1857 यानी भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम. देसी फौजों की बगावत के लिए 31 मई की तारीख तय थी मगर मेरठ के सिपाहियों का खून दस मई को ही उबाल खा गया. इसके बावजूद बगावत फैली तो आगरा व अवध में अंग्रेजी राज बीते दिनों की बात होकर रह गया।
आख़िर कौन थे उदमी राम जिन्हे अंग्रेजों ने 35 दिन तक प्रताड़ना दी फिर मार दिया।
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौर के ऐसे असंख्य महान क्रांतिकारी, देशभक्त, बलिदानी, एवं शहीद रहे जो इतिहास के पन्नों में या तो दर्ज ही नहीं हो पाए, या फिर सिर्फ आंशिक तौर पर ही उनका उल्लेख हो पाया। ऐसा ही एक उदाहरण हरियाणा में सोनीपत जिले के गाँव लिबासपुर के महान क्रांतिकारी उदमी राम का है। ये वही उदमी राम हैं, जो 1857 में अपने गाँव के नम्बरदार थे और देशभक्ति रग-रग में भरी हुई थी। ये वही उदमी राम हैं, जिनको उसकी पत्नी सहित अंग्रेजों ने पीपल के पेड़ पर कीलों से ठोंक दिया था और 35 दिन तक रूह कंपा देने वाली भयंकर यातनाएं दी गईं और पानी मांगने पर पेशाब पिलाया गया। ये वही उदमी राम हैं जिनके सहयोगी मित्रों को बहालगढ़ चैंक पर सरेआम सड़क पर लिटाकर पत्थर के कोल्हू के नीचे बुरी तरह रौंद दिया था। ये वही उदमी राम हैं, जिनके पिता को ही नहीं पूरे गाँव को भयंकर सजा मिली और आज भी उस सजा को याद करके पूरा गाँव सिहर उठता है। विडम्बना देखिए, ऐसे महान देशभक्त क्रांतिकारी योद्धा के बारे में शायद ही कोई जानता हो और शायद ही उनकी शहादत को स्मरण करता हो। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि इस महान क्रांतिवीर के वंशज आज अति दरिद्रता के कुचक्र में फंसे हैं और दाने-दाने के मोहताज हैं, इसके बावजूद किसी सरकार ने उनकी आज तक सुध नहीं ली। उनके वंशजों ने अपने ऊपर हुए अन्यायों के विरूद्ध लाहौर से लेकर दिल्ली तक लड़ाई लड़ी है और राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र सरकारों तक न्याय की गुहार लगाई है, लेकिन आज तक उन्हें न्याय नहीं मिला।
जब इस परिवार के हालातों से रूबरू होते हैं तो कलेजा मुंह को आता है। यह परिवार दाने-दाने के लिए मोहताज है और गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आता है। घर का मुखिया हरदेवा कर्ज और बीमारी के बोझ के नीचे हड्डियों का ढ़ांचा मात्र रह गया है। घर की रोजी-रोटी चलाने के लिए दीन-हीन हरदेवा दूर-दूर गाँवों में मजदूरी की तलाश में जाता है। कभी मजदूरी मिलती है, कभी नहीं। जब मजदूरी मिलती है तो बीमारी काम के आड़े आ जाती है। घर को कोई सदस्य बीमार पड़ता है तो डॉक्टर को दिखाने के लिए सौ बार सोचा जाता है, क्योंकि दवा के लिए खर्च के पैसे ही नहीं हैं। सिर छिपाने के लिए पूर्वजों का पुश्तैनी मकान है, जोकि जर्जर हो चुका है। घरेलू सामान के लिए दुकानदारों के पास उधार खाता इतना बढ़ चुका है कि वे और सामान देने से कन्नी काटने लगे हैं। डॉक्टरों की उधार के चलते अब ईलाज भी सहज संभव नहीं हो पाता। जर्जर मकान कब गिर जाए, इसी भय के साये में समय काटना मजबूरी बन चुका है। गाँव के कुछ रसूखदार लोगों का कर्ज पिछले कई वर्षों से गले की फांस बना हुआ है। कुल मिलाकर मुसीबतों का विशाल पहाड़ हरदम ढ़ो रहा है महान शहीद उदमी राम का वंशज परिवार।
