विनायक दामोदर सावरकर एक महान रचनाकार , सृजनकर्ता, आदर्शवादी व्यतित्त्व, इतने बलिदानों और संघर्समय जीवन के वावजूद क्यों कुछ लोग उन्हे उनका सम्मान नहीं दे रहे हैं, क्यों आज भी उनके व्यतित्त्व पर मतभेद हैं।
परन्तु सच्चाई छुप नहीं सकती हैं वीर सावरकर 1905-06 मे इंगलैंड गये, और पहले भारतीय भी थे जिन्होंने लंदन मे वकालत की पढाई की इस दौरान उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी की 1500 से अधिक किताबों को पढ़ लिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनपर लाइब्रेरी में जाने पर भी प्रतिबंध लगाया था।
वीर सवाकर पहले भारतीय थे जिन्होंने
ब्रिटिश काल में बैरिस्टर का परीक्षा पास करने वाले भारतीयों को एक अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर करना होता था जिस पर लिखा था "डिग्री प्राप्त होने के बाद मैं ब्रिटीश सरकार का वफादार रहूंगा"
सावरकर ने परीक्षा पास की लेकिन उन्होंने अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया, जिसके कारण उन्हें डिग्री नहीं प्राप्त हो सकी । उन्हीं सावरकर को कांग्रेसी गुलाम अंग्रेजों का पिट्ठू बताते हैं, लेकिन गांधी और नेहरू ने इसी अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर कर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की और प्रैक्टिस की और देशभक्त भी कहलाये।
सावरकर इटली के स्वतन्त्रता सेनानी ‘जोजेफ मैजिनी और गैरीबाल्डी’ के विचारों से बहुत प्रभावित थे और देश के लिए उनके आदर्शों के प्रशंसक थे। इसलिए इंग्लैंड में लिखी उनकी पहली पुस्तक ‘मैजिनी की आत्मकथा’ का ही मराठी रूपान्तर था जिसने देशवासियों में तहलका मचा दिया था। इस पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार थे – ‘‘कोई भी राष्ट्र कदापि नहीं मरता। परमात्मा ने मानव को स्वतन्त्र रहने के लिए उत्पन्न किया है। जब दृढ़ संकल्प लोगे तभी तुम्हारा देश भी स्वतन्त्र हो जायेगा।’’
भारत में इसके प्रकाशन के लिए पर्याप्त धनराशि जुटाने में बाबाराव असफल हो गए तब क्रांति की देवियों ने, उनकी पत्नी और सावरकर की पत्नी ने अपने गहने बेच कर धन इकट्ठा करने में सहायता की। अंग्रेजों को जब इस पुस्तक का पता चला तो उन्होंने इसके प्रकाशन को बीच में ही बंद करवा कर पुस्तक भी जब्त कर ली। इस कलम के सिपाही से अंग्रेज़ी हुकूमत इतनी आक्रान्तित थी कि इनके द्वारा लिखित 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तक ‘1857 का सम्पूर्ण सत्य’ को प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबन्धित कर दिया। विश्व इतिहास में किसी लेखक के साथ ऐसा पहली बार हुआ था। इस ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद श्री वी0 वी0एस0 अय्यर एवं बैरिस्टर फड़के द्वारा किया गया और अथक प्रयास के बाद हालैंड में इस पुस्तक का प्रथम अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हो पाया।
ब्रिटिश हुकूमत के विरोध करने पर गांधी और नेहरू भी जेल गए और जेल में भोजन से लेकर रहन सहन में विशेष सुविधा उन्हें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जेल में दी गयी जबकि सावरकर ब्रिटिश हुकूमत के लिए खतरनाक माने गए। इन्हें कालापानी दिया गया जो सेल्युलर जेल के नाम से अंडमान में था। स्पष्ट है अंग्रेजों के प्रिय कौन थे ।।
जब वीर सावरकर 13 मई, 1910 की रात्रि को पैरिस से लन्दन पहुंचे तो स्टेशन पर ही पुलिस ने उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर लिया। अदालत ने उनके मुकदमे को भारत में शिफ्ट कर दिया। जब सावरकर को 8 जुलाई, 1910 को एस.एस. मोरिया नामक समुद्री जहाज से भारत लाया जा रहा था तो वे रास्ते में जहाज के सीवर के रास्ते से समुद्र में कूद पड़े और गोरे अधिकारियों की गोलियों की बौछार के बीच वे फ्रांस के दक्षिणी सागरतट पर पहुँच ही गये, मगर फ्रांस के सिपाहियों ने उन्हें अंग्रेजों को सौंप दिया। उन्हें बम्बई लाया गया। यहाँ पर तीन जजों की विशेष अदालत गठित की गई। इसमें अपराधी की पक्ष जानने का कोई प्रावधान नहीं था। इस अदालत में सावरकर को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र बनाने की विधि की पुस्तक प्रकाशित करवाने का दोषी ठहराकर 24 दिसम्बर 1910 को 25 साल कठोर काला पानी की सजा सुनाई। इसके साथ ही दूसरे मुकदमें में नासिक के कलक्टर मिस्टर जैक्सन की हत्या के लिए साथियों को भड़काने का आरोपी ठहराकर अलग से 25 साल के काला पानी की सजा सुनाई गई।
