वेद के महत्व ,स्वरूप और संहिता

वेद के महत्व ,स्वरूप और संहिता


प्यारी सी सुबह के साथ आप सभी को हमारी ओर से सुभप्रभात्त ।तो आज हम आपके लिए कुछ नया लेके आए है । साहित्य से संबंधित।

ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।​

अर्थात : हे ईश्वर (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।

आज हम आपके लिए संस्कृत साहित्य का इतिहास लेके आए हैं।

वैदिक साहित्य संहिताएँ​

वेद का अर्थ​

ज्ञानार्थक ‘विद्’ धातु से निष्पन्न ‘वेद’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान’ ही है। यह ज्ञान समस्त आध्यात्मिक और लौकिक ज्ञान के स्रोत या आधार के रूप में है। इसे ईश्वरीय ज्ञान कहें या प्राचीनतम ऋषियों के द्वारा अपनी प्रतिभा से प्राप्त सत्य ज्ञान कहें, ‘वेद’ शब्द के वाच्यार्थ के रूप में ही है। समस्त भारतीय विद्या के उत्स के रूप में स्थित यह ज्ञान अभ्यर्हित है, पूज्य कोटि में स्थापित है। यह भारत के ही नहीं, अपितु जगत् के प्राचीनतम साहित्य के रूप में आदि-संस्कृति के ज्ञान का स्रोत है। वैयाकरण लोग ‘वेद’ शब्द का निर्वचन भाव अर्थ में (ज्ञान या जानना) नहीं करके करण अर्थ में (-ज्ञान का साधन) करते हैं-विद्यते ज्ञायतेऽनेनेति वेदः अर्थात् जिसके द्वारा कोई ज्ञान प्राप्त किया जाये वही वेद है।

वेद परम-प्रमाण अर्थात् आगम या शब्द-प्रमाण में उत्कृष्ट है। मीमांसकों ने कहा है कि प्रत्यक्ष और अनुमान से हम जिस उपाय या ज्ञान को नहीं पा सकते उसे वेद बता सकता है अर्थात् वेद ज्ञान के समस्त उपायों में श्रेष्ठ है। वेद से वह ज्ञान मिलता है जिसे प्राप्त करने के लिए अन्य कोई साधन इस जगत् में नहीं-

प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते ।

एतं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ||


सायण ने तैत्तिरीय संहिता के भाष्य की भूमिका में इसी आशय से लिखा है कि इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण के लिए अलौकिक उपाय बताने वाला ग्रन्थ वेद है (इष्टप्राप्त्यनिष्ट परिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः)। यह अर्थ कर्मकाण्डियों की दृष्टि से किया गया है। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा सुरक्षित किये जाने के कारण अर्थात् गुरु के द्वारा उच्चरित वाक्यों को शिष्य द्वारा श्रवण करके स्मरण रखने के कारण वेद को ‘श्रुति’ भी कहते हैं। इस श्रुति परम्परा के द्वारा वेद के वाक्यों को अद्यावधि सुरक्षित रखा गया है। इतने दीर्घकाल तक किसी साहित्य की मौखिक परम्परा और सुरक्षा का इतिहास नहीं है। यह वेदों के प्रति भारतीय अध्येताओं की आस्था का द्योतक है। आधुनिक वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ‘वेद’ वह शब्दराशि है जो भारतवर्ष में प्राचीन ऋषियों के द्वारा सर्वप्रथम प्रकट हुई और जिसे कालान्तर में याज्ञिक उपयोग के लिए संहिताबद्ध किया गया। तदनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में प्राचीन ज्ञानराशि को चार वर्गों में विभाजित किया गया।

वेद का स्वरूप​

प्राचीन परम्परा में ‘वेद’ के अन्तर्गत मन्त्र और ब्राह्मण दोनों भाग निहित हैं-

मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्। ‘मन्त्र’ उसे कहते हैं जिसका उच्चारण करके यज्ञ-यागों का अनुष्ठान किया जाता है और जिसमें यज्ञ में भाग लेने वाले देवताओं की स्तुति की जाती है। दूसरी ओर यज्ञ के क्रिया-कलाप एवं उनके प्रयोजनों की व्याख्या करने वाले वेद-भाग को ‘ब्राह्मण’ कहते है।

