13 best stories in hindi for reading – पढ़ने के लिए कहानियां

दोस्तो हम आपके लिये चुनिंदा सबसे अच्छी पढ़ने योग्य New Reading Stories In Hindi For Reading कहानियों का संग्रह लाये हैं उम्मीद करते हैं आपको ये कहानियां पसंद आएँगी-

1. कल्पना

एक अत्यंत गरीब परिवार का बेरोज़गार ब्यक्ति नौकरी की तलाश में ट्रेन से दूसरे शहर जा रहा था।
आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगी, उसके पास खाने के लिए सिर्फ रोटियां ही थी।

उसने रोटियां निकाली और खाने लगा।
उसके खाने का तरीका बहुत अजीब था
बह रोटी का टुकड़ा लेता और उसको टिफिन में ऐसे डुबोता जैसे रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो।

दूसरे यात्री सोच रहे थे कि आखिर वो ऐसा क्यों कर रहा है।

आखिर एक यात्री ने पूछ लिया- भईया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, टिफिन में सब्जी नही है।
युबक ने जवाब दिया- मुझे पता है लेकिन मैं ये सोच कर खा रहा हु की मानो इसमे बहुत सारा आचार हो।

यात्री ने फिर पूछा- तो क्या आपको आचार का स्वाद आ रहा है क्या?
युवक- हां आचार का स्वाद आ रहा है और मुझे बहुत मज़ा भी आ रहा है।

यात्री- भैया जब सोचना ही था तो आचार की जगह मटर पनीर ही सोच लेते, शाही गोभी सोच लेते।
जब सोचना ही था तो भला छोटा क्यो बड़ा ही सोच लेते।

2. मूर्खो को सीख

एक जंगल में एक पेड़ पर गोरैया का घोसला था।
एक दिन कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, तभी चार बन्दर ठंड से बचने के लिए उस पेड़ के नीचे आ पहुचे।

एक बंदर बोला- कहीं से आग तापने को मिले तो ठंड दूर हो सकती है और यहां सूखी पत्तियां भी पड़ीं हैं, चलो इन्हें इखट्टा करके आग जलाते हैं।

उन्होंने पत्तियों को इखट्टा किया और पत्तियों के ढेर को चारों ओर से घेर कर बैठ गए और सोचने लगे कि आग को जलाया कैसे जाए।

तभी एक बंदर की नज़र हवा में उड़ते जुगनू पर पड़ी और बोह उछल पड़ा और बोला- देखो हवा में चिंगारी उड़ रही है, इसे पकड़ कर पत्तियों के नीचे रख कर फूक मारने से आग जल जाएगी।
सभी बन्दर जुगनू की तरफ दौड़े।

गौरेया ये सब देख रही थी, उससे चुप नही रहा गया बह बोली- “बन्दर भाइयो” ये चिंगारी नही जुगनू है।
तभी एक बन्दर गुर्राते हुए बोला- मूर्ख चिड़िया चुपचाप अपने घोंसले में दुबकी रहे हमे मत सिखा।

बन्दरो ने जुगनू को पकड़ कर ढेर के नीचे रख दिया और जोर जोर से फूंक मारने लगे।
चिड़िया ने फिर आवाज़ दी- भाइयों आप गलत कर रहे हो जुगनू से आग नही सुलगेगी।
बन्दरो ने गौरेया को घूरा।

आग नही सुलगी तो गौरेया फिर बोल उठी- भैया ऐसे आग नही सुलगेगी,आग दो पत्थरो को आपस मे रगड़ने से सुलगेगी।
सारे बन्दर आग ने सुलगने के कारण खीजे हुए थे,

उनमे से एक बन्दर क्रोध से भरकर पेड़ पर चढ़ा और गौरेया को पकड़ कर जोर से तने पर मारा।
गौरेया फड़फड़ाती हुई नीचे गिरी और मर गयी।
मूर्खो को सीख देने का कोई फायदा नही है।

3. ज्ञान का प्रदर्शन

एक बार गंगा पार होने के लिए कई लोग नौका में बैठे हुए किनारे की ओर बढ़ रहे थे,एक पंडित जी भी उसमे सबार थे।
पंडित जी ने नाविक से पूछा- क्या तुमने भूगोल पड़ी है?
नाविक- भूगोल क्या है इसका मुझे कुछ नही पता।

पंडित जी ने पंडिताई दिखाते हुए कहा- तुम्हारी पाव भर ज़िन्दगी पानी मे गयी।
फिर पंडित ने दूसरा प्रश्न किया- “क्या इतिहास जानते हो? महारानी लक्ष्मीबाई कब और कहाँ हुई और उन्होंने कैसे लड़ाई की?”

इस पर नाविक ने अपनी अज्ञानता जाहिर की तो पंडित जी ने विजयमुद्रा में कहा- नाविक तुम्हारी तो आधी ज़िन्दगी पानी मे गयी।

पंडित जी ने फिर तीसरा प्रश्न पूछा- “महाभारत का भीष्म-नाविक संबाद या रामायण का केवट या श्री राम का संवाद जानते हो?

अनपढ़ नाविक भला क्या कहे, उसने इशारे में ना कहा,
तब पंडित जी मुस्कुराते हुए बोले- तुम्हारी तो पौनी ज़िन्दगी पानी मे गयी।

तभी अचानक गंगा में प्रबाह तीव्र होने लगा, नाविक ने सभी को तूफान की चेताबनी दी और पंडित जी से पूछा- “नौका तो पानी मे डूब सकती है क्या आपको तैरना आता है?”

पंडित जी घबराते हुए बोले- मुझे तो तैरना-बैरना नही आता है।
नाविक ने स्थिति भांपते हुए कहा- “तब तो समझो आपकी पूरी ज़िंदगी पानी में गयी।

थोड़ ही देर में नौका पलट गई और पंडित जी बह गए।

“विद्या बाद बिबाद के लिए नही है और न ही दूसरो को नीचा दिखाने के लिए है, उसका सही उपयोग करें।”

4. दिखावा

मैनेजमेंट की शिक्षा प्राप्त कर एक युबक की बहुत बड़ी नॉकरी लग गयी, उसे कंपनी की तरफ से एक बहुत बड़ा केविन दे दिया गया।
जब बह पहले दिन केविन जाता है तब डोर खट खटाने की आवाज़ आती है।
युबक उसे आधा घंटा बाहर इंतेज़ार करने के लिए बोलता है।
आधा घंटा बीतने के बाद ब्यक्ति पुनः अंदर आने की अनुमती मांगता है,उस को अंदर आता देख युबक टेलीफोन पर बात करना शुरू कर देता है।
बोह टेलीफोन पर बहुत पैसे के बारे में, ऐश ओ आराम के बारे में और बहुत बड़ी बड़ी डींगे हाँकने लगता है।
जब उसकी सारी बातें खत्म हो जातीं है तब बह सामने खड़े ब्यक्ति से पूछता है- तुम यहाँ क्या करने आये हो?

बह ब्यक्ति उस युबा ब्यक्ति को विनम्र भाव से देखते हुए कहता है- “साहब” मैं यहां टेलीफोन रिपेयर करने आया हूँ।
इतना सुनते ही युबक शर्म से लाल हो जाता है और चुप चाप केविन से बाहर चला जाता है।

5. बोले हुए शब्द

एक बार एक किसान ने अपने पड़ोसी को भला बुरा कह दिया पर बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ।
तब वह एक संत के पास गया और अपने शब्द बापस लेने का उपाय पूछा।

संत ने उससे कहा- तुम बहुत सारे पर इखट्टे कर लो और उन्हें शहर के बीचों बीच जाकर रख दो
किसान ने ऐसा ही किया और फिर संत के पास पहुच गया।

तब संत ने कहा- अब जाओ और उन पंखों को यहां ले लो।
किसान बापस गया पर सभी पंख हवा से उड़ चुके थे और किसान खाली हाथ संत के पास पहुँचा।

तब संत ने किसान से कहा- ठीक ऐसा ही तुम्हारे दुअरा कहे गए शब्दो के साथ होता है, तुम आसानी से इन्हें अपने मुंह से निकाल तो सकते हो पर चाह कर भी बापस नही ले सकते।

6. लालसा

लालसा


किसी समय की बात है- एक राजा के दो पुत्र थे । राजा की लालसा मृत्यु के पश्चात् उनके मंत्रियों ने बड़े पुत्र को राजगद्दी पर बैठाना चाहा पर राजकुमार ने कहा , ” मैं शासन करना नहीं चाहता हूँ । कृपया आप लोग मेरे छोटे भाई को राजा बना दें । ” बार – बार राजा बनने का अनुरोध करने पर भी बड़े पुत्र ने अपना निर्णय नहीं बदला ।

अंततः मंत्रियों ने छोटे राजकुमार को राजा बना दिया । बड़ा राजकुमार राजसी ठाठ – बाट का परित्याग कर शहर छोड़कर चला गया । राज्य के एक छोटे से गाँव में जाकर एक व्यापारी के साथ काम करने लगा ।

जब व्यापारी को किसी प्रकार उसके राजकुमार होने का पता लगा तो वह आदर के साथ व्यवहार करने लगा । एक दिन शाही सेवक गाँव में जमीन मापने आए । उस व्यापारी ने जाकर राजकुमार से कहा , ” श्रीमान् !