देशभर में सावरकर की रिहाई को लेकर चले आंदोलनों के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें इन शर्तों के साथ रिहा कर दिया कि वे न तो रत्नागिरी से बाहर जाएंगे और न ही किसी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेंगे। जेल से रिहा होने के बाद देश के बड़े-बड़े नेता और यहाँ तक कि महात्मा गांधी भी उनसे मिलने आए और उनकी देश-भक्ति की मुक्त-कंठों से प्रशंसा की। किन्तु दोनों के विचारों में जीवन-पर्यन्त अन्तर बना रहा। मार्च, 1925 में उनसे मिलने डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार पहुंचे और 22 जून, 1940 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनसे मिलने आए।
जब सावरकर की तबियत काफी खराब हो गई तो अंग्रेजी हुकूमत उन्हें जनांदोलन के भय से छोड़ा। जब वह भारत आयें तो गांधी जी और नेहरू की चौकड़ी स्वतंत्रता संग्राम के शीर्ष पर थी। और असली सेनानी थे जिन्होंने अपना जीवन न्योछावर किया था एक साजिश के तहत वैसे सेनानी हाशिये से भी बाहर कर दिए गए थें। किसी को उनके देशभक्ति पर संदेह है तो सेलुलर जेल, अंडमान में जा कर उनके बारे में दस्तावेज पढ़े। देश के अनेक देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी का दुर्भाग्य है जो ब्रिटिश हुकूमत और कम्युनिस्ट इतिहासकारो के दुष्प्रचार के केंद्र बने। यह देश का दुर्भाग्य ही है जो सावरकर को # वीर नहीं कहने की दलील देते है।
वीर सावरकर नहीं होते तो 1857 की अज़ादी के विद्रोह को भुला दिया गया होता
आज़ादी की पहली लडाई 1857 मे लडी गई थी जिसमे अनेको योध्धाओं भाग लिया था आज़ादी का पहला बिगुल मंगल पांडेय ने बजाई थी , फ़िर अनेको जगहो पर विद्रोह शुरू हो गया था, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपी, बिहार के बाबू कुँवर सिंह ने इस विद्रोह बहुत बड़ा कर दिया था, अंग्रेजों इस विद्रोह को दबा दिया था और उसने इन योध्धाओं का नाम तक इतिहास मे आने नहीं दिया, ताकि उनकी कहानियों से कोई प्रेरित होकर विद्रोह न कर पाये।परन्तु सच्चाई छुप नहीं सकती हैं वीर सावरकर 1905-06 मे इंगलैंड गये, और पहले भारतीय भी थे जिन्होंने लंदन मे वकालत की पढाई की इस दौरान उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी की 1500 से अधिक किताबों को पढ़ लिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनपर लाइब्रेरी में जाने पर भी प्रतिबंध लगाया था।
वीर सवाकर पहले भारतीय थे जिन्होंने
से वकालत की थी, परन्तु डिग्री नहीं ली
ब्रिटिश काल में बैरिस्टर का परीक्षा पास करने वाले भारतीयों को एक अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर करना होता था जिस पर लिखा था "डिग्री प्राप्त होने के बाद मैं ब्रिटीश सरकार का वफादार रहूंगा"सावरकर ने परीक्षा पास की लेकिन उन्होंने अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया, जिसके कारण उन्हें डिग्री नहीं प्राप्त हो सकी । उन्हीं सावरकर को कांग्रेसी गुलाम अंग्रेजों का पिट्ठू बताते हैं, लेकिन गांधी और नेहरू ने इसी अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर कर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की और प्रैक्टिस की और देशभक्त भी कहलाये।
सावरकर इटली के स्वतन्त्रता सेनानी ‘जोजेफ मैजिनी और गैरीबाल्डी’ के विचारों से बहुत प्रभावित थे और देश के लिए उनके आदर्शों के प्रशंसक थे। इसलिए इंग्लैंड में लिखी उनकी पहली पुस्तक ‘मैजिनी की आत्मकथा’ का ही मराठी रूपान्तर था जिसने देशवासियों में तहलका मचा दिया था। इस पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार थे – ‘‘कोई भी राष्ट्र कदापि नहीं मरता। परमात्मा ने मानव को स्वतन्त्र रहने के लिए उत्पन्न किया है। जब दृढ़ संकल्प लोगे तभी तुम्हारा देश भी स्वतन्त्र हो जायेगा।’’
