Jaun Elia Shayar

कुछ शब्द हमने ,जाँन ऐलिया के लिए लिखने की कोशिश की हैं..

थूकता था खून शायरी में अपनी
दोस्तों शायर ही वो अलग था
पागल समझते थे लोग उसे
उसका शायरी कहने का अंदाज़ ही अलग था..

शायरी में अपने जज़्बात बोलता था
वो अपनी ज़िन्दगी के कुछ राज़ खोलता था
शायरी की उसकी ,कोई कायल हो गई थी
जॉन के इश्क में पागल हो गई थी..

अक्सर शायरी में अपने
किस्सा उसका सुनाया करता था
बदनाम शायर था वो
दर्द में भी मुस्कुराया करता था..

कुछ बातें जाँन के बारे मे,

जाँन ऐलिया का जन्म, 14, December, 1931अमरोहा शहर मे हुआ था,पहला शेर 8 साल की उमर मे लिखा था

चाह में उसकी तमाचा खाया है
देखो सुर्खी मेरे रख़सार की.

उनकी पत्नी का नाम जाहिदा हिना थाउनसे उनका तलाक 1980 में हो गया थाविभाजन के 10 साल बाद तक भारत में ही रहे,1957में भारत छोड़ के चले गए।

जब उनको छोड़ने कुछ दोस्त स्टेशन गएतो उन्होंने ये शेर पढ़ा-

अंजुमन की उदास आँखों से
आँसुओं का पयाम कह देना..
मुझको पहुंचा के लौटने वालों
सबको मेरा सलाम कह देना…

जॉन एलिया की मृत्यु 8 नवंबर 2002 कराची शहर में हुई।

जॉन ऐलिया के कुछ बेहतरीन शेर और ग़ज़ल हमने उनके चाहने वालों के लिए उनकी शायरी आप तक पहुँचाने की कोशिश की है.

हालत-ए-हाल के सबब
हालत-ए-हाल ही गयी,
शौख में कुछ नहीं गया
शौख की ज़िन्दगी गयी..।

अब तो जिस तौर भी गुज़र जाये
कोई इसरार ज़िन्दगी से नहीं,
उसके ग़म में किया सब ही को माफ़
कोई शिकवा भी अब किसी से नहीं..।

वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं,
क्या तक़ल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं..।

क्या कहा, इश्क़ जावेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या,
मिल रही हो बड़े तखाब के साथ
मुझको यक्सर भुला चुकी हो क्या..।

अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या,
अब मैं सारे जहां में हूँ बदनाम
अब भी तुम मुझको जानती हो क्या..।

ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा है मोहब्बत में,
वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं,
क्या तकलुफ़ करे हम ये कहने में
जो भी खुश है अब हम उससे जलते हैं..।

एक गली थी जब उस से हम निकले
ऐसे निकले जैसे दम निकले..।

किसी लिबास की खुशबू जब उड़के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है..।

तेरे गुलाब तरसते है तेरी खुशबू को
तेरी सफ़ेद चमेली तुझे बुलाती हैं..।

तेरे बगैर मुझे चैन कैसे पड़ता है
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है..।

तू है पेहलू में, फिर तेरी खुशबू ,
रूह होके प्यासी कहाँ से आती है ये उदासी कहाँ से आती हैं..

एक ही मुस्ताफुल लातिनी,धूप आँगन में फ़ैल जाती है
फर्श पर कागज़ उड़ते फिरते हैं,मेज़ पर गर्त जम जाती है..।

सोचता हूँ की उसकी याद आखिर
अब कैसे रात भर जगाती है,
उस शहज वफ़ा की फुरकत में
ख्वाहिशे गैर क्यों सताती है..।

आप अपने से हमसुघंद ही रहना
हमनशीं साथ छोड़ जाती है..।

क्या सितम है अब तेरी सूरत भी
गौर करने पे याद आती है..।

कौन है इस घर की देख भाल को
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है..।
मुझमें कब बाकी रहे होश-ओ-हवास
वो घनी पलकें जो बोझिल हो चली,
खींचनी थी अपनी तस्वीर-ए-जुनून
बैठे बैठे उसकी ज़ुल्फ़ें खींच लीं..।

सारी अक्ल-ओ-होश की आसाइशें
तुमने साँचे में जुनूँ के डाल दीं,
कर लिया था मैंने एहद-ए-तर्के इश्क़
तुमने फिर बाहें गले में डाल दीं..।

सिर ही अब फोड़िये नदामत में
नींद आने लगी है फुरकत में,
हैं दलीलें तेरे खिलाफ
मगर सोचता हूँ तेरी हिमायत में..।

इश्क़ को दरमियाँ ना लाओ
की मैं चीखता हूँ बदन की उसरत में,
ये कुछ आसान तो नहीं है की हम
रूठते हैं अब भी मुरव्वत में,

वो जो तामीर होनेवाली थी
लग गयी आग उस इमारत में,
वो खता है के सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ़्तगू हो खिलाफत में..।

उसके पहलु से लग के चलते हैं,
हम कहीं टालने से टलते हैं,
मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं..।

है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम संभाले नहीं सँभलते हैं,
है अजीब फैसले का सेहरा भी
चल ना पड़िये तो पाँव जलते हैं..।