क्या आप मेरा काम करवा सकते हैं ? कृपया अपने छोटे भाई से अनुरोध कर मेरा कर मुक्त करवा दें । ” राजकुमार ने तत्कालीन राजा , अपने छोटे भाई , को पत्र लिखा कि वह एक व्यापारी के पास काम करता है , उसका कर क्षमा कर दिया जाए । राजा ने उसका कर क्षमा कर दिया ।

शेष गाँव वालों को जब इस बात का पता चला तो वे भी राजकुमार के पास आए और कहने लगे , ” हम लोग आपको कर दे दिया करेंगे पर आप राजा के कर से हमें मुक्त करवा दें । ” राजकुमार ने पुनः अपने छोटे भाई को उनका आवेदन भेज दिया । इस प्रकार सभी गाँव वालों को कर मुक्ति मिल गई और

उन्होंने बड़े राजकुमार को कर देना प्रारम्भ कर दिया । अब राजकुमार को विशेष आदर – सत्कार मिलने लगा और उसका धीरे – धीरे लालच भी बढ़ता गया । अपने छोटे भाई से पहले उसने एक शहर मांगा , फिर एक छोटा राज्य मांगकर उस पर शासन करने लगा ।

छोटे भाई ने उसकी सभी इच्छाओं को पूरा किया पर समय के साथ – साथ उसकी और इच्छाएं बढती ही चली गई । एक बार उसने अपने छोटे भाई को एक संदेश भेजा , ” या तो मुझे राजगद्दी दे दो या फिर मुझसे युद्ध करो ।

” संदेश पाकर छोटे राजकुमार ने सोचा , ” पहले तो भाई ने राजगद्दी से इंकार कर दिया और अब उसे ही लड़कर पाना चाहते हैं । यदि मैं उनसे युद्ध करूँगा तो दुनिया मुझ पर ही हँसेगी । ” उसने अपना उत्तर भेजा , “

हम युद्ध क्यों करें ? आप यहाँ आकर राज्य का कार्यभार स्वयं संभाल लें । ” इस प्रकार बड़ा राजकुमार राजा बन गया । धीरे – धीरे उसने अपने राज्य का विस्तार प्रारम्भ कर दिया । एक दिन दरबार चल रहा था तभी एक युवा ब्रह्मचारी ने संदेश भिजवाया कि वह राजा से मिलना चाहता है ।

राजा ने उसे भीतर बुलवाया । भीतर आकर युवा ब्रह्मचारी ने राजा का अभिवादन किया । राजा ने पूछा , ” क्या चाहिए तुम्हें ? युवा ब्रह्मचारी ने कहा , ” महाराज ! मुझे आपसे एकांत में व कहना है । ” एकांत हो जाने पर युवा ब्रह्मचारी ने कहना प्रारम्भ किया , ” महाराज , यदि आप मेरे कथनानुसार करें तो आप तीन शहरो पर राज्य कर सकते हैं । ये शहर आर्थिक सम्पदा , मानव संस और सैन्य धन से भरपूर हैं । हमें तुरंत ही कुछ करना होगा ।

को लोभ ने आ घेरा । वह युद्ध के विषय में विचार करने लगा और युवा ब्रह्मचारी का अता – पता पूछना ही भूल गया । इसी बीच वह दरबार से चला गया । राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाया और कहा , ” एक युवा ब्रह्मचारी ने मुझे तीन राज्य दिलाने का वादा किया पर शीघ्रता में वह चला गया । वह कहाँ गया , उसे ढूँढो ।

शहर में घोषणा कर दो , सैन्य दल को भेजो । उन तीनों राज्यों को हमें तुरंत अधिकार में लेना है । ” पूरे शहर में उस युवा ब्रह्मचारी को ढुंढवाया गया पर वह कहीं नहीं मिला । सारे प्रयत्न विफल होने पर राजा को सूचित किया गया , “ महाराज , शहर में कहीं भी युवा ब्रह्मचारी नहीं मिला ।

” यह समाचार पाकर राजा उदास हो गया । उसके आँखों की नींद चली गई । सारे समय बस यही सोचा करता , ” मैंने तीन राज्यों को खो दिया है । मेरी प्रभुता नष्ट हो गई है । ” इन विचारों तथा उसकी लालसाओं ने उसकी मानसिक शांति छीन ली । भूख समाप्त हो गई और वह दर्द से परेशान रहने लगा । उसकी बीमारी की खबर पूरे शहर में फैल गई ।

उसी शहर में रहने वाला एक नवयुवक अभी – अभी वैद्य बनकर तक्षशिला से लौटा था । राजा की बीमारी की बात सुनकर वह राजमहल में आया और बोला , ” मैं राजा को स्वस्थ कर 11 राजा को तुरंत सूचित किया गया कि एक युवा चिकित्सक न्हें स्वास्थ्य लाभ कराने आया है । राजा ने चिकित्सक से पूछा , कई योग्य चिकित्सक मुझे स्वस्थ नहीं कर पाए । तुम ऐसा क्या रोगे ?

युवा चिकित्सक ने उत्तर दिया . “ हे महाराज ! मैं आपको स्वस्थ करने का आश्वासन देता हूँ । मैं आपसे किसी शुल्क की अपेक्षा नहीं करता । आप मात्र दवा का मूल्य मुझे दे दीजिएगा । पर आपको अपनी बीमारी का कारण विस्तारपूर्वक मुझे बताना पड़ेगा । ” राजा ने कहा ,

” तुम बीमारी का कारण क्यों जानना चाहते हो ? तुम बस मेरा इलाज करो । ” चिकित्सक ने समझाया , “ महाराज , चिकित्सकों को जब बीमारी के कारण के विषय में बताया जाता है तभी वे रोगी का पूर्ण रूप से इलाज कर पाते हैं । “

राजा ने चिकित्सक को प्रारम्भ से अंत तक की सारी बातें , युवा ब्रह्मचारी का आना , तीन शहरों को जीतने का उसका प्रस्ताव तथा अपने स्वास्थ्य की वर्तमान अवस्था , बता दीं । राजा ने कहा , “

वत्स , मेरी बीमारी का प्रारम्भ उन तीन शहरों पर अधिकार प्राप्त करने की लालसा से हुआ है । यदि तुम मेरा इलाज कर सकते हो तो मैं अति प्रसन्न होऊँगा । ” युवक ने राजा से पूछा , “ महाराज , क्या चिंता से आपको वे तीनों शहर प्राप्त हो जाएंगे ? ” राजा ने उत्तर दिया , “

नहीं , वत्स , नहीं । ” युवक ने पुनः कहा , ” फिर आप क्यों चिंता करते हैं ? यदि आप उन शहरों पर अधिकार भी कर लेंगे तो भी आप एक समय में चार प्लेट न तो भोजन कर सकते हैं . न चार बिस्तर पर सो सकते हैं न ही चार जोड़ी कपड़े एक
साथ पहन सकते हैं ।

आपको लालसाओं के चंगुल में फंसकर बहना नहीं चाहिए । जितनी अधिक लालसा या इच्छा मनुष्य करता है उतनी खुशी भी उसे नहीं मिलती है । युवा चिकित्सक के परामर्श ने राजा की आँखें खोल दी । वह स्वस्थ हो गया । उसने कहा , “ हे युवा चिकित्सक ! तुम्हारी विवेक रूपी दवा ने मुझे स्वस्थ कर दिया है । तुम एक योग्य चिकित्सक हो ,
विद्वान हो , इच्छाओं को पहचानते हो जो कि दुःख का प्रमुख कारण होती हैं । ” उसके पश्चात् युवा चिकित्सक अनुभवी परामर्शदाता बनकर राजा की सेवा में रह गया ।

शिक्षाः लालसा खुशी की शत्रु

7. बुद्धिमान पुत्र

बुद्धिमान पुत्र


वशिष्ठ का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था । माँ की मृत्यु के बाद वह अपने पिता की सेवा तन – मन – धन से करने लगा । कुछ वर्षों के बाद उसके पिता ने उसका विवाह करवा दिया । विवाह के पश्चात् वशिष्ठ की पत्नी ने अपने पति तथा ससुर का भली – भाँति ख्याल रखा पर समय के अंतराल में उसे ससुर बोझ लगने लगे ।

उसने अपने पति के मन में पिता के विरुद्ध नफरत पैदा करने हेतु उसके कान भरना शुरु कर दिया । एक दिन अवसर पाकर वह पति से बोली , ” प्रिय , देखिए अपने पिता की करतूत … वे अब उत्पाती और निष्ठुर बन गए हैं । प्रतिदिन मुझसे लड़ते रहते हैं । बिना बात मुझ पर नाराज़ होते रहते हैं ।