भारत में इसके प्रकाशन के लिए पर्याप्त धनराशि जुटाने में बाबाराव असफल हो गए तब क्रांति की देवियों ने, उनकी पत्नी और सावरकर की पत्नी ने अपने गहने बेच कर धन इकट्ठा करने में सहायता की। अंग्रेजों को जब इस पुस्तक का पता चला तो उन्होंने इसके प्रकाशन को बीच में ही बंद करवा कर पुस्तक भी जब्त कर ली। इस कलम के सिपाही से अंग्रेज़ी हुकूमत इतनी आक्रान्तित थी कि इनके द्वारा लिखित 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तक ‘1857 का सम्पूर्ण सत्य’ को प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबन्धित कर दिया। विश्व इतिहास में किसी लेखक के साथ ऐसा पहली बार हुआ था। इस ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद श्री वी0 वी0एस0 अय्यर एवं बैरिस्टर फड़के द्वारा किया गया और अथक प्रयास के बाद हालैंड में इस पुस्तक का प्रथम अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हो पाया।
ब्रिटिश हुकूमत के विरोध करने पर गांधी और नेहरू भी जेल गए और जेल में भोजन से लेकर रहन सहन में विशेष सुविधा उन्हें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जेल में दी गयी जबकि सावरकर ब्रिटिश हुकूमत के लिए खतरनाक माने गए। इन्हें कालापानी दिया गया जो सेल्युलर जेल के नाम से अंडमान में था। स्पष्ट है अंग्रेजों के प्रिय कौन थे ।।
वीर सावरकर के पुत्र की मृत्यू और परिवार पर अंग्रेजी हुकूमत की प्रताड़ना
सावरकर पता नहीं किस मिट्टी के बने थे, जब वे लन्दन में थे तो भारत में उनके परिवार पर जुल्मों का दौर जारी हो चुका था। उनके 8 वर्षीय पुत्र प्रभाकर की मौत हो गई थी। देशभक्ति की कविताएं प्रकाशित करवाने और अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध जन-विद्रोह भड़काने के आरोप में उनके बड़े भाई को गिरफ्तार कर अण्डमान जेल भेज दिया गया था। नासिक जैक्सन हत्या केस में सावरकर के साथियों को पकड़ लिया गया था और उन्हें फांसी पर लटकाने की तैयारी की जा रही थी। सावरकर की भाभी व पत्नी को अंग्रेजी सरकार ने बेघर कर दिया था। अंग्रेजी सरकार ने लन्दन और हिन्दुस्तान में दोनों जगह सावरकर की गिरफ्तारी के वारन्ट भी जारी कर दिए। इसके बावजूद सावरकर ने स्वदेश लौटने का संकल्प लिया।वीर सावरकर का संघर्ष
श्रीमदन लाल ढ़ींगरा ने सावरकर से पूछा था, ‘व्यक्ति बलिदान के लिए कब तैयार होता है?’सावरकर ने उत्तर दिया; जब वो अपने विवेक से प्रेरित होकर दृढ़ निश्चय कर लेता है तभी !’ उनके इन्हीं वचनों से प्रेरित होकर 1 जुलाई 1909 को लन्दन के इम्पीरियल-इंस्टिच्यूट के जहाँगीर हाॅल में मदनलाल ढींगरा ने कर्जन वायली नामक एक अंग्रेज अधिकारी की गोली मार कर हत्या कर दी। अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। 17 अगस्त 1909 को मदनलाल ढींगरा को फाँसी पर लटका दिया गया। उनके अन्तिम शब्द थे, ‘‘ईश्वर से मेरी अन्तिम प्रार्थना है कि मैं तब तक उसी भारत माता के लिए जन्मता और पुनः मरता रहूँ जब तक यह स्वतन्त्र न हो जाये।’’ उधर कुछ भारतीय नेताओं ने कैकस्टन हॉल में बैठक बुलाकर ढ़ींगरा के खिलाफ सर्वसम्मति से निन्दा प्रस्ताव पास करने की घोषणा की। इस बैठक में पहुंचकर वीर सावरकर ने ढ़ींगरा के पक्ष की जबरदस्त पैरवी की और उनके खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पास नहीं होने दिया। इधर भारत में सावरकर के छोटे भाई श्री नारायण को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर ने इस समाचार को सुनकर गर्व से कहा- ‘इससे ज्यादा गौरव की बात और क्या होगी कि हम तीनों भाई ही स्वातन्त्रय लक्ष्मी की आराधना में लीन हैं।’जब वीर सावरकर 13 मई, 1910 की रात्रि को पैरिस से लन्दन पहुंचे तो स्टेशन पर ही पुलिस ने उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर लिया। अदालत ने उनके मुकदमे को भारत में शिफ्ट कर दिया। जब सावरकर को 8 जुलाई, 1910 को एस.एस. मोरिया नामक समुद्री जहाज से भारत लाया जा रहा था तो वे रास्ते में जहाज के सीवर के रास्ते से समुद्र में कूद पड़े और गोरे अधिकारियों की गोलियों की बौछार के बीच वे फ्रांस के दक्षिणी सागरतट पर पहुँच ही गये, मगर फ्रांस के सिपाहियों ने उन्हें अंग्रेजों को सौंप दिया। उन्हें बम्बई लाया गया। यहाँ पर तीन जजों की विशेष अदालत गठित की गई। इसमें अपराधी की पक्ष जानने का कोई प्रावधान नहीं था। इस अदालत में सावरकर को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र बनाने की विधि की पुस्तक प्रकाशित करवाने का दोषी ठहराकर 24 दिसम्बर 1910 को 25 साल कठोर काला पानी की सजा सुनाई। इसके साथ ही दूसरे मुकदमें में नासिक के कलक्टर मिस्टर जैक्सन की हत्या के लिए साथियों को भड़काने का आरोपी ठहराकर अलग से 25 साल के काला पानी की सजा सुनाई गई।