ब्राह्मण के तीन भाग हैं- ब्राह्मण आरण्यक तथा उपनिषद इस प्रकार वैदिक वाङ्मय को चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है- मन्त्रभाग (संहिता), ब्राहाण, आरण्यक तथा उपनिषद्।

आरण्यक ग्रन्थों में वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करने वाले वीतराग मनस्वियों के क्रिया-कलाप प्रतिपादित है। तो उपनिषदों में वैदिक युग का दार्शनिक साहित्य निहित है। भारत के प्राचीन विद्वान् इन चारों को ही ‘वेद’ मानते आये हैं किन्तु कुछ सम्प्रदायों में ‘वेद’ से किसी एक अंश को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। जैसे-मीमांसादर्शन के लिए ‘ब्राह्मण’ -भाग ही वेद है तो वेदान्त दर्शन के लिए उपनिषद् ही वेद या श्रुति है। इन अंशों पर उक्त दर्शनों का विशेष बल है। इधर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मन्त्र-भाग को ही वेद कहा, ब्राह्मण-ग्रन्थ उसकी व्याख्याएँ हैं। पाश्चात्य विद्वान् भी ‘वेद’ शब्द से केवल संहिता भाग का ही ग्रहण करते हैं, संहिता के परम्परागत विकास का नहीं। किन्तु ‘वैदिक साहित्य’ के अन्तर्गत ये चारों अंश हैं, इसमें किसी को आपत्ति नहीं।

वेदों का महत्त्व​

साहित्य के रूप में सम्पूर्ण वेद-वाङ्मय महत्त्वपूर्ण हैं; आवश्यकता के अनुसार वेद का साहित्य बढ़ता गया और ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् – साहित्य क्रमशः विकसित हुए। प्राचीन काल से लेकर आजतक वेद-वाङ्मय सम्पूर्ण विश्व को विविध उपदेश देता रहा है इसलिए इसके महत्त्व को अंकित करना प्रासंगिक है। भारतीय साहित्य में नास्तिकों ने वेद की निन्दा भले ही की है किन्तु साहित्य और जन-सामान्य का बहुसंख्यक वर्ग उसकी प्रशंसा मुक्तकण्ठ से करता रहा है। आस्तिक दर्शन ईश्वर की वाणी के रूप में या अपौरुषेय शब्दराशि के रूप में वेदों को देखते रहे हैं। वेद आगम-प्रमाण है, समस्त ज्ञान के स्रोत हैं, शब्दराशि-रूप वेद से संसार के समस्त अर्थ निर्मित हुए हैं। कौटिल्य (अर्थशास्त्र १/२) के अनुसार ‘त्रयी विद्या’ धर्म और अधर्म के बीच भेद का निरूपण करती है। वेदों से लोग अपने जीवन-दर्शन को संचालित कर सकते हैं।

वेद भारतीय धर्म के उत्स हैं । मनु के अनुसार के ये वेद सभी ज्ञानों के अक्षय कोश हैं जिनका अध्ययन ब्राह्मणमात्र के लिए अनिवार्य कहा गया है ।भारतीय धर्म ने वेदों को इतना महत्त्व दिया है कि ईश्वर की निन्दा सह्य है किन्तु वेद की निन्दा नहीं कई आस्तिक दर्शनों ने ईश्वर को तो स्वीकार नहीं किया है किन्तु वेदों को अपने दैनिक कर्म-कलापों का उपदेश देने के कारण परम-प्रमाण माना है।ब्राह्मण-काल से वेद (मन्त्रभाग) के स्वाध्याय अर्थात् कुल-परम्परा से चले आते हुए। वेदों को भारतीय साहित्य का आधार माना जाता है अर्थात् परवर्ती संस्कृत में विकसित प्रायः समस्त विषयों का स्रोत वेद ही है। काव्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, व्याकरण आदि सभी क्षेत्रों पर वेदों की गहरी छाप है। इन सभी विषयों का अनुशीलन ऋग्वेद की ऋचाओं से ही आरम्भ होता है। काव्य के क्षेत्र में उषा देवी की रमणीय शोभा का, देवताओं के स्वरूप के वर्णन में मानवीकरण का, उपमादि अलंकारों के प्रयोग का तथा भाषागत प्रवाह का विन्यास ऋग्वेद की विशिष्टता है। दर्शन के क्षेत्र में जीवेश्वर-सम्बन्ध, संसार का स्वरूप, सृष्टि, प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म), परमेश्वर इत्यादि का निरूपण ऋग्वेद से ही उपक्रान्त होता है। आर्यों के आचार-व्यवहार का साक्षात्कार सर्वप्रथम वेदों में ही प्राप्त होता है। भाषा-चिन्तन भी ऋग्वेद के मन्त्रों से आरम्भ होकर अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों तक व्याप्त है। वेद का वेदत्व इस विषय में भी निहित है कि समस्त परवर्ती ज्ञान का बीज यहाँ व्यवस्थित है।