मैं अब और साथ नहीं रह सकती । उन्हें कब्रिस्तान ले जाकर मार डालिए और किसी गड्ढे में दफना दीजिए । ” पहले तो वशिष्ठ ने पत्नी की बात पर ध्यान नहीं दिया पर उसके पीछे पड़ जाने पर एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा , ” प्रिय , किसी व्यक्ति की हत्या आसान नहीं है और फिर अपने ही पिता के प्रति मैं ऐसा अपराध कैसे कर सकता हूँ ।

” पत्नी ने कहा , ” आप चिंता मत करें । मैं उपाय बताउँगी । ” कुछ विचारती हुई पुनः बोली , “ आप पिता जी से जाकर अनुरोध करिए कि वह आपके साथ पड़ोस के गाँव चलें जहां एक व्यक्ति के पास आपका कुछ पैसा बकाया है । बैलगाड़ी से कल सुबह – सुबह प्रस्थान करिए । मार्ग में आने वाले कब्रिस्तान पर रुकिए और जैसा पहले मैंने कहा था वैसा करिए ।

वशिष्ठ का पुत्र सात वर्ष का था । वह अत्यन्त बुद्धिमान था । अपनी माँ की बातें सुनकर उसने सोचा , ” मेरी माँ पापिनी है । दादा जी की हत्या करने के लिए वह मेरे पिता को बाध्य कर रही है । मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा । ” उस रात वह बालक अपने दादा जी के साथ सोया ।

अगली सुबह निर्धारित समय पर वशिष्ठ ने बैलगाड़ी तैयार करी और अपने पिता जी को साथ चलने के लिए बुलाया । बालक ने रोते हुए कहा , “ पिता जी , आप मुझे छोड़कर मत जाइए । मुझे भी साथ ले चलिए अन्यथा मैं आप दोनों को नहीं जाने दूंगा । ” वशिष्ठ ने उसे बहुत समझाया पर बालक की ज़िद के सामने हार गया ।

अंतत : पत्नी ने उसे साथ ले जाने की अनुमति यह कहकर दी कि पिताजी को कब्रिस्तान ले जाते समय बालक को सोता हुआ बैलगाड़ी में छोड़ दिया जाए । वशिष्ठ , उसके पिता तथा पुत्र तीनों बैलगाड़ी में सवार होकर चल दिए । मार्ग में बालक ने सोने का बहाना बनाया ।

कब्रिस्तान के पास बैलगाड़ी रोककर वशिष्ठ नीचे उतरा । अपने पिताजी को भी नीचे उतारा । फिर कुदाली लेकर निश्चित स्थान पर गड्ढा खोदने लगा । आवाज सुनकर बालक उठकर पिता के पास आया और पूछा , ” पिताजी , आप इस स्थान पर गड्ढा क्यों खोद रहे हैं ? ” वशिष्ठ ने उत्तर दिया , “ पुत्र , तुम्हारे दादा बहुत वृद्ध और कमजोर हो गए हैं ।

उन्हें कई प्रकार की बीमारियों ने घेर रखा है । वह तुम्हारी माँ से सदा लड़ते रहते हैं । रोज – रोज की यातना से मैं तंग आ गया हूँ । आज उन्हें मैं यहाँ दफना दूंगा । वशिष्ठ का पुत्र अवसर की तलाश में था ही । उसने अपने

पिता के हाथ से कुदाल छीना और एक दूसरा गड्ढा उस गड्ढे के बगल में खोदने लगा । वशिष्ठ ने पूछा , ” पुत्र , तुम गड्ढा क्यों खोद रहे हो ? ” पुत्र ने उत्तर दिया , ” पिताजी , मैं परिवार की परंपरा का पालन कर रहा हूँ ।

जब आप वृद्ध और बीमार होकर कमजोर हो जाएंगे , मेरी पत्नी से लड़ाई करेंगे तब मैं भी आपको बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा और आपको इस गड्ढे में दफन कर दूंगा । ” बालक की बात सुनकर वशिष्ठ ने कहा ,

“ हे पुत्र !, तुमने मेरी आँखे खोल दी हैं । तुम्हारी माँ के बहकावे में आकर मैं यह कठोर दुष्कृत्य करने जा रहा था । मैं तुमसे वादा करता हूँ कि ऐसा अपराध करने का कभी सोचूंगा भी नहीं । मैं तुम्हारे दादा और अपने पिताजी का अच्छे से ख्याल रखूगा । चलो अब हम घर चलें । “

जब वशिष्ठ की पत्नी ने तीनों को घर वापस आता देखा तो रुष्ट होती हुई बोली , ” तो तुम इस बुड्ढे को वापस ले आए हो ? ” वशिष्ठ ने उसे एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा और घर से बाहर निकाल दिया । पर उसके बुद्धिमान पुत्र ने किसी प्रकार अपने पिता से अनुनय विनय कर माँ को घर से निकालने से रोक लिया । उसने अपने पति तथा ससुर से अपनी करनी के लिए क्षमा माँगी और एक विनम्र , शांत और निष्ठावान गृहिणी बनकर रहने लगी ।

शिक्षा : एक बालक व्यस्क से भी अधिक बुद्धिमान हो सकता है ।

8. अमूल्य जादुई मंत्र

अमूल्य जादुई मंत्र


एक समय की बात है , बहिष्कृत बस्ती में एक अति बुद्धिमान और ज्ञानी शिक्षक रहता था । वह जादुई मंत्रों के द्वारा बिना मौसम के भी फल पैदा कर सकता था । यदि किसी आम के वृक्ष के किनारे खड़े होकर , हाथ में जल लेकर , जादुई मंत्रों का उच्चारण कर , जड़ों पर जल छिड़कता तो आम के पुराने पत्ते झड़कर नए पत्ते आ जाते ।

पेड़ पर फूल और फल लगकर पककर आम नीचे गिरते मानो दैवीय फल हों । वह शिक्षक उन्हें उठाकर घर लाता और फिर उन्हें बेचकर अपनी गृहस्थी चलाता । एक बार एक पुजारी के पुत्र ने उसे बिना मौसम का आम बेचते देखा । उसने सोचा , ” कैसे यह व्यक्ति इस मौसम में आम बेच रहा है ? अवश्य ही इसने जादू के मंत्रों से इन आमों को प्राप्त किया होगा । मुझे ये अमूल्य जादू के मंत्र इससे अवश्य सीखना चाहिए ।

” एक दिन जब वह शिक्षक वन की ओर गया हुआ था तब पुजारी के पुत्र ने उसके घर के दरवाजे पर जाकर उसकी पत्नी से पूछा , “ हे माता ! मैं आपके पति से मिलने आया हूँ । क्या वे घर पर हैं ? ” पुजारी के पत्नी ने कहा , ” नहीं पुत्र , वह वन की ओर गए हैं । ” पुत्र ने वहीं बैठकर उनके आने की प्रतीक्षा करी । शिक्षक के वापस लौटने पर उनकी पत्नी ने उन्हें पुजारी के पुत्र के विषय में बताया । शिक्षक ने पत्नी से कहा , “ प्रिय , यह युवक यहाँ जादू के मंत्र लेने आया है पर यह धूर्त है । जादुई मंत्र को यह संभाल नहीं पाएगा ।

अनुरोध किया । शिक्षक पत्नी की बात मान गया । पुजारी के पुत्र पत्नी ने उनसे पुनर्विचार कर उसे अपना शिष्य स्वीकारने का शिक्षक के साथ रहकर उनकी सेवा करना प्रारम्भ कर दिया । वह जंगल से लकड़ियाँ लाता , चावल कूटता , खाना पकाता , पानी लाता तथा और भी घर के सारे काम किया करता था । एक दिन शिक्षक की पत्नी ने शिक्षक से कहा ,

“ प्रभु , यह पुजारी का पुत्र होकर भी हमारी सेवा कर रहा है यदि न भी संभाल पाए तो भी आप कृपया इसे जादू के मंत्र सिखा दें । ” शिक्षक ने पत्नी की बात मानकर युवक को बुलाया । जादू के मंत्र पुजारी के पुत्र को सिखाकर उससे कहा , “ पुत्र , ये जादू के मंत्र अमूल्य हैं । इससे तुम्हें बहुत लाभ होगा । यदि कोई भी तुमसे तुम्हारे शिक्षक का नाम पूछे तो तुम यह अवश्य बताना कि तुमने इसे एक बहिष्कृत से सीखा है ।

यदि तुम शर्म के मारे कुछ भी और नाम बताओगे तो जादू के मंत्रों की शक्ति समाप्त हो जाएगी । ” पुजारी के पुत्र ने कहा , “ यदि कोई मुझसे पूछेगा तो मैं आपका ही नाम बताऊँगा । भला , मैं क्यों यह छुपाने लगा कि मैंने यह विद्या आपसे सीखी है ? ” जादू के मंत्र प्राप्त कर , अपने शिक्षक को नमन कर उनसे जाने की अनुमति ली ।