आख़िर कौन थे उदमी राम जिन्हे अंग्रेजों ने 35 दिन तक प्रताड़ना दी फिर मार दिया।

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौर के ऐसे असंख्य महान क्रांतिकारी, देशभक्त, बलिदानी, एवं शहीद रहे जो इतिहास के पन्नों में या तो दर्ज ही नहीं हो पाए, या फिर सिर्फ आंशिक तौर पर ही उनका उल्लेख हो पाया। ऐसा ही एक उदाहरण हरियाणा में सोनीपत जिले के गाँव लिबासपुर के महान क्रांतिकारी उदमी राम का है। ये वही उदमी राम हैं, जो 1857 में अपने गाँव के नम्बरदार थे और देशभक्ति रग-रग में भरी हुई थी। ये वही उदमी राम हैं, जिनको उसकी पत्नी सहित अंग्रेजों ने पीपल के पेड़ पर कीलों से ठोंक दिया था और 35 दिन तक रूह कंपा देने वाली भयंकर यातनाएं दी गईं और पानी मांगने पर पेशाब पिलाया गया। ये वही उदमी राम हैं जिनके सहयोगी मित्रों को बहालगढ़ चैंक पर सरेआम सड़क पर लिटाकर पत्थर के कोल्हू के नीचे बुरी तरह रौंद दिया था। ये वही उदमी राम हैं, जिनके पिता को ही नहीं पूरे गाँव को भयंकर सजा मिली और आज भी उस सजा को याद करके पूरा गाँव सिहर उठता है। विडम्बना देखिए, ऐसे महान देशभक्त क्रांतिकारी योद्धा के बारे में शायद ही कोई जानता हो और शायद ही उनकी शहादत को स्मरण करता हो। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि इस महान क्रांतिवीर के वंशज आज अति दरिद्रता के कुचक्र में फंसे हैं और दाने-दाने के मोहताज हैं, इसके बावजूद किसी सरकार ने उनकी आज तक सुध नहीं ली। उनके वंशजों ने अपने ऊपर हुए अन्यायों के विरूद्ध लाहौर से लेकर दिल्ली तक लड़ाई लड़ी है और राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र सरकारों तक न्याय की गुहार लगाई है, लेकिन आज तक उन्हें न्याय नहीं मिला।
क्यों उदमी राम ने अंग्रेज अफसर की पत्नी को नहीं मारा जो बाद मे उनकी सबसे बड़ी गलती हुई
दरअसल, 1857 के आसपास शहीद उदमी राम अपने गाँव लिबासपुर के नंबरदार थे और दूर-दूर तक उनकी देशपरस्ती के किस्से मशहूर थे। यह गाँव लिबासपुर, दिल्ली के नजदीक सोनीपत राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इसी राष्ट्रीय राजमार्ग से बड़ी संख्या में अंग्रेज अधिकारी गुजरते थे। उदमी राम के नेतृत्व में गुलाब सिंह, जसराम, रामजस सहजराम, रतिया आदि लगभग 22 युवा क्रांतिकारियों का एक संगठन ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध काम करता था। इस संगठन के युवा क्रांतिकारी भूमिगत होकर अपने पारंपरिक हथियारों मसलन, लाठी, जेली, गंडासी, कुल्हाड़ी, फरशे आदि से यहां से गुजरने वाले अंग्रेज अफसरों पर धावा बोलते थे और उन्हें मौत के घाट उतारकर गहरी खाईयों व झाड़-झंखाड़ों के हवाले कर देते थे। इसी क्रम में उदमी राम ने साथियों के साथ अफसर पर घात लगाकर हमला बोल दिया और उस अंग्रेज अफसर को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेज अफसर के साथ उनकी पत्नी भी थीं। भारतीय संस्कृति के वीर स्तम्भ उदमी राम ने एक महिला पर हाथ उठाना पाप समझा और काफी सोच-विचार कर उस अंग्रेज महिला को लिबासपुर के पड़ौसी गाँव भालगढ़ में एक ब्राह्मणी के घर बड़ी मर्यादा के साथ सुरक्षित पहुंचा दिया और बाई को उसकी पूरी देखरेख करने की जिम्मेदारी सौंप दी।