्ध मे रामशाह उनके तीन पुत्र और एक पौत्र युद्ध की भुमि में शहीद हुए थे, शालिवाहन के दो पुत्र श्यामसिह और मित्रसेन जीवित बचे थे ! एक महान बलिदानी और स्वतंत्रता सेनानी को इतिहासकारो, चारणों एवं भाटो ने वह प्र्शस्ति और महत्व नही दिया जो दिया जाना चाहिए था ! रामशाह का सारा जीवन संघर्षमय रहा बचपन में ही पिता का साया उठ गया फिर भी इन्होने अपनी युवावस्था से ही अपनी रियासत ग्वालियर के लिए बराबर संघर्ष किया जिस प्रकार राणा पर्ताप चितौड को विजित करने की आस मन में लिए स्वर्ग सिधार गये राजा रामशाह भी ग्वालियर की आस मन में लिए सैकडो मीलो दुर सारा जीवन स्वतंत्रता स्वाभिमान आन -बान और शान, मान मर्यादा के साथ संघर्ष रत रहकर अपनी अमर कीर्ति छोड़कर उस दिव्य ज्योति में विलीन हो गए ! उन्होंने अपना राजपुत धरेम निभाया कितु इतिहास व समाज उनके पर्ति कर्तघ्न रहे कि उन्हें कीर्ति और ख्याति नही दे सके जो दी जानी चाहिए थी!!

जहाँ राजपूत अकबर की तरफ से भी लड़ रहे तो वही कुछ मुश्लिम महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ रहे थे फिर भी इस युद्ध का मकसद अकबर के लिये इस्लाम की जीत का था​

हल्दीघाटी के युद्ध में अबुल फजल ने बदायूंनी से पूछा कि - दोनों तरफ ही राजपूत हैं और दोनों ही केसरिया बाना लपेटे लड़ रहे हैं, वार करने में दिक्कत हो रही है....... कहीं अपनी तरफ का कोई राजपूत न मारा जाये...??

बदायूंनी ने जवाब दिया- हुजूर आप तो अपने वार करते जाओ, जिस तरफ का भी राजपूत गिरेगा, भला हर हाल में इस्लाम का ही होगा।
 
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