शहर जाकर अपने से उगाए आमों को उसने बेचना प्रारम्भ कर दिया । एक बार एक माली ने उससे एक आम खरीदा और उस आम को राजा को भेंट कर दिया । राजा ने आम खाकर पूछा , “ तुम्हें इतना स्वादिष्ट फल कहाँ से मिला ? ” माली ने उत्तर दिया , “ महाराज ! एक आदमी है जो बिना

मौसम के भी आम बेचता है । मैंने यह आम उसी से खरीदा ” इतने राजा ने कहा , ” उससे कहो कि आज के बाद से सभी आम वह मुझे लाकर देगा । ” माली ने राजा की आज्ञा पुजारी के पुत्र तक पहुँचा दी । उसने अपना सारा आम राजा के महल में पहुँचाना प्रारम्भ कर दिया ।

इस प्रकार से उसकी अच्छी कमाई होने लगी । ” एक दिन राजा ने उसे अपने महल में बुलाकर पूछा , स्वादिष्ट आम तुम्हें कहाँ से मिलते हैं ? पुजारी के पुत्र ने कहा , “ महाराज , मेरे पास अमूल्य जादू के मंत्र हैं । मुझे आम उसी से प्राप्त होते हैं । ” राजा जिज्ञासु हो उठा और बोला ,

“ मैं तुम्हें जादू करते हुए देखना चाहता हूँ । पुजारी के पुत्र ने कहा , “ महाराज ! मैं आपको अवश्य दिखाऊँगा । ” अगले दिन पुजारी के पुत्र के साथ राजा जंगल में गया । पुजारी का पुत्र एक आम के पेड़ के पास खड़ा हो गया । उसने अपने जादुई मंत्र पढ़े और हाथ का जल जड़ पर छिड़का । पलक झपकते ही पेड़ से पुराने पत्ते गिर गए और नए पत्ते आ गए ।

फूल लगे , आम में बदले और फिर पेड़ से पके आमों की बरसात हुई । राजा ने आम का स्वाद लिया और ढेरों धन तथा उपहार पुजारी के पुत्र को दिया । राजा ने उससे पूछा , “ नवयुवक , किसने तुम्हें यह अद्भुत जादुई मंत्र सिखलाया है ?

पुजारी के पुत्र ने सोचा , “ बहिष्कृत शिक्षक का नाम लेना मेरे लिए शर्म की बात होगी । लोग मुझे अपराधी समझेंगे तथा बातें बनाएंगे कि पुजारी के पुत्र ने एक बहिष्कृत से शिक्षा ली । अब मुझे जादुई मंत्र तो आ ही गए हैं किसी नामी शिक्षक का नाम ले लेता हूँ । ” यह सोचकर उसने कहा ,

” महाराज , मैंने यह विद्या तक्षशिला के एक उच्च कुल के श्रेष्ठ शिक्षक से ग्रहण की है । पुजारी के पुत्र के इस झूठ को कहते ही जादुई मंत्र का प्रभाव समाप्त हो गया । अगले दिन राजा की पुन : आम खाने की इच्छा हुई । पुजारी के पुत्र को बुलाकर उसने कहा , ” नवयुवक मेरे लिए आम लेकर आओ । ” पुजारी का पुत्र चाहकर भी आम न ला सका ।

राजा ने उससे पूछा , “ नवयुवक , तुम्हारे जादू को क्या हुआ ? ” पुजारी के पुत्र ने कहा , ” महाराज , अभी ग्रहों की स्थिति अनुकूल नहीं हैं । मैं स्थिति अनुकूल होने पर अवश्य आम लाऊँगा । ” राजा ने क्रुद्ध होते हुए कहा , “ आम के लिए मना करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ?

तुमने पहले तो कभी ग्रहों के अनुकूल स्थिति की बात नहीं की ? ” पुजारी के पुत्र ने सोचा कि यदि उसने झूठ कहा तो राजा उसे कठोर दण्ड देंगे । उसने सच बोलने का निर्णय किया और बोला , “ हे महाराज ! मुझे क्षमा कर दें । मैंने आपसे अपने शिक्षक के बारे में झूठ कहा था । ” वास्तव में ये जादुई मंत्र मैंने एक बहिष्कृत शिक्षक से सीखा

। आपसे उस शिक्षक का नाम छिपाकर मैंने उन्हें धोखा दिया है । मैंने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ा है । इसी कारण ये जादुई मंत्र मुझे छोड़ गए हैं और मैं आपके लिए आम लाने में असफल रहा । राजा ने कहा , ” तुमने झूठ बोलने का पाप किया है । जिसके पास ज्ञान होता है वही श्रेष्ठ होता है ।

अपने शिक्षक के पास वापस जाओ और उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करो । यदि जादुई मंत्र न मिलें तो दोबारा इधर आने की हिम्मत भी मत करना । ” राजा ने उसे देश निकाला दे दिया । हताशा की स्थिति में वह फिर से बहिष्कृत बस्ती में गया । वापस आता देखकर शिक्षक ने अपनी पत्नी से कहा ,

” प्रिय , देखो , मेरा शिष्य अपने जादुई मंत्र को खोकर वापस इधर आ रहा है । ” पुजारी के पुत्र ने अपने शिक्षक को नमण कर अपनी भूल को स्वीकार किया । उसने रोते हुए अपने शिक्षक से अनुरोध किया , “ आदरणीय गुरुदेव , मुझपर दया कीजिए । पुनः मुझे जादुई मंत्र दे दीजिए ।

” शिक्षक ने कहा , “ मैंने प्रारम्भ में ही तुम्हें सावधान कर दिया था । अब क्यों मेरे पास आए हो ? जो मूर्ख , बेवकूफ , कृतघ्न , झूठा और असंयत होता उसे हम जादुई मंत्र नहीं देते हैं । जाओ , चले जाओ यहाँ से । ” अपने शिक्षक से ऐसी फटकार सुनकर पुजारी के पुत्र का देल टूट गया । उसके जीने की इच्छा का अंत हो गया । फलतः ह जंगल में जाकर असामायिक मृत्यु का ग्रास बन गया ।

शिक्षा : जिसके पास ज्ञान होता है वही श्रेष्ठ होता है ।

9. सर्वोत्तम उपहार

सर्वोत्तम उपहार


प्रसन्ना शिवि आरित्थापुर का राजा था । वह अत्यन्त दयालु था । उसने छ : दान – घर अलग – अलग जगहों पर बनवाए थे । शहर के चारों दरवाजों पर एक – एक दान घर था , एक शहर के बीचोबीच था और एक महल के प्रमुख दरवाजे पर था । इन्हीं दान – घरों से वह गरीबों को दान दिया करता था ।

पूर्णिमा का दिन था । राजा राजगद्दी पर बैठा – बैठा सोचने लगा , ” ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो मैंने दान में नहीं दी हो , फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूँ । मैं व्यक्तिगत रूप से कोई उपहार देना चाहता हूँ । आज यदि दान – घर में कोई आकर कोई व्यक्तिगत उपहार माँगे तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी । यदि कोई मेरा दिल माँगे तो मैं वह भी दे दूंगा ।

यदि कोई मेरी आँखें माँगे तो वह भी देने में नहीं हिचकूँगा । कोई भी मानव उपहार ऐसा नहीं है जिसे मैं दे न सकूँ । ” राजा अपने सजे हुए हाथी पर बैठकर , दान – घर के लिए चला । इन्द्र भगवान ने राजा पर दृष्टि रखी हुई थी । उन्होंने सोचा , ” राजा शिवि याचक को अपनी आँखे देने की इच्छा रखता है … क्या सच में वह ऐसा कर सकता है ?