उदमी राम ने अंग्रेज अफसर की पत्नी को मर्यादा के साथ ब्राह्मण परिवार के देखरेख मे रखा था
कुछ दिन बाद इस घटना का समाचार आसपास के गाँवों में फैल गया। कौतुहूलवश लोग उस अंग्रेज महिला को देखने भालगढ़ में ब्राह्मणी के घर आने लगे और तरह-तरह की चर्चा करने देने लगे। यह चर्चा राठधाना गाँव निवासी एवं अंग्रेजों के मुखबिर ने भी सुनी। वह भी सारी जानकारी एकत्रित करके भालगढ़ में बाई के घर जा पहुंचा। वह बंधक अंग्रेज महिला से मिला और एकत्रित की गई सारी जानकारी उस महिला को दी। उसने अंग्रेज महिला को डराया कि बहुत जल्द क्रांतिकारी उसे भी मौत के घाट उतारने वाले हैं। यह सुनकर अंग्रेज महिला भय के मारे कांप उठी। अंग्रेज महिला ने उससे कहा कि यदि वह उसकी मदद करे और उसे पानीपत के अंग्रेजी कैम्प तक किसी तरह पहुंचा दे तो उसे मुंह मांगा ईनाम दिलवाएगी। उसने झट अंग्रेज महिला की मदद करना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज मुखबिर ने बाई को डराया और अपने साथ मिला लिया। उसने बाई की मदद से रातोंरात उस अंग्रेज महिला को पानीपत के अंग्रेजी कैम्प में पहुंचा दिया। कैम्प में पहुंचकर अंग्रेज महिला ने सीता राम की दी हुई सभी गोपनीय जानकारियां अंग्रेजी कैम्प में दर्ज करवाईं और यह भी कहा कि विद्रोह में सबसे अधिक भागीदारी लिबासपुर गाँव ने की है और उसका नेता उदमीराम है।राठधाना गाँव के मुखबीर ने अग्रेजोँ को उदमी राम और लिबासपुर गाँव के लोगों के खिलाफ मुखबीरी कर दी
इसके बाद अंग्रेजों का कहर लिबासपुर एवं उदमीराम पर टूटना ही था। सन् 1857 की क्रांति पर काबू पाने के बाद क्रांतिकारियों एवं विद्रोही गाँवों को भयंकर दण्ड देना शुरू किया। इसी क्रम में अंग्रेजी सरकार ने एक दिन सूरज निकलने से पहले ही लिबासपुर गाँव को घेर लिया। उदमी राम व उसके साथियों को भूमिगत होना पड़ा। ग्रामीणों पर अंग्रेजों का कहर टूट पड़ा। सभी लोगों, महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों की जमीन पर उलटा लिटा-लिटाकर कोड़ों से भयंकर पिटाई की गई, लेकिन किसी ने क्रांतिकारियों के खिलाफ मुंह नहीं खोला। उदमी राम के पिता की भी बेरहमी से पिटाई की गई।गाँव के लोगोँ को यतनाओ से बचाने के लिए उदमी राम ने ख़ुद समर्पण कर दिया