संहिता – साहित्य​

वैदिक मन्त्रों का संग्रह ‘संहिता’ कहलाता है। इन मन्त्रों के मौलिक रूप में वैदिक पदों का परस्पर अधिकतम सन्निकर्ष है। इसीलिए पाणिनि ने’ संहिता’ का अर्थ किया है-परः सन्निकर्षः संहिता (अष्टाध्यायी)। वस्तुतः वैदिक संहिताओं में परस्पर सन्धिबद्ध मन्त्रों का संकलन है। ये मन्त्र पहले विभिन्न ऋषिकुलों में बिखरे हुए थे जिन्हें संकलित किया गया, वैज्ञानिक व्यवस्था से एकत्र किया गया। स्पष्टतः यह संकलन, उद्देश्य-विशेष से, मन्त्रों के आविर्भाव-काल के बहुत समय बाद में हुआ।

वैदिक संहिताएँ मुख्यतः चार हैं- ऋग्वेद-संहिता, यजुर्वेद-संहिता, सामवेद संहिता तथा अथर्ववेद-संहिता। इन संहिताओं का पारस्परिक पार्थक्य यज्ञों में उपयोग के लिए संकलित मन्त्रों के परस्पर भेद के कारण था।

सामान्य वैदिक यज्ञ (श्रौतयाग) में जो व्यक्ति पुरोहित के रूप में अनुष्ठान कराते थे, उन्हें “ऋत्विक्” कहा जाता था (ऋतु+यज्+ क्विन्) । इस शब्द का निर्वचन है-ऋतौ याजयति इति ऋत्विक् । अर्थात् जो यज्ञकाल में अनुष्ठान कराये। यह वैदिक युग के पुरोहितों की संस्था के रूप में प्रसिद्ध था जिसके चार वर्ग थे-होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा होता का काम यज्ञों में घि देवताओं का आवाहन करना था जिससे वे प्रतीकात्मक रूप से आकर यज्ञ में अर्पित हव्य का ग्रहण करें (होता आह्वयति देवान्-ह्वे+तृच्)। ऋचाओं के छोटे-बड़े संग्रह (शस्त्र) बनाकर वह ी इस आवाहन-कार्य को सम्पन्न करता था। ऋचाओं में सम्बद्ध देवता की प्रशंसा, गुणों का वर्णन तथा यज्ञ में उपस्थित होने की याचना सामान्यत: होती थी। ऋचाएँ देवताओं के अर्चन का साधन थीं (ऋक् अर्चनी-अर्च् + क्विन्)। होता के उपयोग के लिए उपलब्ध समस्त ऋचाओं का संकलन करके “ऋग्वेद-संहिता” बनी। इसीलिए ऋग्वेद को ‘होतृवेद’ भी कहा गया है। उद्गाता का काम यज्ञों में संगीतात्मक ऋचाओं का विशेष पद्धति से गान करके देवताओं को प्रसन्न करना था। उसके उपयोग के लिए कतिपय उत्कृष्ट ऋचाओं का संकलन करके “सामवेद-संहिता” बनी। ‘साम’ का अर्थ है ऋचा और गान का समन्वय ऐसा प्रसादन के लिए होता था; इसीलिए कालान्तर में प्रसादन, सान्त्वना, अपनी ओर मिलाना इत्यादि अर्थों में ‘साम’ शब्द का प्रयोग होने लगा। उद्गाता (उत्+गै+तृच्-जोर से गानेवाला) के उपयोग के लिए संकलित सामवेद को इसीलिए ‘उद्गात-वेद’ (या औद्गात्रवेद) भी कहते हैं।