” इन्द्र भगवान ने राजा शिवि की परीक्षा लेने का निर्णय किया । उन्होनें एक अंधे ब्राह्मण का रूप धरा । राजा शिवि जब अपने दान – घर जा रहा था तभी ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने हाथी के सम्मुख आकर राजा का अभिवादन किया । शिवि ने हाथी को रोककर पूछा , ” हे ज्ञानी ब्राह्मण ! आपको क्या चाहिए ? ” ब्राह्मण ने उत्तर दिया , “ महाराज , आपके दान की महिमा

संपूर्ण विश्व में फैली हुई है । मैं अंधा हूँ । मैं आपसे एक आँख दान में देने की याचना करता हूँ जिससे हम दोनों कम से कम एक आँख से संसार देख सकें । ” राजा को हार्दिक प्रसन्नता हुई । उसने अपने मन में सोचा . ” अपने महल में बैठा हुआ मैं यही तो चाह रहा था । आज मेरी इच्छा पूर्ण हो गई ।

आज मैं ऐसा उपहार दूंगा जो मैंने पहले कभी नहीं दिया है । ” राजा ने ब्राह्मण से कहा , ” हे ब्राह्मण ! यह तो मेरे लिए सम्मान की बात है । एक आँख क्यों ? मैं अपनी दोनों आँखें दे सकता हूँ । ” राजा ने राजवैद्य को बुलाया और कहा , “ यह दान न तो मैं पुत्र , धन , यश , प्रभुत्व या राज्य के लिए करता हूँ ।

मैं जैसा आपसे कहूँ आप वैसा ही करें । मेरी एक आँख को निकालकर कृपया इस अंधे ब्राह्मण को दे दें । ” राजा की बात सुनकर राजवैद्य को बहुत झटका लगा । उन्होंने राजा से कहा , ” महाराज , नेत्र – दान कोई मामूली बात नहीं है । कृपया आप पुनर्विचार करें । ” दृढ़ निश्चयी राजा ने कहा , ” मैंने इस बात पर बहुत विचार कर लिया है । आप देर न करें ।

” राजवैद्य ने कुछ जड़ी बूटियों को पीसकर चूर्ण तैयार किया । उस चूर्ण को नीले कमल में रखा और फूंककर थोड़ा सा चूर्ण राजा की दाहिनी आँख में डाला । आँखों में दर्द हुआ और आँखे गोल – गोल घूमने लगीं । राजवैद्य ने पुनः राजा से कहा , “ महाराज , आपके पास अभी भी सोचने के लिए समय है । मैं अभी इसे ठीक कर सकता हूँ ।

ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा , ” मित्र , आपदर ने राजवैद्य ने पुनः थोड़ा चूर्ण राजा की आँख में डाला । आँख में असहनीय पीड़ा हुई और आँख गड्ढे के बाहर निकल आई । करें , अपना काम करें । ” राजवैद्य ने फिर राजा से कहा , “ महाराज , कृपया पुनर्विचार को मैं अभी भी ठीक कर सकता हूँ । ” राजा ने जोर देते हुए कहा , “ शीघ्र करें , देर न करें ।

” एकबार फिर से राजवैद्य ने राजा की आँखों में चूर्ण डाला । इस बार आँख गड्ढे से एक नस के सहारे लटकने लगी । “ महाराज , आपके पास अभी भी पुनर्विचार करने का समय है । मैं अभी भी वापस ठीक कर सकता हूँ … राजा ने असहनीय पीड़ा को सहते हुए कहा , ” नहीं , देर मत करें ।

” राजा की स्थिति देखकर रानी और मंत्री ने विलाप करते हुए राजा के पैर पकड़ लिए और कहा , “ महाराज , नेत्रदान न करें । ” ” – राजवैद्य ने कहा । राजा ने दर्द सहते हुए राजवैद्य से कहा , “ कृपया शीघ्र काम पूरा करें । ” राजवैद्य ने बाँये हाथ से आँख पकड़ी और दाहिने हाथ में चाकू लेकर नस काटकर , उसे अलग कर , राजा के हाथ में दे दिया ।

अपना दर्द बर्दाश्त करते हुए राजा ने नेत्र ब्राह्मण को देकर कहा , “ हे ब्राह्मण ! मैं नेत्रों से अधिक परम ज्ञान को चाहता हूँ । इस नेत्र दान को , परम ज्ञान के नेत्रों को पाने का कारण बनने ब्राह्मण ने राजा से नेत्र को पाकर अपनी आँख के गड्ढे में बैठा लिया । वह आँख खिले हुए नीले कमल की भांति लग रही

थी । राजा शिवि ने अपनी एक आँख से ब्राह्मण को देखा और कहा , ” आह ! मेरा नेत्र – दान सफल हो गया । ” लिया और महल से चला गया । राजमहल में उपस्थित सभी लोग मूक बने उसे देखते रह गए । तत्पश्चात् उन्होंने अपना दूसरा नेत्र भी ब्राह्मण को दान में दे दिया । नेत्र पाकर ब्राह्मण ने उसे भी अपनी दूसरी आँख में बैठा इस महान् दान के पुण्य से राजा शीघ्र ही स्वस्थ होने लगे ।

उनकी आँखों के गड्ढे भर गए । दर्द समाप्त हो गया । कुछ दिनों तक महल में रहने के पश्चात् उन्होंने सोचा , “ एक अंधे व्यक्ति को शासन से क्या लेना देना ? मैं एक भिक्षुक बनकर तपस्वी का जीवन जीऊँगा । ” राजा ने मंत्रियों की सभा बुलाई और उन्हें अपना निर्णय सुनाया । राजा को पालकी में बैठाकर एक उद्यान में लाया गया और एक सरोवर के किनारे बैठा दिया गया । एक सहायक राजा की सेवा के लिए नियुक्त कर दिया गया ।

राजा ध्यानमग्न होकर बैठ गए और अपने दान के विषय में विचार करने लगे । राजा के पुण्य कर्मों से इन्द्र का आसन हिल उठा । इन्द्र स्वयं उद्यान में प्रकट हुए । उनकी पदचाप सुनकर राजा ने पूछा , ” कौन है वहाँ ? ” इन्द्र भगवान् ने कहा , ” मैं इन्द्र भगवान् हूँ ! मैं तुम्हारे पास आया हूँ । बोलो तुम्हे क्या चाहिए ” प्रसन्न होकर राजा ने कहा , ” हे भगवान् ! मेरे पास सब कुछ है । पर्याप्त मात्रा में धन और सेना है । इस अंधे को और अधिक कुछ नहीं चाहिए ।

इन्द्र भगवान् ने पुनः कहा , “ हे महान् राजन् ! दान का प्रतिदान उसी जन्म में प्राप्त होता है । आप सत्य – क्रिया करें । आपके नेत्र आपको पुनः प्राप्त हो जाएंगे । ” सत्य – वचन मेरी आँखें ठीक करें । ” राजा शिवि ने सत्य – क्रिया करी । उन्होंने कहा , ” जिस किसी याचक ने मुझसे याचना करी वे सभी मुझे अति प्रिय थे ।

ये राजा के सत्यवचन से उनकी एक आँख ठीक हो गई । फिर उन्होंने दूसरा वचन कहा , “ एक अंधे ब्राह्मण ने जब मुझसे याचना करी तब मैंने अपने नेत्र उसे दे दिए । उस समय मैं प्रेस और आनंद की भावना से ओतप्रोत था । यह सत्यवचन मेरी दूसरी आँख ठीक करे । ” तुरंत ही राजा की दूसरी आँख भी ठीक हो गई । उनकी नई आँखें दिव्य नेत्र के रूप में जानी गई । मंत्रियों की सभा हुई ।

राजा के नेत्र वापस आ गए हैं यह खबर पूरे राज्य में फैल गई । उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई । महल के प्रमुख द्वार पर विशाल शामियाना लगाया गया । चंदन के महल में , सफेद मंडप के नीचे बने सिंहासन पर राजा बैठे थे । उन्होंने घोषणा करी , “ शिवि के राज्य के लोग मेरी आँखें देखें । कोई भी ऐसा धन नहीं है जिसे न दिया जा सके । प्रतिदिन भोजन करने से पूर्व आप सभी कुछ न कुछ अवश्य दान किया करें । ” शिवि के लोगों ने तभी से दान देना तथा कल्याणकारी दूसरे कार्य अपने जीवन में करना प्रारम्भ कर दिया ।

शिक्षाः जीवन में दान से बढ़कर और कुछ भी नहीं है ।

10. विश्वासघाती

विश्वासघाती


एक किसान अपना खेत जोत रहा था । खेत जोतते – जोतते उसके बैल थक गए थे । उन्हें सुस्ताने के लिए किसान ने खोल दिया और स्वयं कुदाल लेकर खेत खोदने लगा । बैल चरते चरते झाड़ियों में घुसे और फिर जंगल की ओर निकल गए । अपना विश्वासघाती काम समाप्त कर किसान उन्हें ढूँढने लगा पर वे कहीं नहीं मिले ।

अपने बैलों के लिए दु : खी किसान उन्हें ढूँढते – ढूँढते स्वयं श्री जंगल में खो गया । एक सप्ताह तक वह जंगल में भटकता रहा । तभी एक झरने के पास उसे कुछ फल के वृक्ष दिखाई दिए । वह भूखा तो था ही … जमीन पर गिरे हुए कुछ फलों को उठाकर उसने खा लिया । फल अत्यंत स्वादिष्ट थे । फलत : उसकी भूख और बढ़ गई ।

फल तोड़ने की इच्छा से वह पेड़ पर चढ़ गया पर जिस डाल पर फल तोड़ने के लिए वह बैठा , अचानक वह टूट गई और डाल सहित किसान झरने के भीतर चला गया । झरने में काफी पानी होने के कारण उसे चोट तो नहीं लगी पर किसान उस गहरे पानी में कई दिनों तक पड़ा रहा ।

एक दिन झरने के किनारे पेड़ पर रहने वाले एक बंदर ने उस किसान को पानी में पड़े हुए देखा । उसे बड़ी दया आई । ” तुम यहाँ पर कैसे आए ? तुम मनुष्य हो या कोई और हो ? अपने विषय में बताओ । ” किसान ने उत्तर दिया , “ मैं जंगल में भटक गया था और अब अपने जीवन के अंतिम दिन गिन रहा हूँ । यदि तुम मेरी सहायता करो तो मैं बच सकता हूँ ।