दुनियाँ की सबसे अनूठी और लंबी सजा वीर सावरकर को मिली
इस तरह सावरकर को दो अलग-अलग मुकदमों में दोषी ठहराकर दो-दो आजन्मों के कारावासों की सजा के रूप में कुल 50 साल काले पानी की सजा सुनाई गई। ऐसा अनूठा मामला विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ, जब किसी को इस तरह की सजा दी गई। 7 अप्रैल 1911 को उन्हें अण्डमान भेज दिया गया। उन्होंने दस वर्ष अंडमान की सेल्युलर जेल में बिताए। इस दौरान उन्हें जेलर डेविड बेरी के कहर का सामना करना पड़ा क्योंकि सरकार ने उन्हें खतरनाक कैदी का बिल्ला पहनाया था। इस जेल के हर सेल का आकार 4.5 m×2.7m था। यहाँ से कोई चाहकर भी भाग नहीं सकता था क्योंकि इस जेल के चारों तरफ पानी ही पानी है।जेलर द्वारा सावरकर को भयँकर अमानवीय यातनायें दी जाती थी
यहाँ भयंकर अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं जैसे – कोल्हू में बैल की तरह जुत कर रोज़ाना 30 पौंड तेल निकलवाना, घड़ी की भांति घंटों दीवार में टांग देना, कई सप्ताह तक हथकड़ी पहनकर खड़े रहकर बागवानी, गरी सुखाने, रस्सी बनाने, नारियल की जटा तैयार करने, कालीन बनाने, तौलिया बुनने का काम,एकांत काल कोठरी में कैद करना, पीने को स्वच्छ जल उपलब्ध ना करना, सड़े-गले भोजन परोसना आदि। ये यातनाएं इतनी भयावह थी कि कैदी को मानसिक और शारीरिक रूप से अपाहिज बनाने में सक्षम थी। इन सबके विरूद्ध कैदियों के साथ मिलकर सावरकर ने भूख हड़ताल की और किसी प्रकार पत्र के जरिए कमिश्नर को अण्डमान जेल में कैदियों पर हो रहे अत्याचारों से अवगत करवाया। परिणामस्वरूप कार्यवाही हुई और जेलर डेविड को वहां से हटा दिया गया। इसके साथ ही कैदियों की सभी शर्तों को भी मान लिया गया। परंतु असहनीय प्रताड़नाओं को सहते हुए क्रांतिकारी इंदुभूषण ने आत्महत्या कर ली और महीने भर भूख हड़ताल के कारण 16 वर्षीय नानी गोपाल ने भी दम तोड़ दिया। इस अण्डमान जेल में सावरकर की काव्य-प्रतिभा और निखर उठी। उन्होंने करीब दस हजार काव्य पंक्तियों की यहाँ रचना की।वीर सावरकर की रिहाई के लिये पूरे देश में आंदोलन चला
देशभर में सावरकर की रिहाई के लिए भारी आन्दोलन चला और उनकी रिहाई के मांग पत्र पर 75000 लोगों ने हस्ताक्षर किए। वर्ष 1921 में देशभर में भारी जन-आक्रोश के चलते उन्हें अण्डमान से वापस भारत भेजा गया और रत्नागिरी सैन्ट्रल जेल में रखा गया। इस जेल में वे तीन वर्ष तक रहे। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘हिन्दुत्व’ पर शोध ग्रन्थ तैयार किया। उनके विचार में हिंदुत्व की परिभाषा कुछ इस प्रकार है,’हिन्दू हमारा नाम है और हिंदुस्तान हमारी मातृभूमि है, सभी हिन्दू एक हैं, हमारा राष्ट्र एक है। एक राष्ट्र, एक जाति और एक संस्कृति के आधार पर ही हम हिंदुओं की एकता आधारित है। वे सभी व्यक्ति हिन्दू हैं जो हिमालय से समुद्र तक इस समग्र देश को अपनी पितृभूमि के रूप में मान्यता देकर वंदना करते हैं। जिसकी धमनियों में उस महान जाति का रक्त प्रवाहित हो रहा है जिसका मूल सर्वप्रथम सप्त सिन्धुओं में परिलक्षित होता रहा है और जो विश्व में हिन्दू नाम से सुविख्यात है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम देश में रहने वाले हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों में यह पवित्र भाव जागृत कर सकें कि हम सब सबसे पहले हिंदुस्तानी हैं और उसके बाद कुछ और।’देशभर में सावरकर की रिहाई को लेकर चले आंदोलनों के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें इन शर्तों के साथ रिहा कर दिया कि वे न तो रत्नागिरी से बाहर जाएंगे और न ही किसी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेंगे। जेल से रिहा होने के बाद देश के बड़े-बड़े नेता और यहाँ तक कि महात्मा गांधी भी उनसे मिलने आए और उनकी देश-भक्ति की मुक्त-कंठों से प्रशंसा की। किन्तु दोनों के विचारों में जीवन-पर्यन्त अन्तर बना रहा। मार्च, 1925 में उनसे मिलने डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार पहुंचे और 22 जून, 1940 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनसे मिलने आए।