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं,
तुम बनो रँग, तुम बनो खुशबू
हम तो अपने सुखन में ढलते हैं..।

महक उठा है आँगन इस खबर से,
वो खुशबु लौट आई है सफ़र से,
जुदाई ने उसे देखा सरेआम
गलीचे पर सफक के रंग बरसे हैं,
मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से..।

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से..।

उसे देखे ज़माने भर के ये चाँद
हमारी चांदनी साये को तरसे,
मेरे मानंद गुज़रा कर मेरी जान
कभी तो खुद भी अपनी रहगुज़र से..।

हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुम से मिलके बिछड़ता रहा हूँ मैं,
तुम कौन ये खुद भी नहीं जानती हो तुम
मैं कौन ये खुद भी नहीं जानता हूँ मैं,
तुम मुझको जानकर ही पड़ी हो अज़ाब में
और इस तरह खुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं..।

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उसका खुदा नहीं
बस सरबसर अज़ीयत ओ अज़ार ही रहो,
बेज़ार हो गयी हो बहोत ज़िन्दगी से
बेज़ार हो गयी हो तो बेज़ार ही रहो,
तुमको यहाँ के सायो परतों से क्या ग़रज़
तुम अपने गम में बीच की दीवार ही रहो..।

मैं इब्तदा-ए-इश्क़ से बेमेहर ही रहा
तुम इंतेहा-ए-इश्क़ का मेयार ही रहो,
तुम खून थूकती हो, ये सुनकर ख़ुशी हुई
इस रंग,इस अदा में भी फुरकार ही रहो,

मैंने ये कब कहा था की मोहब्बत में है निजात,
मैंने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो..।

जब मैं तुम्हें निशात ए मोहब्बत ना दे सका
ग़म में कभी सुकून ए रफाकत ना दे सका,
जब मेरे साथ चराग ए तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सरे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं,
फिर मुझको चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं..।

जो रानाई निगाहों के लिए सामान ए जलवा है
लिबास ए मुफ़्लिसी में कितनी बेशकीमति नज़र आती है,
यहाँ तो ज़ारेबीयत भी है दौलत ही की परवरदा
ये लड़की फ़ाक़ाकश्त होती तो बदसूरत नज़र आती..।

इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इनमें एक रंज है जिस रंज का मारा हुआ ज़हन,
मुश्तैद, इशरते, अंजाम नहीं पा सकता
ज़िन्दगी में कभी आराम नहीं पा सकता..।

तुमने मुझको लिखा है मेरे ख़त जला दिए
मुझको फ़िक्र रहती है आप ही ने गवां दिए,
आपका कोई साथी देखले तो क्या होगा
देखिये मैं कहती हूँ ये बहुत बुरा होगा,
मैं भी कुछ कहूँ तुमसे,
मैं तुम्हारे हर ख़त को लौहेदिल समझता हूँ
लौह ए दिल जला दूँ क्या,
जो भी कसक है इनकी,कहकशा हैं रिश्तों की
कहकशा लुटा दूं क्या,
है सवात् ए बेनाई, इनका जो भी नुक़्ता है
मैं उसे गँवा दू क्या,
जो भी हर्फ़ है इनका, नक़्शे जान है जाना
नक़्शे जान मिटा दूं क्या..।

मुझको लिखकर ख़त जानम अपने ध्यान में शायद
ख़्वाब ख्वाबचाज़मों के ,ख्वाब ख्वाब लम्हों में,
यूँही बेख्यालाना ज़ुर्म कर गयी हो तुम
और ख्याल आने पर उससे डर गयी हो तुम।

मेरे कमरे का क्या बयान के यहाँ खून थूका गया शरारत में
रूह ने इश्क़ का फरेब दिया जिस्म को जिस्म की आदत में,
अब फ़क़त आदतों की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में,
ये कुछ आसान तो नहीं है
की हम रूठे अब भी हैं मुरव्वत में..।

एक ही हादसा तो है, और वो ये की आज तक
बात नहीं कही गयी, बात नहीं सुनी गयी..।

बाद भी तेरे जानेजां,
दिल में रहा अजब समां
याद रही तेरी यहां
फिर तेरी याद भी नहीं रही..।

सहने खयाल-ए-यार में की न बसर शब-ए-फ़िराक
जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गयी..।

उसकी उम्मीद -ए-नाज़ का हमसे ये मान था की आप,
उम्र गुज़ार दीजिये उम्र गुज़ार दी गयी,
उसके विसाल के लिए, अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल के थी ख़राब ,और ख़राब की गयी..।

तेरे फ़िराक जानेजां ऐश था क्या मेरे लिए
यानी तेरे फ़िराक में खूब शराब पी गयी..।

उसकी गली से उठकर मैं आन पड़ा था अपने घर,
एक गली की बात थी और गली गली गयी..।

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे,
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उसको भाते होंगे..।

उसकी याद के बाद सभा में
और तो क्या होता होगा,
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे
और बिखर जाते होंगे..।

यारों कुछ तो हाल सुनाओ उसकी क़यामत बाहों का,
वो जो सिमटते होंगे वो तो मर जाते होंगे..।
 

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