किसान पर दया कर बंदर ने कछ पत्थर इकट्ठा किया । उन्हें काटकर उसमें सीढियां बनाई जिससे उस पर चढ़ा जा सके । तत्पश्चात् पत्थर पानी में डालकर उसने कहा , ” मित्र , इस पर चढ़ो , मेरा हाथ पकड़ो । मैं तुम्हें बाहर खींच लूंगा । ” इस प्रकार किसान को बंदर ने पानी से बाहर निकालकर एक पत्थर पर बैठा दिया और फिर बोला ,

“ मित्र , मैं बहुत थक गया हूँ । मैं थोड़ी देर सोना चाहता हूँ । बाघ , शेर , चीता , भालू संभव है मुझे सोता देखकर मुझपर हमला करें । कृपया तुम नजर रखना । ” ऐसा कहकर बंदर सो गया । किसान के मन में कुविचार ने सिर उठाया । उसने सोचा , “ इस बंदर को मारकर मैं अपनी भूख शांत कर लेता हूँ । मुझे भी शक्ति मिल जाएगी और फिर मैं इस जंगल से बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ पाऊँगा ।

” किसान ने एक पत्थर उठाकर सोए हुए बंदर के सिर पर दे मारा । भूख से बेहाल किसान का वार बहुत ही हल्का पड़ा । बंदर को थोड़ी सी चोट लगी और वह उठकर बैठ गया । आँखों में आँसू भरकर उसने किसान की ओर देखा और बोला , ” तुमने ऐसा क्यों किया ? मैंने तुम्हें खतरनाक झरने से बचाया और तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया ।

फिर भी मैंने तुम्हें क्षमा किया । मेरे पीछे आओ । इस जंगल से बाहर मनुष्यों की बस्ती में जाने का मार्ग मैं तुम्हें बताता हूँ । ” बंदर ने किसान को जंगल से बाहर निकलने का मार्ग दिखा दिया । समय के अंतराल में अपने बुरे कर्मो के कारण किसान कोढ़ी बन गया । जहाँ भी जाता उसे लोगों की उपेक्षा ही मिलती थी । “ तुम्हारे शरीर से दुर्गध आती है ” या फिर “ यहाँ से हटो ” लोग इसी प्रकार की बातें करते । अपने हितैषी को धोखा देने के कारण किसान को बहुत दु : ख सहना पड़ा ।

शिक्षाः विश्वासघात पाप है । विश्वासघाती को सजा मिलती ही है ।

11. हंस का त्याग

हंस का त्याग


एक राजा के महल के उद्यान में एक बहुत ही सुंदर सरोवर सदा पक्षियों से भरा रहता था । एक शिकारी भी प्रतिदिन वहाँ हंस का त्याग जिसमें कमल खिला करते थे । सरोवर होने के कारण उद्यान आता था । पक्षियों को अपने जाल में फंसाता और उन्हें बाजार में बेचकर अपनी आजीविका चलाता था । एक बार उस कमल के सरोवर मे कुछ सुनहरे हंस आए ।

खुशी – खुशी वहाँ खा पीकर वे वापस अपने घर चले गए । वहाँ उन्होंने हंस प्रमुख से जाकर कहा , “ श्रीमान् ! शहर के पास एक कमल का सरोवर है । वहाँ खूब भोजन है । हमें नियमित रूप से वहाँ जाना चाहिए । ” उनके सरदार ने उन्हें होशियार करते हुए कहा , ” नहीं , मित्रों ! शहर के समीप सदा खतरा रहता है । हमें वहाँ नहीं जाना चाहिए ।

” शेष हंसों के हठ करने पर हंस प्रमुख ने कहा , ” यदि तुम सबकी इतनी ही इच्छा है तो चलो चलें । ” सुनहरे हंस एक झुंड में कमल से भरे सरोवर की ओर उड़ चले । शिकारी ने वहाँ पहले से ही जाल बिछा रखा था । हंस प्रमुख का पैर जाल में फंस गया । उसने अपने पैर को छुड़ाने की बहुत चेष्टा करी पर छुड़ा नहीं पाया ।

पैर से खून बहने लगा और वह दर्द से छटपटाने लगा । अपने दर्द को सहते हुए उसने सोचा , “ यदि अभी मैंने अपने साथियों को बता दिया कि मैं फँस गया हूँ तो वे सब भय से आक्रान्त होकर बिना दाना चुगे ही उड़ जाएँगे ।

हंसों के दाना चुग लेने पर हंस प्रमुख ने उन्हें आवाज दी । आवाज सुनकर सभी हंस होशियार हो गए और अपनी जान बचाने के लिए उड़ गए । उनमें से एक बुद्धिमान हंस ने सोचा , ” देखता हूँ , कि हमारे प्रमुख साथ हैं या नहीं । ” शीघ्रता से वह उड़ता हुआ अपने झुंड के आगे पहुँचा । हंस प्रमुख को वहाँ न पाकर उसने उन्हें झंड के बीच में ढूंढा ।

प्रमुख को वहाँ भी न पाकर वह समझ गया कि अवश्य ही वह जाल में फंस गए हैं । वापस मुड़कर शीघ्रता से उड़ता हुआ वह कमल सरोवर पहुँचा जहाँ उसने हंस प्रमुख को संकट में पाया । बुद्धिमान हंस वहीं उतरा और सांत्वना देते हुए प्रमुख से बोला . ” श्रीमान् ! चिंता न करें । आपको इस जाल से निकालने के लिए मैं आत्म – बलिदान दे दूंगा ।

” हंस प्रमुख ने उत्तर दिया , ” मित्र , दूसरे हंस बिना मेरी ओर देखते हुए उड़ते जा रहे हैं । तुम भी उनके साथ जाओ । मेरी चिंता मत करो । जाल में फंसे हुए पक्षी की सहायता कोई नहीं कर सकता है । ” दूसरे हंस ने प्रत्युत्तर दिया , “ मैंने सुख के दिनों में सदा आपकी सेवा करी है । मैं अभी आपको कैसे छोड़ सकता हूँ ? मैं जाऊँ या न जाऊँ , दोनों ही स्थितियों में मैं अजर – अमर तो नहीं हो जाऊँगा ।

मैं आपका भक्त हूँ और ऐसी अवस्था में मैं आपको अकेला नहीं छोडूंगा । ” हंस प्रमुख ने कहा , ” प्रिय मित्र , तुम सही हो । संकट काल में अपने मित्र को कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए । सज्जनों के लिए यही न्यायसंगत है । ” दोनों हंस आपस में बातें कर रहे थे तभी शिकारी वहाँ आ

पहुँचा । दोनों शिकारी को देखकर चुप हो गए । शिकारी ने देखा कि एक हंस जाल में फंसा हुआ है और दूसरा मुक्त है । उसने सोचा , ” यह मुक्त हंस यहाँ क्यों बैठा है ? ” उसने हंस से पूछा , ” जाल में बंद हंस तो उड़ नहीं सकता है पर तुम अपनी रक्षा हंस ने उत्तर दिया , ” हे शिकारी ! यह हस हमारा मुखिया है । मेरा परम मित्र है ।

जबतक मैं जीवित हूँ इसे नहीं छोड़ सकता । ” करते हुए क्यों नहीं उड़ गए ? तुम तो जाल में भी नहीं हो …. तुम्हारा उस हंस से क्या कोई संबंध है ? ” तथापि शिकारी ने दूसरे हंस से कहा , “ तुम मुक्त हो , मैंने तुम्हें पकड़ा नहीं है । तुम जाओ और प्रसन्नतापूर्वक रहो । ” पर हंस ने कहा , ” मित्र के बिना अपनी स्वतंत्रता की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता हूँ । यदि आपकी इच्छा हो तो आप मुझे पकड़ लें पर उन्हें छोड दें ।

हम दोनों उम्र और आकार में समान हैं आप घाटे में नहीं रहेंगे । ” हंस के त्याग की भावना से शिकारी अत्यन्त प्रभावित हुआ । उसने हंस प्रमुख को जाल से आज़ाद कर गले लगा लिया । उसके पैर के जख्मों को पानी से धोया । शिकारी की दया और प्रेम से शीघ्र ही उसके घाव ठीक हो गए ।

हंसों के प्रमुख ने शिकारी से पूछा , ” मित्र , तुम जाल क्यों डालते हो ? ” शिकारी ने उत्तर दिया , “ पैसे के लिए । ” हंस प्रमुख ने उसे सलाह देते हुए कहा , “ यदि ऐसी बात है तो तुम हमें राजा के पास ले