अध्वर्यु – नामक ऋत्विक् अध्वर अर्थात् यज्ञ के अनुष्ठान का पूरा भार सँभालता था-अध्वरंयुनक्ति इत्यध्वर्युः (अध्वर+युज्), अध्वरं कामयते वा (अध्वर+क्यच् +उ =अध्वरयुः >अध्वर्यु:)। इस प्रकार निरुक्त में ‘अध्वर्यु’ का शब्द-निर्वचन किया गया है। स्पष्टतः यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऋत्विक् था क्योंकि यज्ञ के उपक्रम (आरम्भ) से लेकर परिचालन और समाप्ति तक सभी क्रिया-कलापों का संघटन-संयोजन इसी का कार्य था। यज्ञ संचालन के लिए उपयोगी मन्त्रों को उस युग में ‘यजुस्’ (यज्+उसि) कहते थे। इसीलिए अध्वर्यु के उपयोग के लिए आवश्यक सभी मन्त्रों को संकलित करके “यजुर्वेद-संहिता’ बनी। अध्वर्यु का महत्त्व इसी से ज्ञात हो सकता है कि इसी के कार्य में प्रवृत्त होने पर अन्य ऋत्विजों का कार्य आरम्भ होता है। यजुर्वेद को ‘अध्वर्युवेद’ या आध्वर्यव वेद कहा गया है। ब्रह्मा कहा जाने वाला ऋत्विक् यज्ञ का निरीक्षण करता है। सभी क्रियाओं के साक्षी के रूप में अनुमति देता है। वह अशुद्धियों का संशोधन, संकट का निवारण, श्रम का समाधान आदि अनेक कार्य करता है। उसे तीनों वेदों में निपुण कहा गया है (सर्वविद्)। फिर भी उसकी अपनी क्रिया से सम्बद्ध मन्त्रों को संकलित करके ” अथर्ववेद संहिता” बनायी गयी जिसे अन्वर्धतः ‘ब्रह्मवेद’ भी कहा गया है।

इस प्रकार संहिताओं के वर्गीकरण के मूल में उपर्युक्त ऋत्विजों के कार्यों का विभाजन हो था। इन संहिताओं की कालान्तर में अनेक शाखाएँ बन गयीं क्योंकि मन्त्रों के संकलन, ग्रहणाग्रहण तथा उच्चारण से सम्बद्ध भेदों का आविर्भाव हुआ। धार्मिक उपयोग के कारण बहुत दिनों तक शाखाएँ सुरक्षित रहीं किन्तु क्रमशः अनेक शाखाएँ लुप्त हो गयीं। वैदिक शाखाओं की अधिकतम संख्या का निर्देश पतञ्जलि (१५० ई.पू.) ने अपने महाभाष्य के प्रथम आह्निक में इस प्रकार किया है- चत्वारो वेदाः साङ्गा सरहस्या बहुधा भिन्नाः- एकशतमध्वर्युशाखाः, सहस्स्रवर्त्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बावच्यम्, नवधाथर्वणो वेदः। अर्थात् चार वेद अपने अंगों (वेदाङ्गों) तथा उपनिषदों के साथ अनेक प्रकार से पार्थक्य-युक्त हैं, यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ हैं, सामवेद एक सहस्रशाखाओं में विभक्त है, ऋग्वेद की २१ शाखाएं है और अथर्ववेद तो नौ प्रकार का है।

इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक वैदिक शाखा का अपना ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् तथा वेदाङ्ग-साहित्य भी था। आज कुछ वैदिक शाखाओं के संहिता-ग्रन्थ नहीं मिलते तो ब्राह्मण ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किसी का कोई वेदाङ्ग-ग्रन्थ ही है, शेष साहित्य नहीं। शाखा के लुप्त होने की कोई व्यवस्था नहीं कि सबके सब ग्रन्थ समाप्त ही हो गये। फिर भी अधिसंख्यक शाखाएँ सर्वथा लुप्त हो गयी हैं जिनके नाम भर रह गये हैं।

मित्रों आज हमने वेद का अर्थ और वेद के महत्व ,स्वरूप, और संहिता – साहित्य के बारे मे जाना ।

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