अंततः उदमी राम एवं उसके साथियों को आत्म-समर्पण करने को मजबूर होना पड़ा। इसके बाद अंग्रेजों ने उन युवा क्रांतिकारियों को जो दिल दहलाने वाली भयंकर सजाएं दीं, उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। क्रान्तिवीर उदमी राम को उनकी पत्नी श्रीमती रत्नी देवी सहित गिरफ्तार करके राई के कैनाल रैस्ट हाऊस में ले जाकर पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से ठोंक दिया गया। अन्य क्रांतिकारियों को जी.टी. रोड़ पर लिटाकर बुरी तरह से कोड़ों से पीटा गया और सड़क कूटने वाले कोल्हू के पत्थरों के नीचे राई के पड़ाव के पास भालगढ़ चोक पर सरेआम बुरी तरह से रौंद दिया गया। इनमें से एक कोल्हू का पत्थर सोनीपत के ताऊ देवीलाल पार्क में आज भी स्मृति के तौर पर रखा हुआ है।उदमी राम को उनके पत्नी के साथ दिल दहला देने वाली यातनाएँ दी गई
उधर राई के रैस्ट हाऊस में पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से टांगे गए क्रांतिवीर उदमी राम और उसकी पत्नी रत्नी देवी को तिल-तिल करके तड़पाया गया। उन दोनों को खाने के नाम पर भयंकर कोड़े और पीने के नाम पर पेशाब दिया गया। कुछ दिनों बाद उनकी पत्नी ने पेड़ पर कीलों से लटकते-लटकते ही जान दे दी। क्रांतिवीर उदमी राम ने 35 दिन तक जीवन के साथ जंग लड़ी और 35वें दिन 27 जून, 1858 को भारत माँ का यह लाल इस देश व देशवासियों को हमेशा-हमेशा के लिए आजीवन ऋणी बनाकर चिर-निद्रा में सो गया।अंग्रेजों ने उदमी राम के पार्थिव शरीर को भी नहीं बख़्शा
उदमी राम की शहादत के बाद अंग्रेजी सरकार ने उनके पार्थिव शरीर का भी बहुत बुरा हाल किया और उसके परिवार को भी नहीं सौंपा। अंग्रेजों ने इस महान क्रांतिकारी के शव को कहीं छिपा दिया और बाद में उसे खुर्द-बुर्द कर दिया।अंग्रेजों ने उदमी राम के मौत के बाद भी लिबासपुर गाँव वालो को नहीं बख़्शा पूरे गाँव को उदमी राम की मुखबीरी करने वाले को दे दी
अंग्रेजों का दिल इतने भयंकर दमन व अत्याचार के बावजूद नहीं भरा। अंग्रेजी सरकार ने अपने मुखबिर को पूरा लिबासपुर गाँव कौडियों के भाव नीलाम कर दिया। सबसे बड़ी विडम्बना की बात तो यह है कि आजादी से लेकर आज तक भी लिबासपुर गाँव की मल्कियत राठधाना के उसी अंग्रेज मुखबिर के वंशजों के नाम ही है और शहीद उदमीराम एवं उसके क्रांतिकारी शहीदों के वंशज आज भी अंग्रेजी राज की भांति अपनी ही जमीन पर मुजाहरा करके गुजारा करने को विवश हैं। लिबासपुर के ग्रामीण अपनी जमीन वापिस पाने के लिए दशकों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है। इसके साथ ही सबसे बड़ी विडम्बना का विषय है कि जिस उदमी राम ने अपने देश के लिए अपनी जान को कुर्बान कर दिया, उसी उदमी राम के वंशज भूखों मरने के लिए विवश हैं। शहीद उदमी राम के वंशज हरदेवा सिंह लिबासपुर गाँव में अपने बच्चों के साथ बड़ी मुश्किल से जीवन निर्वाह कर रहा है। गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में शामिल हरदेवा कर्ज से डूबा पड़ा है। बेरोजगारी व बेकारी ने उन्हें तोड़कर रख दिया है। ऐसे हालातों के बीच शहीद उदमी राम के इस वंशज को कितनी पीड़ा हो रही होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। हरदेवा बेहद पीड़ा के साथ अपनी आप बीती सुनाते हुए बताता है कि वह सरकार से सहायता पाने के लिए खूब धक्के खा चुका है, लेकिन उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं।आज़ देश आज़द होने के बावजूद लिबासपुर की मिल्कियत उसी राठधाना गाँव के निवासी मुखबीर के वंशजों की हैं और उस महान क्रांतिकारी उदमी राम का खानदान गरीबी के बोझ तले दबा हुआ हैं