के पास ले चलो । ” चलो । राजा से मैं तुम्हें ढेर सारे पैसे दिलाऊँगा । ” शिकारी ने मना करते हुए कहा , ” मैं राजा के पास नहीं जाना चाहता हूँ । राजा सनकी होते हैं । वे या तो तुम्हें खेल दिखाने के लिए रखेंगे या फिर मार कर खा लेंगे । ” हस प्रमुख ने उसे समझाते हुए कहा , ” मित्र डरो मत । राजा समझदार और न्याय – परायण भी होते हैं ।

तुम कृपया हमें राजा शिकारी ने अपने कंधे पर उन्हें थैले में लटकाया और राजा के पास ले चला । उसने राजा को सुनहरे हंस दिखलाए जिन्हें देखकर राजा हर्षित हुआ । रत्न जटित आसन पर हंसों के प्रमुख को बैठाया और सुनहरी चौकी पर दूसरे हंस को बैठाया । सुनहरे बर्तनों में स्वादिष्ट भोजन परोसा गया । शिकारी को नहला – धुला कर अच्छे कपड़े पहनाने की राजा ने आज्ञा दी ।

शिकारी के साथ शाही व्यवहार किया गया और उसे कीमती आभूषणों से सजाया गया । राजा ने उसे कीमती उपहार देकर विदा किया । दोनों सुनहरे हंसों को कुछ दिनों तक ससम्मान महल में राजा ने रखा और फिर उन्हें भी विदा कर दिया । वे वापस अपने साथियों के पास चले गए । “

शिक्षाः साहस और त्याग सदा पुरस्कृत करता है ।

12. कृपण व्यापारी

कृपण व्यापारी


बहुत पुरानी बात है , कोशीय नामक एक व्यापारी था । उसके पूर्वज अत्यन्त धनवान थे और दान देने के लिए विख्यात थे । शहर के कई भागों में उन्होंने बीमार और गरीबों के लिए : बनवाए थे । फलतः पूरे राज्य में सभी उन्हें आदर भाव से देखा जब घर का मुखिया बना तो कोशीय ने सोचा , ” मेरे पूर्वजों ने मेहनत से कमाए हुए धन को दान में देकर बर्बाद किया है । मैं लोगों को दान नहीं दूंगा और धन की बचत करूंगा ।

” उसने निश्चय किया । अपने भाई को भी साथ ले जाने की इच्छा से वह उसके घर गया । छोटा भाई अपने पूर्वजों द्वारा बनवाए दानघर को बंद कर दिया और बन गया । भिक्षुक और दीन हीन उसके द्वार पर आकर कहते , ” हे महान् व्यापारी ! अपने पूर्वजों की परंपरा को नष्ट मत करो , दान दो । तुम और तुम्हारा परिवार दीर्घायु होगा ।

” किन्तु कोशीय पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं करते थे । पड़ता । उसने फाटक पर पहरेदार बिठा दिए जिससे कोई भी भीतर न आ सके । कोशीय स्वयं भी बहुत थोड़ा भोजन करता और अपने परिवार को भी कम खाने देता । फटे पुराने कपड़े पहनता और पुराने रथ पर चढ़ता । इस प्रकार धीरे – धीरे उसका धन व्यर्थ होने लगा । एक दिन कोशीय ने राजा की सेवा में जाने का सपरिवार अति स्वादिष्ट

भोजन कर रहा था । उसने कोशीय को आसन थोड़ा भोजन कर लीजिए । ” सुस्वादु व्यंजन देखकर कोशीय के मुंह में पानी आ गया । उसकी खाने की प्रबल इच्छा थी पर उसने सोचा कि यदि मैं छोटे व्यापारी के घर कुछ भी खाऊँगा तो मुझे भी इसे बुलाना पड़ेगा । उसमें बेकार धन बर्बाद होगा । ऐसा विचार कर उसने भोजन करने से मना कर दिया । छोटे व्यापारी के दोबारा पूछने पर उसने कहा , “ मेरा पेट भरा हुआ है । मैंने अभी अभी खाना दादा , आइए , देते हुए कहा , खाया है ।

” उसने कहने को तो कह दिया पर स्वादिष्ट भोजन देखकर उसके मुंह में पानी आता रहा । भोजन समाप्त करने पर दोनों राजा से मिलने उसके महल में गए । मिलकर वापस भी आ गए पर कोशीय पूरे समय केवल सुस्वादु व्यंजन के विषय में ही सोचता रहा । उसने फिर सोचा , “ यदि मैं घर पर वह सुस्वादु व्यंजन बनाऊँ तो बहुत सारे लोग खाने के लिए आ जाएंगे । ढेर सारा अन्न , दूध , और शक्कर बर्बाद होगा ।

नहीं , मैं नहीं पकाऊँगा । ” पर उसके दिमाग में सुस्वादु भोजन का विचार ही उसे यातना देता रहा । धीरे – धीरे उसके चेहरे का रंग पीला हो गया । उसका स्वास्थ्य गिरता चला गया और वह बिस्तर से आ लगा । एक दिन उसकी पत्नी ने पूछा , “ प्रभु , आपको किस वस्तु की चिंता है ? आप पीले पड़ गए हैं । क्या राजा आपसे अप्रसन्न

हैं ? या फिर पुत्रों ने आपका निरादर किया है ? किस बात की पीड़ा है ? मुझे तो बताइए …. ” व्यापारी ने कहा , “ प्रिय ! मेरी एक इच्छा है । क्या तुम उसे पूरा करोगी ? ” पत्नी ने कहा , “ प्रभु ! यदि मैं कर पाऊँगी तो अवश्य आपकी इच्छा पूरी करूँगी । ” कोशीय ने पत्नी से कहा , “ प्रिय , कुछ दिनों पूर्व मैंने छोटे भाई को अत्यंत सुस्वादु व्यंजन खाते देखा था । तभी से मैं उसे खाना चाहता हूँ । ” पत्नी ने पति से पूछा , “

प्रभु , क्या आप इतने निर्धन हैं कि वह व्यंजन घर पर पकाकर नहीं खा सकते ? मैं वह व्यंजन इतनी अधिक मात्रा में बनाऊँगी कि सारा शहर खा सके । ” अपनी पत्नी के उत्तर से कोशीय अत्यधिक उत्तेजित हो गया । उस पर चिल्लाता हुआ बोला , “ मैं जानता हूँ तुम बहुत सम्पन्न हो । क्या तुम धन अपने पिता के पास से लेकर आई हो जो पूरे शहर को खिलाना चाहती हो ? ” पत्नी को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ ।

कुछ सोचकर उसने कहा , ” फिर मैं इतना ही व्यंजन बनाऊँगी जितना हमारे पड़ोस के लिए पर्याप्त हो । ” कोशीय ने पुनः कहा , ” तुम्हें अपने पड़ोसियों से क्या लेना देना है ? वे अपने घर में पका सकते हैं । ” पत्नी ने फिर कहा , ” फिर मैं इतना ही बनाऊँगी जो हमारे बगल के सात घरों के लिए ही पर्याप्त हो । ” कोशीय ने पूछा , ” तुम्हें उनसे क्या लेना – देना है ?

परिवार के लिए पर्याप्त हो । ” पकाऊँगी । ” पत्नी ने कहा , ” फिर मैं उतना ही पकाऊँगी जितना हमारे कोशीय फिर खीझा , ” तुम्हें उन सबसे क्या लेना देना है ? ” पत्नी ने कहा , ” तब मेरे प्रभु ! फिर मैं मात्र अपने और आपके लिए पकाऊँगी । ” कोशीय अभी भी पत्नी से असहमत होता हुआ बोला , “

तुम कौन हो ? तुम क्यों कर खाओगी ? ” अंततः पत्नी ने कहा , ” तब प्रभु , में मात्र आपके लिए कोशीय ने उससे कहा , ” तुम मेरे लिए मत पकाओ । यदि व्यंजन बनेगा तो कई लोग उसे खाने की चाहत रखेंगे । तुम मुझे बस थोड़ा सा अन्न , चीनी और दूध दे दो । मैं जंगल जाकर ,

पकाकर वहीं खा लूँगा । ” व्यापारी की पत्नी ने उसे सभी सामग्रियाँ दे दी । व्यापारी ने गुप्त वेश धारण कर , एक सेवक के साथ सारी सामग्रियाँ लेकर चुपचाप वन की ओर प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर , एक बड़े पेड़ के नीचे चूल्हा बनाया और उस सेवक को आग जलाने के लिए सूखी लकड़ियाँ लाने भेजा । लकड़ियाँ लेकर आने पर उसने सेवक से कहा , ‘

अब तुम जा सकते हो । सड़क के किनारे मेरी प्रतीक्षा करना । यदि तुम किसी को इस ओर आते देखो तो मुझे बताना । जब मैं तुम्हें बुलाऊँ तभी आना । ” इस प्रकार कोशीय ने वन में स्वादिष्ट व्यंजन बनाया । इन्द्रदेव इन सब के प्रत्यक्षदर्शी थे । उन्हें लगा कि व्यापारी के पूर्वजों की साख और परंपरा दोनों ही खतरे में है । अपनी कृपणता के कारण व्यापारी न तो स्वयं खाता है और न ही दूसरों को दान देता है । इन्द्रदेव ने कुछ ब्राह्मणों को गरीबों के वेष में कोशीय