11 साल की यातना पूर्ण काला पानी की सजा के बाद वीर सावरकर को कुछ शर्तों के साथ रिहा किया गया था
11 वर्षो के कालापानी की सजा काटने के बाद गोलवरकर जी ने उनका देश के प्रति समर्पण देख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आने का प्रेरित किया और उन्होंने स्वीकार भी किया। उनकी सम्मान जनता के बीच कम करने के लिये उन्हें गांधी जी के हत्या कांड में भी कांग्रेसी सरकार ने गिरफ्तार किया लेकिन हर बार न्यायालय से निर्दोष साबित हुए। हिन्दू के हित के लिये समर्पित सावरकर को साम्प्रदायिक होने का तमगा बार बार लगाने की कोशिश की गई जबकि वे देश के बंटवारा के कट्टर विरोधी थे। उनके साथ ब्रिटिश हुकूमत के बाद कांग्रेस ने भी अन्याय ही किया जो अत्यंत दुःखद ही है।इतने बलिदानों और संघर्षो के वावजूद आख़िर क्यों कुछ लोग सावरकर को कायर कहते हैं
सेल्युलर जेल में अपने साथ हो रहे अन्याय पर ब्रिटिश हुकूमत के पास उन्होने जरूर लिखा कि D श्रेणी में सजा भुगत रहे अनेक कैदियों को रिहा किया जा रहा है लेकिन मुझे क्यों नहीं? अतः दया कर कानून और ब्रिटिश संविधान के अनुसार मुझे भी अन्य के भांति रिहा किया जाय या भारतीय जेल में भेजा जाय, इनके विचारधारा के विरोधी ने इस पत्र को अंग्रेजो से क्षमा याचना की बात कहते हैं। लेकिन उन्हें इस अनुरोध के बाद भी नहीं छोड़ा गया।जब सावरकर की तबियत काफी खराब हो गई तो अंग्रेजी हुकूमत उन्हें जनांदोलन के भय से छोड़ा। जब वह भारत आयें तो गांधी जी और नेहरू की चौकड़ी स्वतंत्रता संग्राम के शीर्ष पर थी। और असली सेनानी थे जिन्होंने अपना जीवन न्योछावर किया था एक साजिश के तहत वैसे सेनानी हाशिये से भी बाहर कर दिए गए थें। किसी को उनके देशभक्ति पर संदेह है तो सेलुलर जेल, अंडमान में जा कर उनके बारे में दस्तावेज पढ़े। देश के अनेक देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी का दुर्भाग्य है जो ब्रिटिश हुकूमत और कम्युनिस्ट इतिहासकारो के दुष्प्रचार के केंद्र बने। यह देश का दुर्भाग्य ही है जो सावरकर को # वीर नहीं कहने की दलील देते है।
पहले सावरकर को जान लेते की वे कौन तो शायद वे उन्हे कायर कहने की हिमाकत नहीं करते
- वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे,जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया,और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी,हम शोक क्यूँ करें?क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है.?
- वीर सावरकर पहले देशभक्त थे,जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े - बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ।
- विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में,7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी।
- वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे,जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया,तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी,जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र 'इन्डियन ओपीनियन' में गाँधी ने निंदा की थी...
- सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया...
- सावरकर पहले भारतीय थे,जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया,और दस रूपये जुर्माना लगाया ,इसके विरोध में हड़ताल हुई,स्वयं तिलक जी ने 'केसरी' पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा।
- वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे,जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली... इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया।
- वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे,जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को' 1857 का स्वातंत्र्य समर' नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया।
- सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे,जिनके लिखे '1857 का स्वातंत्र्य समर' पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था।
- '1857 का स्वातंत्र्य समर' विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंहने इसे छपवाया था जिसकी एक - एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी,भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी,पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी।
- वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे।
- सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे,जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला,मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदीबनाकर भारत लाया गया।
- वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे,जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी।
- सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे,जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले- "चलो,ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया."
- वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे,जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तकआजादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला।
- वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे,जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकड़ और कोयले से कवितायें लिखी और 6000 पंक्तियाँ याद रखी।
- वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे,जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा।
- आधुनिक इतिहास के वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे,जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि-'आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका.पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः.'अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है,जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है।
- वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा,पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया ,देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारों से डर लगता था।
- वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे,जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि,वे संसद सदस्य नही थे,जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था।
- वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे, जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को,उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके निधनपर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था।
- वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे,जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा,लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया।
- वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए,जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था,और उसकी जगह गांधी का शिलालेख लगवा दिया,वीर सावरकर ने दस साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था,जबकि गाँधी ने कालापानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा नही चलाया।
- महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी-देशभक्त,उच्च कोटि के साहित्य के रचनाकार,हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के मंत्रदाता, हिंदुत्व के सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे भव्य-दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे, जिनसे अन्ग्रेजी सत्ता भयभीत थी,आजादी के बाद नेहरु की कांग्रेस सरकार भयभीत थी।
- वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे,जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया...पर आश्चर्य की बात यह है कि,इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारोंका सूर्य उदय हो रहा है।
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