सबसे बड़ी विडम्बना की बात तो यह है कि जिस आजादी के लिए उदमी राम ने सबसे बड़ी कुर्बानी दी, उसी आजादी में उनका वंशज हरदेवा रोटी-कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं का भी मोहताज बना हुआ है। गाँव लिबासपुर के मध्य में आंगनवाड़ी भवन के पास एक अत्यन्त जर्जर हालत में है एक मकान, जिसमें रहता है महान शहीद उदमी राम का वंशज-परिवार। परिवार मंे कुल छह सदस्य हैं। श्री हरदेवा (मुखिया, 48 वर्ष), श्रीमती मुकेश देवी (पत्नी, 40 वर्ष) और चार बच्चे सीमा (15 वर्ष), परमजीत (7 वर्ष), हर्ष (5 वर्ष) व मोनी ( 3 वर्ष)।जब इस परिवार के हालातों से रूबरू होते हैं तो कलेजा मुंह को आता है। यह परिवार दाने-दाने के लिए मोहताज है और गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आता है। घर का मुखिया हरदेवा कर्ज और बीमारी के बोझ के नीचे हड्डियों का ढ़ांचा मात्र रह गया है। घर की रोजी-रोटी चलाने के लिए दीन-हीन हरदेवा दूर-दूर गाँवों में मजदूरी की तलाश में जाता है। कभी मजदूरी मिलती है, कभी नहीं। जब मजदूरी मिलती है तो बीमारी काम के आड़े आ जाती है। घर को कोई सदस्य बीमार पड़ता है तो डॉक्टर को दिखाने के लिए सौ बार सोचा जाता है, क्योंकि दवा के लिए खर्च के पैसे ही नहीं हैं। सिर छिपाने के लिए पूर्वजों का पुश्तैनी मकान है, जोकि जर्जर हो चुका है। घरेलू सामान के लिए दुकानदारों के पास उधार खाता इतना बढ़ चुका है कि वे और सामान देने से कन्नी काटने लगे हैं। डॉक्टरों की उधार के चलते अब ईलाज भी सहज संभव नहीं हो पाता। जर्जर मकान कब गिर जाए, इसी भय के साये में समय काटना मजबूरी बन चुका है। गाँव के कुछ रसूखदार लोगों का कर्ज पिछले कई वर्षों से गले की फांस बना हुआ है। कुल मिलाकर मुसीबतों का विशाल पहाड़ हरदम ढ़ो रहा है महान शहीद उदमी राम का वंशज परिवार।
सरकार भी उदमी राम के परिवार को आजतक अंदेखा करती आ रही हैं
आज़ सरकार भी उदमी राम के परिवार की सुध नहीं ले रही हैं हमे ही कुछ करना होगा नहीं तो इस देश के लिए मर मिटने वाले आगे नहीं आयेंगे, उनकी कुर्बानी की हमे इज्जत करनी चाहिए परंतु हमारा देश उन मुखबीरो को ही आश्रय दे रहा हैं, जिन्होंने उदमी राम की मुखबीरी की जिन्होंने रानी लक्ष्मी बाई की मुखबीरी की या जिन्होंने भगत सिंह के खिलाफ बयान दिया आज़ सभी के वंशज ऐशोआराम की जिंदगी ब्यतीत कर रहे हैं परंतु तात्या टोपे के खानदान के लोग लखनऊ के रेलवे स्टेशन पर चाय बनाकर गुजारा कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उनके साथ गद्दारी करने वाला सिंधिया खानदान खूब फल फूल रहा हैं, उसी तरह उदमी राम के खानदान के लोग मजदूरी करने पर विवश हैं तो दूसरी तरफ उनकी मुखबीरी करने वाले खानदान के लोग आज़ भी उदमी राम के पूरे गाँव के वारिस हैं, और सरकार भी लिबासपुर के असली वारिशों को उनकी जमीन नहीं दिला पा रही हैं।
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