के पास भेजा । पाँच भिक्षुओं ने आकर उससे पूछा , “ शहर जाने किंतु भिक्षुक उल्टे कोशीय की ओर निकट आने लगे । कोशीय चिल्लाया , ” क्या तुम सब बहरे हो ? मेरी ओर क्यों आ रहे हो ? उस ओर जाओ , वही रास्ता शहर की ओर जाता है । ” भिक्षुक ब्राह्मणों ने कहा , ” तुम चिल्ला क्यों रहे हो ? यहाँ हमें आग और धुंआ दिख रहा है ।

खुशबू से लगता है कि खीर पक रही है । भोजन का समय है और हम लोग – ब्राह्मण हैं । हमें भी क्यों ? क्या तुम शहर का मार्ग भी नहीं का मार्ग किस ओर है ? ” कोशीय ने कहा , जानते हो ? उस ओर जाओ । ” भोजन करना है । ” कोशीय ने उन्हें मना करते हुए कहा , “

मैं यहाँ कोई ब्राह्मण भोज नहीं करा रहा हूँ । यहाँ से चले जाओ । मैं अन्न का दाना भी नहीं दूंगा । मेरे पास बहुत ही थोड़ा भोजन है अपना भोजन कहीं और जाकर ढूँढो । ” एक ब्राह्मण भिक्षुक ने कोशीय की ओर देखा और कहा , ” हे कोशीय ! अल्प हो तो अल्प दो , सीमित हो तो सीमित दो , ढेर हो तो ढेर दो । कुछ भी नहीं देना सही नहीं है ।

उदारतापूर्वक दो और अच्छे से खाओ । उत्तम मार्ग पर चलो । अकेले खाने से तुम्हें कभी भी प्रसन्नता नहीं मिलेगी । ” उसकी बात सुनकर कोशय का मन बदल गया । उसने सभी ब्राह्मण भिक्षुओं को सुस्वादु व्यंजन परोसा । विस्मयकारी ढंग से . ब्राह्मणों के जी भरकर खाने के पश्चात् भी सुस्वादु व्यंजन

की मात्रा में कोई कमी नहीं आई । कोशीय को बहुत अचरज हुआ । ब्राह्मणों ने कहा , ” कोशीय , हम यहाँ तुम्हारे व्यंजन खाने नहीं आए हैं । तुम्हारे पूर्वज अत्यंत दानी थे । तुम कृपण , क्रोधी और पापी हो गए हो । अपने पूर्वजों के बताए मार्ग पर चलो । उससे तुम्हारा भला होगा ।

” ब्राह्मणों से ज्ञान पाकर कोशीय घर वापस आया । उसने पुनः दानघर का जीर्णोद्धार कराया और पूर्वजों के परोपकार की परंपरा का अनुसरण करने लगा ।

शिक्षाः दान से विपुलता आती है ।

13. एक भिक्षुक

एक भिक्षुक


एक धनिक का बोधिकुमार नामक एक पुत्र था । युवावस्था में कदम रखते ही उसके माता – पिता ने उसका विवाह एक अत्यन्त सुन्दरी युवती के साथ कर दिया । कुछ समय के पश्चात् बोधि कुमार के माता – पिता परलोक सिधार गए ।

एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा , “ प्रिय ! मैं चाहता हूँ कि तुम धन का आनन्दपूर्वक उपभोग करो । ” हैरान परेशान पत्नी ने पूछा , ” और आप मेरे प्रभु ?

” ” मुझे धन की आवश्यकता नहीं है । मैं मोक्ष की प्राप्ति के लिए हिमालय पर जाकर एक भिक्षुक के रूप में रहूँगा । ” बोधि कुमार ने उत्तर दिया । पत्नी ने पूछा , ” भिक्षावृत्ति क्या केवल पुरुषों के लिए ही बोधिकुमार ने कहा , “

नहीं प्रिय ! यह स्त्रियों के लिए भी इसपर पत्नी बोली , ” तब तो मैं भी भिक्षुणी बनकर आपके साथ चलूंगी । मुझे धन की कोई चाहत नहीं है । ” ” जैसी तुम्हारी इच्छा , प्रिय … ” बोधिकुमार ने कहा । इस प्रकार अपनी सारी संपत्ति का परित्याग कर दम्पत्ति वहाँ दूर चले गए ।

एक छोटी सी कुटी बनाकर वहीं भिक्षुक का जीवन – यापण करने लगे । एक दिन दंपत्ति की मिठाई खाने की इच्छा हुई । वे राजकीय उद्यान की दुकान में गए । काशी का राजा भी अपने

सेवकों के साथ उसी समय उद्यान में मनोरंजन हेतु आया हुआ था । राजा ने भिक्षुक दंपत्ति को वहाँ बैठे हुए देखा । वह भिक्षुणी के अप्रतिम सौंदर्य से मुग्ध हो गया । पास जाकर राजा ने बोधि कुमार से पूछा , ” नवयुवक , यह स्त्री तुम्हारी क्या लगती है ? ” बोधिकुमार ने उत्तर दिया , ” महाराज , इससे मेरा कोई संबंध नहीं हैं हम दोनों भिक्षुक हैं ।

हाँ , जब हम गृहस्थ थे तब यह मेरी पत्नी थी । ” राजा ने मन ही मन सोचा , ” इसका अर्थ है कि यह उसकी कोई नहीं लगती है … ” राजा ने बोधिकुमार से कहा , ” यदि कोई बलपूर्वक तुम्हारी इस सुंदर पत्नी को तुमसे दूर ले जाएगा तो तुम क्या करोगे ? ” बोधिकुमार ने उत्तर दिया ,

“ यदि कोई बलपूर्वक मेरी पत्नी को दूर ले जाएगा और इस कारण मैं अपने भीतर क्रोध की उठती ज्वाला को महसूस करूँगा तो मैं उसे ठीक उसी तरह दबा दूंगा जैसे तेज बारिश धूल – कण को दबा देती है । ” राजा ने बोधिकुमार की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया । भिक्षुणी की सुंदरता से मुग्ध राजा ने अपने सेवकों को आज्ञा दी ,

” इस भिक्षुणी को मेरे महल में ले जाओ । ” राजा की आज्ञा का पालन हुआ । रोती हुई भिक्षुणी को राजसेवक खींचता हुआ महल ले गया । भिक्षुणी ने राजा के व्यवहार की बहुत भर्त्सना की । राजा ने भरसक प्रयास किया कि वह भिक्षुणी का मन बदल सके पर सफल न हो सका ।

क्रुद्ध राजा ने भिक्षुणी को बंदीगृह में डाल दिया और फिर सोचने लगा , “ यह भिक्षुणी मुझसे विवाह करने के लिए तैयार नहीं हैं , और इसे बलपूर्वक लाने पर भी भिक्षुक ने क्रोध नहीं जताया । मुझे स्वयं ही उद्यान में जाकर देखना चाहिए कि भिक्षुक कर क्या रहा है ? ” राजा चुपचाप

उद्यान में पहुँचा । वहाँ बोधिकुमार शांतिपूर्वक बैठकर अपना वस्त्र सिल रहा था । राजा घोड़े से उतरकर उसके पास गया । बोधिकुमार ने राजा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने काम में तल्लीन रहा । राजा ने सोचा कि भिक्षुक क्रोधवश उससे बात नहीं कर रहा है ।

बोधिकुमार ने राजा के मनोभावों को समझकर राजा से कहा , ” मुझे क्रोध आया था पर उसे मैंने स्वयं पर हावी नहीं होने दिया । अपने जीवनकाल में मैं कभी भी क्रोध को स्वयं पर हावी नहीं होने दूंगा । जैसे बारिश धूल को दबा देती है उसी प्रकार मैंने क्रोध को दबा दिया है । “

क्रोध के कुप्रभाव के विषय में कई बातें बोधिकुमार ने बताई । राजा सब कुछ शांतिपूर्वक सुनता रहा । उसका मनोविकार दूर हो गया और उसे अपनी गलती का भान हो गया । भिक्षुक की शिक्षा से अभिभूत राजा ने भिक्षुणी को उद्यान में लाने का आदेश दिया ।

भिक्षुक दंपत्ति के समक्ष अपने घुटनों पर बैठकर हाथ जोड़कर उसने क्षमा याचना करी और कहा , “ हे श्रद्धेय सन्यासी । आप दोनों इस उद्यान में प्रसन्नतापूर्वक रहते हुए भिक्षावृत्ति का पालन करें । मैं आप लोगों की रक्षा करूँगा । ” ऐसा कहकर भिक्षुक दंपत्ति को नमण कर राजा अपने महल चला गया । भिक्षुक दंपत्ति आराम से वहाँ रहने लगे ।

शिक्षा : क्रोध को कभी भी अपने ऊपर हावी न होने दें ।

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